जब गांधीजी से पहली बार मिले, आर्चाय कृपलानी
एम.ए. पास करने के बाद मेरे भविष्य का सवाल भी उठ खड़ा हुआ। मैं सिंध में नहीं रह सकता था। अपने क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों के चलते मुझे अपने समुदाय और परिवार की इच्छाओं के अनुरूप चलना मुश्किल था। यह मुश्किल जल्दी ही हल हो गई।
एच. एल. छबलानी ने ग्रियर भूमिहार कॉलेज, मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन किया था। उनका जैसा रिजल्ट था, उनको अर्थशास्त्र के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। नौकरी में जाने के तुरंत बाद उन्होंने मुझे लिखा कि यहाँ इतिहास विभाग में भी एक जगह खाली है और मैं उसके लिए अप्लाई कर दूँ। छबलानी ने कुछ महीने के काम में ही अपनी योग्यता, विद्वत्ता और अध्यापन क्षमता से अधिकारियों का मन जीत लिया था।
मैंने अपनी अर्जी के साथ अपने अध्यापकों या किसी बड़े आदमी का कोई प्रमाण पत्र नहीं दिया था। मुझे ऑनर्स भी नहीं मिला था, लेकिन छबलानी की अनुशंसा भर से मुझे नौकरी मिल गई।
बिहार के कॉलेज में अध्यापन
बिहार तभी ही बंगाल से अलग हुआ था पर अपना कोई विश्वविद्यालय न होने से यहाँ के कॉलेज कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। मुजफ्फरपुर के इस कॉलेज को काफी समृद्ध जमींदार भूमिहार लंगट सिंह ने खोला था। उन्होंने भी अपनी संपत्ति खुद ही जुटाई थी, रेलवे की ठेकेदारी से। अंग्रेज ग्रियर उनके मुख्य संरक्षक थे। इसीलिए कॉलेज का नाम ‘ग्रियर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज’ रखा गया था।
छात्रों के साथ मेरा रिश्ता बहुत अच्छा था और मुझे कभी भी कक्षा में अनुशासन बनाने में दिक्कत नहीं हुई। जल्दी ही वे मुझे ‘दादा’ कहने लगे, जो बड़े भाई के लिए आदरसूचक संबोधन है और तब से यह शब्द मेरे साथ चिपक गया।
इतिहास पढ़ाते हुए मुझे इस बात में कोई दिक्कत नहीं हुई कि मैं अपने छात्रों को देशप्रेम और देशसेवा सिखाऊँ और इसकी आजादी के लिए काम करने की प्रेरणा दूँ। मैं उन्हें राष्ट्रीय समस्याओं को जानने के लिए प्रोत्साहित करता था, जिससे वे यह जान सकें कि किस तरह विदेशी शासकों ने हमारे देश को बरबाद किया है, उद्योग-धंधे चौपट किए हैं और लोगों को दरिद्र बनाया है। गुलाम होने की पीड़ा क्या होती है, इसका अहसास उन्हें उकसाने की कोशिश भी करता था।
मेरे ज्यादा निकट संपर्क में जो बच्चे आए, उन्हें मैं रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ के लेखन और शिक्षा से जोड़ने की कोशिश भी करता था। कॉलेज के यूरोपीय प्रिंसिपलों को भी मेरी गतिविधियों का पता था, पर यह सरकारी कॉलेज नहीं था, सो वे सरकारी अधिकारियों को सूचना देने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे।
क्रांतिकारियों से संपर्क
अपनी गतिविधियों के चलते मुझ पर नजर रखी जाने लगी थी। पुलिस मेरी गतिविधियों पर नजर रखती थी। बिहार में तब बहुत कम राजनीतिक हलचल थी। पटना नए बने बिहार की राजधानी जरूर थी पर मुजफ्फरपुर में अपेक्षाकृत ज्यादा राजनीतिक गतिविधियाँ होती थीं।
खुदीराम बोस द्वारा बम फेंके जाने के बाद यह कुछ ज्यादा ही चर्चित हुआ और यहाँ के नौजवानों में सनसनी फैली। बम के निशाने पर वह जिलाधिकारी था, जो बंगाल से यहाँ आया था। उसने वहाँ राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर बहुत जुल्म किए थे। खुदीराम ने उसके वाहन के भ्रम में यूरोपीय क्लब से आ रहे वाहन पर बम फेंका। यह एक निलहे केनेडी की बग्गी थी और उसमें बैठी उसके परिवार की दो महिलाएँ मारी गई। खुदीराम को फाँसी की सजा मिली, जो उन्होंने खुशी- खुशी स्वीकार की और ‘वंदे मातरम्’ कहते हुए फाँसी का फंदा चूम लिया।
