महात्मा गांधी की पहली रांची यात्रा
चंपारण में गांधीजी के आंदोलन से सरकार खुश नहीं थी। वह चाहती थी कि हर हाल में गांधीजी चंपारण छोड़कर चले जाएँ। गांधीजी ने जाँच कर एक रिपोर्ट जिला के अधिकारियों को दे दी थी। उस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया था। इस बीच अचानक बिहार-ओडिशा के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट द्वारा महात्मा गांधी को राँची बुलाने के लिए जो पत्र आया था, उसने तरह-तरह की आशंका को जन्म दे दिया था।
हालाँकि गांधीजी ने पत्र का जवाब दे दिया था और बिहार सरकार को खबर भेज दी थी कि वे चार जून को रांची में बातचीत करने आ रहे हैं। लेकिन राजेंद्र प्रसाद और उनके सहयोगियों को लग रहा था कि दाल में कुछ काला है। हो सकता है कि गांधीजी को रांची बुलाकर सरकार उन्हें गिरफ्तार कर ले। इस तरह गांधीजी पहली बार रांची, बिहार-ओडिशा के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट के आमंत्रण पर पहुंचे।
गांधीजी के गिरफ्तारी की आशंका में रांची यात्रा
इसलिए यह तैयारी कर ली गई कि अगर गांधी को रांची में गिरफ्तार कर लिया गया तो आगे का आंदोलन कैसे चलेगा, कौन नेतृत्व करेगा। समय कम था। गिरफ्तारी की आशंका के कारण भी थे। इसके पहले भी सरकार गांधीजी को गिरफ्तार करने के लिए प्रयास कर रही थी।
जिस चंपारण में जिस प्रकार आंदोलन को समर्थन मिल रहा था, रैयतों की जितनी भीड़ उमड़ती थी, वैसे में वहाँ गांधीजी को गिरफ्तार करने का उलटा असर पड़ सकता था। इसलिए गांधीजी के समर्थकों को लग रहा था कि सरकार राँची में उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। इसलिए सतर्क रहना होगा। जल्दीबाजी में पंडित मदन मोहन मालवीय को तार देकर पटना बुला लिया गया। महात्मा गांधी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी और छोटे बेटे देवदास गांधी को राँची आने के लिए कह दिया। देवदास उस समय साबरमती आश्रम सत्याग्रह में थे, जबकि कस्तूरबा गांधी कलकत्ता (अब कोलकाता) में थीं राजेंद्र बाबू को पटना भेजकर शीर्ष नेताओं से संपर्क करने की जिम्मेवारी दी गई।
एक जून की शाम में पंडित मदन मोहन मालवीय पटना पहुँच चुके थे। गांधीजी भी दो जून को दोपहर में ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ पटना पहुँच गए। आपात बैठक हुई, जिसमें मजहरूल हक, कृष्ण बल्लभ सहाय, मदन मोहन मालवीय, परमेश्वर लाल, बाबू बैजनाथ नारायण सिंह मौजूद थे। यह तय हुआ कि यदि महात्माजी के खिलाफ रांची में कोई कार्रवाई हुई, गिरफ्तारी हुई या उन्हें नजरबंद किया गया तो मजहरूल हक या पंडित मालवीय चंपारण आंदोलन का नेतृत्व करेंगे। इस बैठक के बाद मालवीय प्रयाग चले गए। रात में गांधीजी और ब्रजकिशोर प्रसाद राँची के लिए रवाना हो गए। दूसरे दिन सवेरे वे लोग राँची पहुँच गए।
कस्तूरबा गांधी और देवदास गांधी दोनों ने ऐसी योजना बनाई थी कि आसनसोल स्टेशन पर दोनों पहुँच जाएँ। वहाँ से दोनों साथ-साथ रांची पहुँचे। तिथि थी 4 जून गाँधीजी पहले ही पहुँच चुके थे। उन्होंने पत्नी और बेटे से पूरी स्थिति की चर्चा की और भविष्य की योजना भी बताई। गांधीजी रांची में श्याम कृष्ण सहाय के घर पर ठहरे थे श्री सहाय प्रसिद्ध वकील थे। राजेंद्र बाबू के सहपाठी थे और गांधीजी के पूर्व परिचित थे।
उन्होंने ही गांधीजी से आग्रह किया था कि रांची में वे उनके ही आवास पर ठहरे। पूरे देश की निगाहें चार जून को होनेवाली गांधी गेट वार्ता पर टिकी थी। समय से गांधीजी वार्ता स्थल पर पहुँच चुके थे। यह वार्ता गवर्नमेंट हाउस (जिसे आई हाउस के नाम से जाता था, अब इसका नामकरण महात्मा गांधी भवन हो गया है) में शुरू हुई। लगभग छह घंटे तक वार्ता हुई।
