क्या गांधीजी ने सावरकर को दया याचिकाएँ लिखने के लिए कहा था?
वर्तमान में सावरकर समाचारों में बहुत नज़र आते हैं। उनकी सराहना करती हुई कई पुस्तकों का बहुत जोर-शोर से विमोचित किया गया है। इन पुस्तकों में उनकी महिमामंडित छवि बनाई गई है। राम पुनियानी के किताब सावरकर-क्रांतिकारी, दया याचिकाएं और हिंदू राष्टवाद के पुस्तक का एक अंश-
सावरकर की दया याचिकाएँ
सावरकर अपने जीवन की प्रारंभिक अवधि में अंग्रेज विरोधी क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने अनुयायियों को अंग्रेज अफ़सरों के खिलाफ हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया था। इसे हम सावरकर 1.0 कह सकते है। सावरकर 2.0 अंडमान जेल में उनकी क़ैद से शुरू होता है।
इस जेल की जिंदगी के बहुत प्रतिकूल और दयनीय हालतों के कारण यह कैद काला पानी के नाम से जानी जाती थी। यहाँ उन्होंने हिंदुत्व और हिंदू-राष्ट्र की विचारधारा को परिपक्व बनाया। इसी कैद के दौरान उन्होंने जेल से रिहाई के लिए कई दया याचिकाएँ लिखीं।
अब तक उनके अनुयायी इस बात से इन्कार करते थे कि उन्होने कोई दया याचिकाएँ लिखी थीं। मुख्य रूप से, एक क्रांतिकारी और हिंदुत्व राजनीति के मुख्य विचारक के तौर पर उनकी छवि चमकाने के लिए लिखी गई उनकी जीवनियों से उनकी दया याचिकाओं के बारे में ज्यादा जानकारी मिलने लगी।
अब एक क्रांतिकारी छवि को उस व्यक्ति की छवि से कैसे मिलाया जाए, जो बार-बार दया याचिकाएँ लिखता रहा हो। भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं में से एक, रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने उदय माहुरकर और चिरायु पंडित द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी वीर सावरकर: वह व्यक्ति जो विभाजन को रोक सकता था के विमोचन पर बयान दिया जिसमें कोई सच्चाई नहीं थी।
श्री राजनाथ सिंह ने कहा-
सावरकर के बारे में झूठ फैलाया जा रहे हैं। बार-बार यह कहा जा रहा है कि उन्होंने अंग्रेज सरकार के आगे दया याचिकाएँ दायर की थी परंतु सच्चाई यह है कि उन्होंने अपनी रिहाई के लिए यह दया याचिका नहीं दायर की थी। कैदी को यह अधिकार होता है कि वह दया याचिका पेश कर सकता है।
ये तो महात्मा गांधी थे, जिन्होंने दया याचिका करने के लिए कहा था। महात्मा गांधी ने यह अप्रील की थी सावरकर जी को रिहा किया जाए। उन्होंने यह चेतावनी भी दी थी कि उनके राष्ट्रीय योगदान को कम करने का कोई भी कृत्य बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
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फिर सचाई क्या है?