इसके बाद जब भी बंगाल के क्रांतिकारियों के खिलाफ पुलिस लगती थी तो वह भागकर मुजफ्फरपुर आते थे और यहाँ बसे बंगालियों के बीच छुप जाते थे मेरे कुछ छात्रों का इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव था और उनके ही माध्यम से मैंने भी उनसे संपर्क बनाया।
राजनीतिक गतिविधियों के चलते मैं पुलिस की नजर में रहता था, इसलिए यह संभव न था कि मैं क्रांतिकारी गतिविधियों में सीधे हिस्सा लूँ और वे भी नहीं चाहते थे कि मैं ऐसा करूँ अपनी प्रकृति से भी मैं खून बहाने के खिलाफ ही हूँ, पर मैं उनके छुपने में उनकी मदद करने से लेकर उनके लिए धन का इंतजाम करने का काम करने लगा।
गांधीजी से मेरी पहली भेंट
मुजफ्फरपुर में इतिहास का अध्यापन करते हुए मैं पूरा संतुष्ट जीवन जी रहा था। मुझे लग रहा था कि यह करते हुए मैं अपने छात्रों में राष्ट्रप्रेम भर रहा हूँ, जिससे वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ बागी बनेंगे। अगर तभी मेरे जीवन में एक बड़ा भूचाल न आता तो मैं इसे ही अनिश्चितकाल तक चलाता जाता।
1913 में मैंने अपने भतीजे गिरधारी को शांतिनिकेतन में दाखिला दिलाया था। उससे पहले मैं शांतिनिकेतन गया था और वहीं जिस तरह शिक्षा दी जाती थी, उससे प्रभावित हुआ था। इस बीच यह भी हुआ कि दत्तात्रेय घूमते-घामते शांतिनिकेतन पहुँचे, टिक गए और फिर क्लास लेने लगे। उन्होंने 1914 के अंत में मुझे सूचना दी कि शांतिनिकेतन में एक बड़े मेहमान, दक्षिण अफ्रीका से प्रसिद्ध हुए एम. के गांधी आनेवाले हैं और मुझे उनसे जरूर मिलना चाहिए।
गांधीजी जनवरी में भारत लौटे और 17 फरवरी को शांतिनिकेतन आए, पर तभी गोखले का स्वर्गवास हो गया और वे जल्दी ही पुणे लौट गए। मुझे जब गांधीजी के शांतिनिकेतन पहुँचने की खबर मिली तो मैंने कुछ दिनों की छुट्टी ली और वहाँ पहुँचा। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने हिंदुस्तानियों से होनेवाले राजनीतिक अन्याय से लड़ने का जो नायाब अहिंसक तरीका – सत्याग्रह अपनाया था, उसी के चलते मैं उनसे मिलने को बहुत उत्सुक था।
उस समय भारत में कोई बहुत अच्छा नेतृत्व देनेवाला न था और राजनीतिक गतिविधियाँ बहुत सुस्त सी थीं। सूरत में 1907 में | हुए कांग्रेस के विभाजन के बाद उसके ज्यादातर प्रगतिशील लोग बाहर चले गए थे और वह सुस्त पड़ी थी। उसमें लोगों को आकर्षित करने, शिक्षित और प्रेरित करने की क्षमता नहीं रह गई थी। वह बिना आत्मा का शरीर रह गई थी। 1912 के पटना अधिवेशन में मैं शामिल हुआ था, लेकिन सबकुछ बेजान सा था और लोग भी बहुत कम आए थे।
देश भर के उन नौजवानों को, जो गुलामी का अपमान महसूस कर रहे थे, नेतृत्व और प्रेरणा देनेवाला कोई नेता न रह गया था। तीस करोड़ लोगों के देश पर छह हजार मील दूर से आकर मुट्ठी भर गोरे शासन कर रहे थे। इसलिए मैं यह देखने-जानने के लिए गांधीजी से मिलना चाहता था।
गांधीजी पहली बार बिहार में
अप्रैल 1917 में एक दिन जब मैं रात साढ़े नौ बजे क्लब से अपने क्वार्टर पर पहुँचा तो पाया कि मेरे लिए एक टेलिग्राम रखा है। यह पटना से भेजा गांधीजी का तार था, जिसमें बताया गया कि वह उसी रात आनेवाली गाड़ी से मुजफ्फरपुर पहुँच रहे हैं। मुझे अंदाजा न था कि इस महापुरुष का मैं कैसे स्वागत करूँ?
