नेहरू और आधुनिकता – डॉ. एच. जे. भाभा
जवाहरलाल नेहरू ने जो लेख लिखे और समय-समय पर जो भाषण दिए, उनसे हमारे मन पर दो प्रकार की गहरी छाप पड़ती है।
पहली छाप उनकी कर्मठता, जिजीविषा, उत्साह और उचित कार्य में सहयोग की भावना की है। दूसरी छाप उनके दृष्टिकोण की है। वे सभी मुद्दों पर बिना किसी द्वेष के विचार करते थे और इसे वे स्वयं “वैज्ञानिक वृत्ति” की संज्ञा देते थे।
विज्ञान के प्रति रवैया
विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति में नेहरू की गहरी आस्था थी। उनका विश्वास था कि “विज्ञान और तकनीकी के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।” लेकिन विज्ञान उनके दृष्टिकोण में इससे भी अधिक महत्वपूर्ण था। ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में उन्होंने कहा था, “सभी देशों के लिए विज्ञान का उपयोग बेहद आवश्यक है, लेकिन कुछ ऐसा भी है जो इसके उपयोग से भी अधिक महत्वपूर्ण है—विज्ञान की वैज्ञानिक सोच।
यह विज्ञान का साहसिक लेकिन जन-हितैषी दृष्टिकोण है, सत्य और नए ज्ञान की खोज है। किसी भी बात को बिना परखे स्वीकार न करना, साक्ष्य के आधार पर पुराने निष्कर्षों को बदलने की क्षमता रखना, परखे गए तथ्यों पर भरोसा करना, न कि पूर्वाग्रहों पर—यह सब मन के कठोर अनुशासन के लिए आवश्यक है, न सिर्फ विज्ञान के उपयोग के लिए बल्कि जीवन के लिए भी।”
नेहरू मानते थे कि जीवन के कई समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रवृत्ति जरूरी है—जीने के लिए, सोचने के लिए, काम करने के लिए, और अपने साथियों के साथ मिलकर काम करने के लिए। जीवन और इसके मुद्दों के प्रति उनका यही नजरिया था। वे चाहते थे कि अन्य लोग भी इस दृष्टिकोण को अपनाएं, क्योंकि उनका मानना था कि “इससे हमें दुनिया को वैसी समझने में मदद मिलती है जैसी वह वास्तव में है। अंततः यह एक निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जन्म देती है, जो हमें जीवन के अन्य मुद्दों को हल करने में भी सहायता कर सकती है। चाहे वह संसद से जुड़े मुद्दे हों या अन्य कोई विषय, अगर हम उन पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करें तो उन्हें बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता है।”
आज “दोनों वृत्तियों,” अर्थात वैज्ञानिक वृत्ति और मानवीय वृत्ति, के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। मानवीय वृत्ति में मानवीय और सौंदर्य संबंधी मूल्यों की सराहना शामिल है, चाहे वे किसी भी रूप में क्यों न हों। इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच एक प्रकार के उच्चतर समन्वय की आवश्यकता की बात भी की जाती है, लेकिन अक्सर यह महसूस नहीं किया जाता कि ये तथाकथित दो वृत्तियाँ हमारे विश्व को समझने के दो अलग-अलग मार्ग हैं। ये मार्ग एक-दूसरे से टकराते नहीं हैं बल्कि एक विशेष दृष्टिकोण से एक-दूसरे के पूरक हैं, जैसा कि भौतिकी में इस शब्द का प्रयोग होता है।
भौतिक विज्ञानी जानते हैं कि किसी कण की स्थिति और उसका वेग पूरक गुण हैं। जितनी अधिक शुद्धता से इनमें से किसी एक का निर्धारण किया जाता है, सिद्धांततः उतनी ही कम शुद्धता से दूसरे का निर्धारण संभव होता है। इसी प्रकार, वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग सभी तत्वों का अध्ययन करने के लिए किया जा सकता है। हम किसी तत्व पर दोनों दृष्टिकोणों से विचार कर सकते हैं, लेकिन एक साथ ऐसा करना संभव नहीं है।
जवाहरलाल नेहरू इस स्थिति को समझते थे। ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में उन्होंने लिखा था, “विज्ञान का संबंध सकारात्मक ज्ञान से है, लेकिन उससे जो वृत्ति उत्पन्न होनी चाहिए, वह इस क्षेत्र से परे जाती है। मानव का अंतिम लक्ष्य कहा जा सकता है कि ज्ञान प्राप्ति, सत्य की अनुभूति, और अच्छाई व सौंदर्य की सराहना होनी चाहिए। वैज्ञानिक पद्धति, जो वस्तुनिष्ठ परख की है, इन सब पर लागू नहीं की जा सकती। जीवन में जो आवश्यक दिखता है, कला और काव्य की संवेदनशीलता, सौंदर्य से उत्पन्न भाव और अच्छाई की अंतरात्मा की अनुभूति, वह सब विज्ञान की परिधि से परे हैं।