रांची में महात्मा गांधी – एडवर्ड गेट वार्ता
बिहार-ओडिशा के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट के आमंत्रण पर महात्मा गांधी रांची आए थे 4 जून, 1917 को दोनों की पहली बार मुलाकात हुई थी। उसी समय दोनों के बीच चंपारण के रैयतों के संबंध में बातचीत आरंभ हो गई थी। सरकार की ओर से वार्ता में लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट के अलावा बिहार के मुख्य सचिव भी शामिल थे। दरअसल सरकार ने पहले से ही मन बना लिया था कि चंपारण की घटनाओं की जाँच के लिए कमेटी बनाई जाएगी, लेकिन इसकी घोषणा नहीं की गई थी। पहले दिन की वार्ता में सिर्फ वहाँ के हालात और इनके समाधान के रास्ते पर ही बातचीत हो पाई थी। उस दिन कोई सहमति नहीं बन पाई थी।
गांधीजी रैयतों के पक्ष में अपनी बातों पर अडिग थे और बड़ी ही विनम्रता से अपनी बातों को रख रहे थे राजेंद्र प्रसाद समेत आंदोलन के लगभग सभी प्रमुख नेता पटना या मोतिहारी में थे। ब्रजकिशोर प्रसाद के अलावा कोई और बड़े नेता गांधीजी के साथ रांची नहीं आए थे। इसलिए पटना मोतिहारी में बैठे नेताओं को कुछ पता नहीं चल रहा था कि रांची में हो क्या रहा है। वे रांची से आनेवाले तार की प्रतीक्षा कर रहे थे। इन लोगों को गांधीजी की गिरफ्तारी का डर तो था ही इसलिए वे बेचैन थे कि रांची में क्या हुआ चार जून को रात तक ये लोग किसी खबर का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई तार नहीं आया। तब टेलीफोन तो था नहीं तार सबसे तेज पहुँचनेवाला साधन था। इसी का उपयोग किया जाता था।
पहले दिन गांधीजी की कोई सूचना किसी को नहीं मिल पाई। किसी तरह इन लोगों ने रात काटी। पाँच जून को सवेरे राजेंद्र प्रसाद को एक तार मिला। इस तार से कुछ खास जानकारी नहीं मिल सकी, लेकिन इतना स्पष्ट हो गया था कि सरकार ने गांधीजी को गिरफ्तार करने के लिए नहीं, बल्कि बातचीत के लिए बुलाया है। गांधीजी ने तार से इतनी जानकारी भेज दी थी कि पहले दिन की मुलाकात संतोषप्रद रही। जहाँ गांधीजी की कोई खबर नहीं मिल रही थी, वहाँ इतनी जानकारी मिल जाना भी संतोषप्रद था। सहयोगियों को अगले तार का इंतजार था।
सात जून को फिर गांधीजी ने इतनी ही खबर भेजी कि आठ जून को वे लोग पटना लौट रहे हैं। गांधीजी तार या पत्र के जरिए बातचीत का ब्योरा सार्वजनिक करना नहीं चाहते थे। इससे नई परेशानियाँ आ सकती थीं, क्योंकि वार्ता चल रही थी। गांधीजी के इस तार से उनके सहयोगी इतना समझ चुके थे कि गांधीजी को रांची में गिरफ्तार नहीं किया गया है। बातचीत हुई है और ठीक-ठाक माहौल में ही हुई है।
रांची में क्या बातचीत हुई थी महात्मा गांधी – एडवर्ड गेट के बीच
बातचीत के पहले ही दिन लेफ्टिनेंट गवर्नर एडवर्ड गेट ने गांधीजी से कहा था कि आपको चंपारण में जो कुछ भी जानकारी हासिल करनी थी, उसे पाने के लिए आपको पर्याप्त समय मिल चुका है। रैयत भी अब उत्तेजित हो रहे हैं। स्थिति खतरनाक रूप धारण करते जा रही है, इसलिए स्थिति को बेहतर करने के लिए जो कुछ भी करना चाहिए, जल्दी करना चाहिए। बातचीत में गेट ने गांधौजी से कहा कि गोरे जमींदार आपकी सत्ता कभी स्वीकार नहीं करेंगे। यदि आप इसके लिए प्रयास भी करना चाहते हैं तो इसे सरकार के काम को अपने हाथ में लेना माना जाएगा। बातचीत के दौरान गेट ने कहा कि जब तक बंदोबस्त विभाग की रिपोर्ट नहीं आ जाती, तब तक विवादास्पद सवालों पर विचार नहीं करना चाहिए।