मैं कॉलेज परिसर में हॉस्टल के दो कमरों में रहता था। मैं भागा-भागा उसी कैंपस में एक स्वतंत्र मकान में रहनेवाले प्रो. एन. आर मलकानी के यहाँ पहुँचा और उन्होंने गांधीजी को अपने मकान की पहली मंजिल पर ठहराना स्वीकार कर लिया। वह तब अकेले थे, उनका परिवार छुट्टियों में घर गया था।
फिर मैंने हॉस्टल के छात्रों से बताया कि कौन मेहमान आ रहा है! उन्होंने गांधीजी के बारे में नहीं सुना था। मैंने उन्हें बताया कि दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों के लिए उन्होंने क्या किया है ? मैंने यह भी कहा कि आप सभी भी मेरे साथ उनकी अगवानी के लिए स्टेशन चल रहे हैं।
दरभंगा के एक ब्राह्मण लड़के ने कहा कि ऐसे बड़े मेहमान का भारतीय ढंग से सम्मान स्वागत होना चाहिए और उनकी आरती का इंतजाम भी होना चाहिए। मुझे उसकी बात जँची । लड़कों ने आसपास के सभी क्वार्टरों में लगे फूल तोड़े और काफी सारे फूल आरती के लिए जमा किए। सब सामान जुट गया पर नारियल नहीं था। उस समय बाजार से नारियल लाना भी संभव न था । कंपाउंड में नारियल का एक पेड़ था पर उस पर चढ़े कौन? सो पेड़ पर चढ़ने में उस्ताद मैं ही चढ़ा और कई नारियल तोड़े स्वागत की सारी तैयारी कर लेने के बाद हम पच्चीस लोग स्टेशन चले।
जब गाड़ी आई, तब हम गांधीजी को ढूंढ़ने लगे, पर वह दिखे नहीं हम लोगों मैं अकेला में ही था, जो उन्हें पहचानता था उत्तर बिहार की गाड़ियों में सदा बहुत भीड़ रहती है और उन दिनों तो और भी भीड़ होती थी। तीसरे दरजे में यात्रा कर रहे गांधीजी गाड़ी रुकते ही उत्तर गए होंगे और इसी भीड़ में गुम हो गए होंगे, जिससे हम एक-दूसरे को देख न सके।
मैंने गार्ड से पूछा कि क्या कोई मिस्टर गांधी गाड़ी से आए हैं, तो उसने कहा कि उसने यह नाम ही नहीं सुना है। गांधीजी ने देखा कि इतने सारे नौजवान लोग किसी को तलाश रहे हैं तो उन्होंने चंपारण के अपने साथी राजकुमार शुक्ल से उनसे यह पूछने को कहा कि वे इतनी रात गए स्टेशन क्यों आए हैं और किसे ढूँढ़ रहे हैं?