सावरकर को मार्च 13, 1910 के दिन गिरफ्तार किया गया था। उनपर आरोप था कि उन्होंने नासिक जेल के कलेक्टर जैक्सन को मारने के लिए पिस्तौल भेजा था।यह सच है कि जेल के हालात बहुत भयंकर थे। दया याचिकाएँ लिखना कैदियों का अधिकार था। लगभग सभी कैदी स्वास्थ्य, परिवार या अन्य किसी भी कारण से दया याचिका लिखते थे। राजनाथ और उनके साथियों का यह दावा कि उन्होंने ये दया याचिकाएँ प्रारूप पर आधारित लिखी हैं, सच नहीं हैं।
संक्षेप में ये याचिकाएँ अलग-अलग हैं और इस आधार पर लिखी गई है कि जो उन्होंने किया था, वह एक राह से भटके हुए युवा के रूप में किया था। उन्हें इसकी न्यायिक सजा दी गई हैं। परंतु, अब वे रिहा होने चाहिए क्योंकि उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ है और यह भी कि अब अंग्रेज सरकार कैसे चाहे, वैसे ही वे उनकी सेवा करना चाहते हैं।
क्या गांधी के आग्रह पर ये दया याचिकाएँ लिखी गई थी
ये बातें घुटने टेकने से भी ज्यदा हैं। 1911 से लेकर उनकी रिहाई तक लगभग 7 दया याचिकाएँ लिखी गई हैं। इन सभी याचिकाओं का सुर और तत्व यहीं हैं और रिहा होने के लिए कोई कितना झुक सकता है, इसके उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
कई लेखकों ने इन याचिकाओं को विस्तॄत दंग से उद्धत किया है। अभी यह दावा कि गांधी के आग्रह पर ये दया याचिकाएँ लिखी गई थी, शुद्ध रूप से झूठ है। सावरकर ने दया याचिकाएँ 1911 से ही लिखनी शुरू कर दिया था। उस समय गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे और 1915 में ही वे भारत लौटे थे।
धीरे-धीरे जब गांधी कांग्रेस का नेतृत्व करने लगे तो सावरकर के भाई डा. नारायण सावरकर ने उन्हें पत्र लिखकर अपने भाई की रिहाई में मदद करने के लिए कहा था।
25 जनवरी 1920 को गांधी ने इसका जवाब देते हुए नारायण सावरकर को सलाह दी कि–मुकदमे के तथ्यों को बताते हुए ऐसी अर्जी लिखिए कि यह सच्चाई बहुत स्पष्ट रूप से सामने आये कि आपके द्वारा किए गए अपराध शुद्ध रूप से राजनीतिक थे।
उन्होंने यह भी लिखा कि अपने ढंग से इस मसले पर काम कर रहे हैं। महात्मा गांधी के संकलित लेखने के अंक 19 में इसका जवाब पाया जा सकता है। इसलिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि गांधी सावरकर के छोटे भाई से दया याचिका का प्रारूप तैयार करने को कह रहे हैं, विनायक सावरकर को दया याचिका लिखने के लिए नहीं कह रहे हैं, जो कि सावरकर ने लिखी थी! गांधी को पता था कि यह कार्य मुश्किल है, इसलिए उन्होंने कहा भी कि आपको सलाह देना कठिन है।
अपनी तरफ से गांधी ने एक लेख लिखा था, जो महात्मा गांधी के संकलित लेखने के अंक 20, पेज 283-84 पर देखा जा सकता है।
इसमें वे दलील देते हैं कि सावरकर भाईयों को रिहा किया जाना चाहिए और उन्हें अहिंसक तरीके से देश के राजनीतिक जीवन में हिस्सा लेने की अनुमति दी जानी चाहिए। राष्ट्रीय आन्दोलन के बारे में उनका दृष्टिकोण व्यापक और समावेशी था, जिसके कारण वे ऐसे प्रयत्न करते रहते थे।
उसके अलावा उन्होंने यंग इंडिया के 26 मई, 1920 के अंक में एक लेख लिका था, जिसका शीर्षक था, सावरकर भाई, जिसमें उन्होंने क्षमादान की शाही घोषणा का उल्लेख किया है और ध्यान दिलाया है कि इसके तहत कई अन्य राजनीतिक कैदियों को रिहा किया गया था, परंतु सावरकर भाईयों को रिहा नहीं किया गया।
वे कहते हैं, दोनों भाईयों ने अपने राजनीतिक अभिप्रायों को घोषित किया है और दोनों ने यह कहा है कि वे किसी क्रांतिकारी विचारों को प्रोत्साहन नहीं देंगे और यदि उन्हें रिहा किया गया तो वे सुधार कानून के अंतर्गत कार्य करना चाहेंगे… (गवर्नमेंट आंफ इंडिया अधिनियम 1919) ।