हो सकता है कि एक वनस्पतिशास्त्री या प्राणीशास्त्री कभी प्रकृति के सौंदर्य का अनुभव न कर पाए, और हो सकता है कि समाजशास्त्री मानव प्रेम से नितांत अछूता रहे। लेकिन जब हम वैज्ञानिक पद्धति की पकड़ से बाहर के क्षेत्रों में विचरण करते हैं, दर्शन और उच्च भावनाओं से प्रेरित शिखरों को देखते हैं, या करुणा को निहारते हैं, तो वहाँ भी वैज्ञानिक वृत्ति आवश्यक होती है।”
ज्योतिषी और खगोलशास्त्री जो ग्रहों और नक्षत्रों की गणना करता है, दूरियों की माप करता है या ब्रह्मांड की उत्पत्ति का अध्ययन करता है, उससे यह मान लेना उचित नहीं कि वह स्वर्गिक सौंदर्य के प्रति एक गैर-वैज्ञानिक व्यक्ति की तरह भावनाएं अनुभव न कर सके। दरअसल, वह एक भिन्न प्रकार के सौंदर्य-भाव का अनुभव कर सकता है, जिसे विज्ञान नहीं समझ सकता। वैज्ञानिक जब ब्रह्मांड की विचित्र रचना और इसकी उत्पत्ति का अध्ययन करता है, तो उसकी प्रतिक्रिया में एक अलग प्रकार का आश्चर्य और प्रशंसा होता है।
पूर्व और पश्चिम के विचारों का संगम थे पंडित नेहरू — फ्रैंक मोरैस
जीवन का समग्र दर्शन सौन्दर्य की अनुभूति
यह एक तथ्य है कि दुनिया में ऐसे वैज्ञानिकों की संख्या अधिक है, जो कला की परख रखते हैं। वहीं, वैज्ञानिक पद्धति के ज्ञाता कलाकारों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। अपने एक भाषण में नेहरू ने कहा था—”ऐसी कोई वजह नहीं है कि एक वैज्ञानिक सुसंस्कृत व्यक्ति न हो। संभव है कि वैज्ञानिक अधिक सुसंस्कृत और सुसंगठित हो, उसके मुकाबले जिसने केवल साहित्य ही पढ़ा हो।” सौन्दर्य की अनुभूति अंधविश्वास से अलग होनी चाहिए।
जवाहरलाल ने लिखा था, “जैसे-जैसे ज्ञान का दायरा बढ़ता है, संकीर्ण धारणाओं में धर्म का दायरा घटता और सिकुड़ता जाता है। जीवन और प्रकृति के बारे में हमारा ज्ञान बढ़ने पर परलोक के कार्यों में हमारी रुचि घटती है। जिस चीज़ को हम समझ लेते हैं और अपने नियंत्रण में कर लेते हैं, उस पर से रहस्य का पर्दा हट जाता है। खेती के तरीके, जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े हम पहनते हैं और हमारे सामाजिक संबंध—एक समय था जब ये धर्म और उसके पुजारियों के हाथों में थे। धीरे-धीरे ये नियंत्रण से मुक्त होकर वैज्ञानिक अध्ययन के विषय बन गए। लेकिन अब भी कई चीज़ें धार्मिक विश्वासों और अंधविश्वासों में फंसी हुई हैं। अंतिम रहस्य मानव मस्तिष्क की समझ से बाहर है, और यह स्थिति संभवतः बनी रहे।”
दर्शन के विपरीत, विज्ञान ने बहुत प्रगति की है क्योंकि यह छोटी-छोटी व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने में संतोष पाता है। विज्ञान ब्रह्माण्ड की समग्र समस्या को हल करने की प्रतीक्षा नहीं करता। अपने व्यावहारिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बल पर नेहरू यह लिख सके थे, “जीवन के अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सकता है और उठेगा भी। इसलिए कुछ रहस्यों को अंतिम मानना उचित नहीं लगता। जीवन न केवल जगत की रंगीनी प्रस्तुत करता है, बल्कि नित नई खोजों के प्रति उत्तेजना और उत्साह भी जागृत करता है, नए आयाम खोलता है और जीवन के नए तरीके प्रदान करता है।
यह अधिक पूर्णता और सम्पन्नता लाता है। अतः हमें विज्ञान के इस दृष्टिकोण को दर्शन से जोड़ते हुए और भविष्य का ध्यान रखते हुए जीवन की चुनौतियों का सामना करना चाहिए। इस प्रकार हम जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण का विकास कर सकते हैं, जिसके विशाल परिप्रेक्ष्य में भूत और वर्तमान अपनी पूर्ण ऊंचाइयों और गहराइयों के साथ समाहित हो सकते हैं, और हम भविष्य को गंभीरता के साथ देख सकते हैं।”
बाद में, इसी विषय पर उन्होंने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा, “हमें उस युग के उच्चतम आदर्शों के अनुसार कार्य करना चाहिए जिसमें हम रहते हैं, भले ही उसमें अपने राष्ट्रीय हित के अनुसार बदलाव करें या कुछ जोड़ें। इन आदर्शों को दो भागों में बाँटा जा सकता है—मानवतावाद और वैज्ञानिक दृष्टि। जाहिर तौर पर, इन दोनों के बीच टकराव रहा है, लेकिन गहरे विचारों ने जो महत्वपूर्ण करवटें ली हैं, उन्होंने सभी मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाया है और इन दोनों दृष्टियों के बीच की पुरानी सीमाओं को तोड़ दिया है।