जब उन्होंने कहा कि हम मिस्टर गांधी को ढूँढ़ रहे हैं तो शुक्ल ने अपने सहयात्री की तरफ इशारा किया। फिर लड़के दौड़ते-दौड़ते मेरे पास आए और कहा कि मिस्टर गांधी उन्हें मिल गए हैं, तब मैं भी उनके साथ गांधीजी के पास पहुँचा। वे एक कपड़े में बँधे कागज लिये खड़े थे और राजकुमार शुक्ल के पास एक छोटा सा बेडिंग था।
उनकी आरती की गई, पर मैंने देखा कि गांधी इस सबसे सकुचा रहे थे। कोई नेता इस तरह के सम्मान से सकुचाए, यह मैंने बहुत कम ही देखा है। उसी समय मेरे एक जमींदार दोस्त भी आ गए थे और उनकी बग्घी स्टेशन पर उनका इंतजार कर रही थी। मैंने उनसे कहा कि आप बग्घी हमें दे दीजिए, जिससे हम गांधी को अपने ठिकाने पर ले जाएँ और यह प्रस्ताव उन्होंने खुशी-खुशी मान लिया।
जब तक हम बग्घी के पास पहुँचे, लड़कों ने उससे घोड़े हटाकर खुद उसे खींचने की तैयारी कर ली थी।जब गांधीजी ने यह देखा तो उन्होंने विरोध किया और कहा कि अगर आप लोग बग्घी खोचेंगे तो मैं इस पर नहीं चलूँगा और आप जिद करेंगे तो मैं पैदल जाना ही पसंद करूंगा। मैंने लड़कों से जिद न करने को कहा और हम दोनों बग्घी में जाकर बैठ गए।
गांधीजी मुझे बताने लगे कि वह किस काम से आए हैं और कैसे आए हैं उन दिनों बिहार में सवारी पालकी गाड़ी की चलती थी— चार पहिया वाले फ्रेम पर पालकी जैसी व्यवस्था उसमें रहती थी और आगे एक गाड़ीवान के बैठने का इंतजाम होता था। एक बार अंदर बैठ जानेवाले को पता नहीं चलता था कि बाहर क्या हो रहा है। जब हम चले तो मुझे घोड़ों की टाप सुनाई न पड़ी तो अंदाजा हो गया कि लड़कों ने गांधीजी की बात नहीं मानी है। जब हम हॉस्टल पहुँचे और गांधीजी ने बाहर आकर देखा, तब उन्हें अंदाजा हुआ कि लड़कों ने क्या किया है वे नाराज हुए और कहा कि उनके साथ धोखा हुआ है। अगर उनको पता चल जाता कि क्या हो रहा है तो वह सत्याग्रह करते।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
मोतिहारी में गांधीजी
मोतिहारी में गांधीजी और उनके साथ के लोग वहाँ के नामी वकील गोरख प्रसाद के यहाँ ठहरे। जल्दी ही यह मकान पूरे कारवाँ के लिए सराय बन गया और लोगों से भर गया। लोगों को गांधी के आने का उद्देश्य किसी तरह पता चल गया था।
जिस दिन गांधी की टोली मोतिहारी पहुँची थी, उसी दिन पता चला कि पास के एक गाँव में निलहा फैक्टरी के लोगों ने एक रैयत के घर पर काफी मारपीट और तोड़-फोड़ की है। उन्होंने तुरंत वहाँ चलने और खुद से चीजों को देखने का फैसला किया।
अगली सुबह गांधीजी और धरणीधर बाबू (जो दरभंगा के एक प्रमुख वकील थे) एक हाथी पर उस गाँव के लिए चले। उन दिनों हाथी की सवारी इस बिना सड़क वाले इलाके में सुविधाजनक मानी जाती थी। जब वह आधे रास्ते में पहुँचे तो पुलिस सुपरिंटेंडेंट का एक आदमी आया और उन्हें एस. पी. का संदेश दिया- आगे बढ़ने से पहले वे उनसे मिल लें। गांधीजी ने धरणीधर बाबू को गाँव तक जाने को कहा और खुद उस पुलिसवाले की सवारी से मोतिहारी लौटे।