दोनों के बीच जब इतनी बातचीत हुई थी, गांधीजी को लगा था कि एक तरीके से उन्हें चेतावनी दी जा रही है और समझाया जा रहा है कि मामला खराब मत होने दें। लेकिन जब गेट ने गांधीजी को बताया कि वर्तमान हालात को देखते हुए सरकार ने एक समिति नियुक्त करने का निर्णय लिया है, तो गांधीजी को ऐसा महसूस हुआ कि सरकार वास्तव में गंभीरता से इस मामले को सुलझाने का प्रयास कर रही है।
गेट ने समिति के बारे में विस्तार से बताया भी था कि इस समिति के अध्यक्ष एक अन्य प्रांत के वरिष्ठ राजस्व पदाधिकारी श्री स्लाई होंगे। इसमें कुछ सदस्य भी होंगे। भारत सरकार के राजस्व विभाग से उप सचिव श्री रेनी कानूनी सलाहकार एडेमी और विधान परिषद् में गोरे जमींदारों के प्रतिनिधि डी रीड और जमींदारों के प्रतिनिधि के रूप में राजा हरिहर प्रसाद नारायण सिंह होंगे । गेट ने प्रस्ताव रखा कि रैयतों की ओर से उनके प्रतिनिधि के तौर पर खुद महात्मा गांधी इस समिति के सदस्य होंगे। अंतिम तीन सदस्यों के जो नाम तय किए गए हैं, वे तभी समिति में रहेंगे, जब उनकी सहमति होगी। बाकी दो तो सरकार की ओर से थे, इसलिए उसमें कोई दिक्कत नहीं थी।
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गांधीजी ने समिति का सदस्य बनने से इनकार कर दिया था
गांधीजी के सामने पहला सवाल तो यही था कि क्या गांधीजी इस समिति में रैयतों का प्रतिनिधि बनकर रहना चाहेंगे या नहीं। यही सवाल गेट ने गांधीजी से पूछा। पहले तो गांधीजी ने समिति का सदस्य बनने से इनकार कर दिया और कहा कि वे समिति के बाहर रहना पसंद करेंगे, ताकि वे स्वयं गवाही दे सकें गांधीजी के इनकार करने के बाद स्थिति थोड़ी बदल गई थी।
कुछ देर विचार करने के बाद गांधीजी ने जवाब दिया कि वे समिति में रहने को तैयार हैं, लेकिन इसके लिए सरकार को मानना होगा कि उनके (गांधीजी के कुछ विचार हैं, जिन्हें सदस्य बदल नहीं सकते। गांधीजी ने कुछ और शर्त रखी। इसमें एक शर्त यह भी थी कि सदस्य होने के बावजूद गांधीजी खुद समिति के सामने अपनी लिखित गवाही पेश करना चाहते हैं। गांधीजी ने इच्छा व्यक्त की कि उन्हें पूछताछ के लिए गवाहों को पेश करने की स्वतंत्रता दी जाए तो बेहतर होगा।
गेट एक सुलझे हुए और अनुभवी प्रशासक थे। वे इस मामले को सुलझाना चाहते थे, इसलिए उनका रुख सकारात्मक था। गांधीजी को एडवर्ड गेट ने कहा कि उन्हें इन मामलों में समिति में रहते हुए भी उतनी ही स्वतंत्रता रहेगी, जितनी कि बाहर रहने पर होती । लेफ्टिनेंट गवर्नर के ऐसा कहने से गांधीजी को संतोष हुआ और उन्होंने यह कहते हुए सदस्य बनने के लिए थोड़ा समय माँगा कि वे मदन मोहन मालवीय से इस विषय पर बात करना चाहते हैं। जब वे पटना लौटेंगे तो श्री मालवीय से बात कर जो भी निर्णय लेंगे, उससे सरकार को तुरंत अवगत करा देंगे।
महात्मा गांधी – एडवर्ड गेट ने चंपारण समस्या का हल किस तरह खोजा
समिति का गठन और सदस्यों की नियुक्ति के अलावा गाधीजी और सर गेट के बीच इस विषय पर भी बातचीत हुई कि समिति आखिर किन-किन बिंदुओं की जाँच करेगी, समिति कब तक रिपोर्ट देगी आदि । इसमें चंपारण जिले के जमींदारों और रैयतों के संबंधों, नील की खेती और उसके निर्माण से उत्पन्न झगड़ों की जाँच करना, पहले से ही उपलब्ध सामग्री की जाँच करना तथा जरूरत पड़ने पर आगे भी जाँच करना शामिल है।