उन दोनों ने यह बात स्पष्ट रूप से कही है कि वह अंग्रेज शासन से स्वतंत्रता की इच्छा नहीं रखते हैं। इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि भारत का भविष्य अंग्रेजों के सहयोग से सबसे अधिक उज्ज्वल होगा।
राजनाथ सिंह के कथन के विपरीत सावरकर की रिहाई की अप्रील या दया याचिका करने के लिए कहने की कोई बात नहीं थी। गांधीजी उम्मीद जता रहे हैं कि जैसा हम स्वतंत्रता के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे हैं, वैसे ही सावरकर भी करेंगे। बल्कि गांधीजी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सभी सावरकर भाई अंग्रेजों से स्वतंत्रता नहीं चाहते थे।
यदि हम गांधी की कार्य पद्धति को देखें तो यह संभव नहीं है कि यह सोचना संभव नहीं है कि वे दया याचिका के लिए सलाह देंगे।
उपर्युक्त संकलित लेख में ही दुर्गादास के मामले में गांधी कहते हैं, इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि दुर्गादास के मित्र उन्हें या उनकी पत्नी को दया याचिका की न तो सलाह देंगे और ना ही उनकी पत्नी के प्रति सहानुभूति प्रकट कर उनकी नाराजगी को बढ़ाएंगे। बल्कि हमारा यह कर्तव्य है कि हम उन्हें अपना दिल मजबूत करने के लिए कहें और खुश होने को कहें कि उनके पति बिना किसी अपराध के जेल में हैं। दुर्गादास के प्रति अधिक सच्ची सेवा हम यह कर सकते हैं कि उनकी पत्नी को आर्थिक अथवा अन्य ऐसा सहयोग करें, जैसा उन्हें जरूरत हो…
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गांधी सावरकर-रिहाई कि बात करते हैं, सावरकर ने बाद में गांधी-हत्या करवाई
अब यह झूठ जानबूझकर गढ़ा जा रहा है कि गांधी की सलाह पर सावरकर ने वे याचिकाएँ लिखी थी।
इतिहास का विरोधाभास देखिए कि एक तरह गांधी सावरकर की रिहाई के लिए मांग करते हैं और वहीं सावरकर बाद में गांधी हत्या केस में आरोपी पाये जाते हैं। जैसा कि सरदार पटेल ने नेहरू को लिखा था, हिंदू महासभा के जुनूनी पक्ष ने सावरकर के नेतृत्व में यह षड़्यंत्र रचा था… बाद में जीवन लाल कपूर कमीशन भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुँचा था।
यह भी सच है कि बाद में सावरकर ने दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए काम करने का प्रयत्न किया; उन्होंने यह भी कहा कि गाय कोई पवित्र प्राणी नहीं है, आदि।
परंतु, उनके जीवन का केंद्र बिंदु यह रहा कि अंग्रेजों की हर तरह से मदद की जाए। उन्होंने उस भारीय राष्ट्रवाद के विपरीत हिंदू राष्ट्रवाद की नींव को मजबूत किया, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था।
सन 1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ों का नारा दिया तो सावरकर ने हिंदू महासभा के सदस्यों को यह सूचना दी कि वे अपने-अपने पदों पर बने रहें और अंग्रेओं के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करते रहे। सावरकर ने ही अंग्रेज सेना की भर्ती में मदद की थी।
आज हिंदू राष्ट्रवादी सरकार को महिमामंडित करना चाहते हैं और यह रोचक बात है कि राष्ट्रवादी सावरकर को महिमामंडित करना चाहते हैं और यह रोचक बात है कि उन्हें गांधी का आवरण देना पड़ता है, जिसकी हत्या में उभरते हिंदुत्व का आदर्श शामिल था।
राजनाथ का बयान इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार राजनाथ जैसे नेताओं को खुलेआम झूठ का सहारा लेना पड़ रहा है, ताकि उनके राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने वाले आदर्श मूर्तियों को वे श्रेय प्रदान कर सकें।
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