वहाँ उन्हें सरकारी आदेश दिया गया कि वह चौबीस घंटे के अंदर चंपारण से बाहर जाएँ, क्योंकि उनकी जिले में उपस्थिति से शांति भंग होने का अंदेशा है। आदेश मिलने के साथ ही उन्होंने जवाब लिखा कि जिस काम के लिए वे यहाँ आए हैं, उसे पूरा किए बिना वापस जाने का उनका कोई इरादा नहीं है। इसके बाद उन्हें सरकारी आदेश न मानने पर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने का समन दिया गया।
गांधीजी उस पूरी रात बैठे वायसराय और देश-दुनिया के अपने मित्रों को पत्र लिखकर स्थिति की जानकारी और यहाँ की घटनाओं का इंतजार करने की सलाह देते रहे। जिन लोगों को उन्होंने ऐसे पत्र लिखे थे, उनमें पं. मदनमोहन मालवीय और मजहरुल हक शामिल थे। उन्होंने अहमदाबाद आश्रम के अपने साथियों को भी पत्र लिखा था।
मैं भी गांधीजी के साथ
कुछ दिनों तक गांधीजी की डाक मेरे पते पर ही मुजफ्फरपुर आती थी, जिसे किसी आदमी के हाथ रोज उनके पास भेज दिया जाता था। मैं उनके साथ चंपारण नहीं गया था, लेकिन वहाँ क्या कुछ हो रहा है, मुझे सब मालूम रहता था।
करीब एक पखवाड़े बाद कॉलेज गरमी की छुट्टियों के लिए बंद हुआ शायद अप्रैल 1917 ही था, जब मुझे पब्लिक इंस्ट्रक्शन के डायरेक्टर का पत्र मिला, क्योंकि मुजफ्फरपुर कॉलेज को सरकार ने अपने अधीन ले लिया था। इस पत्र में कहा गया था कि गरमी की छुट्टियों के बाद कॉलेज को मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं होगी। मेरी चिट्ठी में कोई कारण नहीं बताया गया था, पर यह स्पष्ट था कि मेरे राजनीतिक विचारों और गतिविधियों के चलते ही मेरी सेवा समाप्त की गई थी।
गांधीजी के आने के लगभग एक पखवाड़े बाद गरमी की छुट्टियाँ शुरू हुई। मैंने गांधीजी को लिखा कि अब मैं खाली हूँ और आपको अपने काम में मेरी कोई उपयोगिता दिखे तो मैं चंपारण आ सकता हूँ।
मुझे तत्काल गांधीजी का यह जवाब मिला, ‘तुम खुद सोच लो कि तुम्हें क्या करना है? या तो अहमदाबाद जाओ और वहाँ शुरू हो रहे प्रायोगिक विद्यालय में काम करो या गिरफ्तारी का जोखिम लेकर यहाँ काम करो। यह सब तब होगा जब मुझे गिरफ्तार कर लिया। जाएगा और अगर तुम यही चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए चुनाव कर दूँ तो मैं यही कहूँगा कि अगर तुम यहाँ आए तो तब तक स्वाभाविक रूप से रहना होगा, जब तक रैयतों को सामान्य ढंग से जीना नसीब नहीं होता। मेरे लिए तो अब चंपारण ही मेरा निवास है।’
मोतिहारी का जीवन
मुझे चंपारण की स्थानीय बोली भोजपुरी नहीं आती थी इसलिए गवाहियाँ दर्ज करने में मेरी कोई उपयोगिता न थी, सो मुझे व्यवस्था का काम और गांधीजी का भोजन बनाने समेत उनकी निजी जरूरतों का खयाल रखने का जिम्मा सौंपा गया। तब वह फल और मेवे नहीं खाते थे, पर उबली सब्जियाँ और भात खाते थे। मैं अपना खाना हरदम बनाता था और मेरे पास एक कूकर था, जिसे मैं साथ लिये आया था यह अब ज्यादा उपयोगी साबित हो रहा था, क्योंकि मैं इसी में अपना और गांधीजी का भोजन बना लेता था। वह तब मसाले और नमक भी नहीं खाते थे पर मैं अपने भोजन में नमक मिला लेता था। तब गांधीजी के खाने पर रोजाना का खर्च तीन आना था।