मानवतावाद और वैज्ञानिक दृष्टि में समन्वय बढ़ रहा है, जिससे वैज्ञानिक मानवतावाद का उदय हुआ है। समन्वय वास्तव में इस स्वीकृति में है कि मानवतावाद और वैज्ञानिक दृष्टि दो पूरक मार्ग हैं। दोनों ही मूल्यवान हैं, और एक व्यक्ति दोनों को अपनाकर जीवन को समृद्ध बना सकता है।”
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बाधाओं से मुक्त समाज
उनका अंतर्राष्ट्रवाद वास्तव में उनके उदारमन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिणाम है। उन्होंने कहा था, “हर मामले में, चाहे वह शिक्षा का हो, विज्ञान का हो, संस्कृति का हो या किसी और विषय का, मुझे सबसे अधिक संकीर्ण राष्ट्रीय नजरिया नापसंद है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमने ज्ञान का ठेका ले लिया है और हमें अब कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार का रवैया जड़ता का प्रतीक है, और जो वस्तु जड़ हो जाती है, वह बुद्धिहीन हो जाती है और धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है। मेरा मत है कि किसी भी प्रकार का ज्ञान या सूचना खुले दिल से, नफरत रहित होकर ग्रहण करनी चाहिए। मैं चाहता हूं कि शेष दुनिया के साथ हमारा खुला संवाद हो। मैं चाहता हूं कि हम दूसरे देशों के लोगों को अपने यहाँ बुलाएँ ताकि वे हमसे सीखें और हमें भी सिखाएँ। मैं किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहता।”
उन ताकतों का जिक्र करते हुए, जो “संस्कृति की आड़ में हमारे मन और दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाती हैं,” उन्होंने कहा कि ये ताकतें वास्तविक संस्कृति पर अंकुश लगाकर उसे विकृत करती हैं। संस्कृति का उद्देश्य तो मन और आत्मा का विकास करना है, इसका अर्थ कभी भी संकीर्णता या मानव और देश की आत्मा को संकुचित करना नहीं हो सकता। यदि हम विज्ञान को सही दृष्टिकोण से देखें और शोध संस्थानों व प्रयोगशालाओं पर गहराई से विचार करें, तो पाते हैं कि इनका उद्देश्य केवल सुधार और खोज के छोटे-छोटे प्रयास करना नहीं है, बल्कि इससे भी आगे बढ़कर कुछ बड़ा करना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुधार और खोज का प्रभाव होता है, लेकिन इन संस्थानों का उद्देश्य केवल हमारे यहाँ काम कर रहे युवाओं पर ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के लोगों और विशेषकर नई पीढ़ी के मनों पर भी असर डालना है ताकि राष्ट्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपना सके और नए सत्य को ग्रहण करने के लिए तैयार हो सके, भले ही इसके लिए पुराने विचारों को छोड़ना पड़े। तभी वैज्ञानिक दृष्टिकोण सही अर्थों में फलीभूत हो सकेगा।
जवाहरलाल नेहरू एक निडर और जिज्ञासु व्यक्ति थे। उन्हें नए-नए सत्यों की खोज में बड़ा आनंद प्राप्त होता था। प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन में उनकी विशेष रुचि थी। विश्व इतिहास संबंधी अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि मानव, विचार द्वारा प्रकृति और ब्रह्माण्ड के रहस्यों को दिनों-दिन समझने की कोशिश कर रहा है और उनसे जूझते हुए उनके हल निकालने का प्रयास करता रहा है।
उन्होंने कहा था, “आज मैं आपको जो बताऊंगा, वह कल के लिए नाकाफी और बेकार हो सकता है। जहां तक मेरा सवाल है, मानव मन की इस चुनौती में मेरी गहरी दिलचस्पी है। मुझे इस बात में गहरी रुचि है कि किस प्रकार मानव, ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझने के लिए उसके ऊपरी किनारों से होकर गुजरता है, उसकी गहराइयों को मापने का साहस करता है, और उसे समझने की कोशिश करता है जो अत्यधिक विशाल और अत्यधिक सूक्ष्म प्रतीत होती है।”
आइए हम सब, विशेष रूप से भारत के युवक और युवतियाँ, उनके पदचिह्नों पर चलें और जीवन की सभी समस्याओं और चुनौतियों को हल करने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएँ। उनकी भांति, निडर होकर सत्य की खोज का प्रयास करें।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में