गांधीजी ने अपने आश्रम से कस्तूरबा, महादेव देसाई, नरहरि पारिख और अन्य कार्यकर्ताओं को चंपारण बुलाया था। उनके सबसे छोटे पुत्र देवदास और उनके परिवार के प्रभुदास भी हमारे साथ रहने आ गए। उन्होंने हम सभी गैर-बिहारियों को देहात जाकर रहने और गाँव के बच्चों को सफाई, स्वास्थ्य और शिक्षा की बातें बताने को कहा गाँव के लोगों को अपना घर और आसपास साफ रखने की शिक्षा देने का जिम्मा भी हम पर था। हम दो-दो लोग एक जगह गए। मैं कस्तूरबा के साथ जाता था।
मैंने गांधीजी से पूछा, ‘मुझे तो हिंदी आती ही नहीं तो मैं कैसे बच्चों को सिखाऊँगा?’ गांधीजी ने कहा, ‘तुम तो पढ़े-लिखे प्रोफेसर हो। यह तो बहुत आसान है। उन्हें पढ़ाते हुए तुम खुद भी सीख सकते हो।’ अब उनका कहा टालना संभव न था।
मदन मोहन मालवीय चाहते थे कि इस काम में गांधीजी कांग्रेस से मदद लें, पर गांधीजी ने यह बात स्वीकार नहीं की। वह बिहार के बाहर से वित्तीय मदद लेने के भी खिलाफ थे और चाहते थे कि सारा काम स्थानीय संसाधनों से हो। वह कहते थे कि जब एकदम जरूरी होगा तो वे रंगून के अपने दोस्त प्राणजीवन मेहता से मदद लेंगे। इस पूरी अवधि में हममें से कोई भी निजी काम के पैसे नहीं ले रहा था और कुल खर्च करीब 2500 रुपए का हुआ काम को स्वयंसेवा और धर्मार्थ ही रखकर किया गया गांधीजी अधिकारियों से भी कोई अतिरिक्त टकराव टालते रहे।
गवाहियाँ लेने का काम जाँच कमेटी बनाने की घोषणा के बाद काफी कम हो गया और हम कुछ फुरसत में आ गए। फिर हम गांधीजी से उनके दक्षिण अफ्रीकी प्रयोग और सत्याग्रह के अनुभव सुनते थे, अब उन्होंने हिंदी में बात करना शुरू कर दिया था। हम उनकी टूटी-फूटी हिंदुस्तानी समझ ही नहीं पा रहे थे तो हमने उनसे अंग्रेजी में ही बोलने को कहा।बड़ी मुश्किल से वह राजी हुए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष की कहानी एक किस्सागो वाले अंदाज में सुनाई – उस आंदोलन के नेता या भागीदार होनेवाले अंदाज में नहीं।
वह एकदम निर्लिप्त भाव से चीजें बताते रहे और इस तरह हमें अहिंसा और राजनीतिक गलतियाँ सुधारने में एक उपकरण के रूप में उसके उपयोग के बारे में कुछ व्यावहारिक बातों का पता चला।
‘चंपारण सत्याग्रह’ पूरे देश के लिए एक सबक था, खासकर सत्याग्रह की क्षमता को लेकर एक जादू की तरह देश के सबसे असहाय, कमजोर और दब्बू जनता को एकदम से जगा दिया गया, उसके अंदर से भय समाप्त हो गया और वह आत्मसम्मान और शक्ति का अनुभव करने लगी। इसने यह भी दिखाया कि गांधीजी ने राजनीतिक रूप दिए बगैर ऐसा आंदोलन धर्मार्थ कामवाले अंदाज में ही खड़ा कर दिया।
संदर्भ
जे.बी.कृपलानी, अनुवाद अरविंद मोहन, आंखो देखी आजादी की लड़ाई, प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में