बैठक में यह तय हुआ कि संभव हो तो 15 अक्तूबर, 1917 तक समिति सारे मामलों की जाँच कर रिपोर्ट सरकार को सौंप दें। जाँच के क्रम में जो भी कमियाँ मिले, उसे दूर करने के उपाय की भी समिति अनुशंसा करे। गांधीजी के मन में कई और सवाल थे। इसके पहले भी उन्होंने सरकार को पत्र लिखा था और कई बिंदुओं को उठाया था। गांधीजी ने गेट से यह जानना चाहा कि क्या उन सारे मामलों को भी जाँच के दायरे में रखा जाएगा, जिन मामलों को उन्होंने पहले उठाया था।
गेट ने गांधीजी को आश्वासन दिया कि ये सारे मामले उसमें आ जाएँगे। बैठक में सरकार की ओर से कहा गया कि अब आगे की जाँच और गवाही लेने का जो काम गांधीजी पहले से कर रहे थे, उसे बंद कर देंगे; क्योंकि समिति तो बन चुकी है और वही यह काम करेगी। गांधीजी उसी समय कह दिया कि वे बिल्कुल अलग नहीं हो सकते। इससे गलत संदेश जाएगा। वे किसानों को नहीं छोड़ सकते, लेकिन इतना जरूर करेंगे कि जाँच होने तक वे मोतिहारी से बाहर, यानी गाँवों में नहीं जाएँगे।
गांधीजी ने लेफ्टिनेंट गवर्नर से यह अनुरोध किया कि गोरे जमींदारों को यह चेतावनी भेज दी जाए कि समिति की रिपोर्ट मिलने की अवधि तक के लिए वे बैलगाड़ियाँ और कुली आदि बेगार में न ले और न अवाब की वसूली करें। गेट ने गांधीजी के इस अनुरोध को शालीनता से यह कहते हुए उसे मानने से इनकार कर दिया कि सरकार द्वारा चेतावनी देने से गोरे जमींदार नाराज हो जाएँगे, क्योंकि इसका अर्थ यह होगा कि जाँच होने के पहले ही उन्हें दोषी मान लिया गया है। बातचीत से गांधीजी भी संतुष्ट दिखे।
चंपारण समस्या पर कई चक्रों में वार्ता चली
गांधी गेट वार्ता चार जून से छह जून तक कई चक्रों में चली थी। अच्छे माहौल में बात हुई और उसका रास्ता भी निकलता गया। बैठक में क्या बात हुई, इसकी जानकारी देने के लिए गांधीजी को पटना लौटना था । वह भी तुरंत रांची में बात करने के बाद गांधीजी अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी, बेटा देवदास गांधी और सहयोगी बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ सात जून को पटना सकुशल पहुँच गए। यह बहुत बड़ी जीत थी, क्योंकि एक तरीके से अभियुक्त बनाकर ही महात्मा गाँधी को रांची बुलाया गया था।
तीन दिनों की वार्ता के दौरान लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट पर गांधीजी का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वहाँ से वे चंपारण समिति का सदस्य बनकर निकले। ऐसा इसलिए संभव हो सका, क्योंकि गांधीजी का आंदोलन सत्य और अहिंसा पर आधारित था। उन पर जो भी आरोप लगाए गए थे, वे अंग्रेज जमींदारों ने जानबूझकर लगाए थे उसका सत्य से दूर-दूर का नाता नहीं था। वार्ता सफल होने और समिति के गठन से चंपारण आंदोलन के नेताओं में उत्साह आ गया था। इसके विपरीत गोरे जमींदार ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया था। गांधीजी सात जून को ही पटना पहुँचे थे। गाड़ी विलंब से पहुँचने के कारण मदन मोहन मालवीयजी को पटैना आने में विलंब हुआ था।
गांधीजी से उनकी मुलाकात हुई, गांधीजी ने उन्हें राँची वार्ता की पूरी जानकारी दी और समिति का सदस्य बनने के लिए उनकी राय माँगी। मालवीयजी भी इस बात से सहमत थे कि गांधीजी को सरकार द्वारा गठित समिति का सदस्य बनने से रैयतों का भला ही होगा। इसके बाद गांधीजी ने उसी समय तार कर बिहार-ओडिशा के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट को अपना निर्णय सुनाते हुए लिखा कि वे समिति में रैयतों के प्रतिनिधि के तौर पर रहने के लिए तैयार हैं। गांधीजी ने बाकी जो भी वादा सरकार से बातचीत के दौरान किया था, उसे पूरा करने के लिए तुरंत कदम उठाया। रैयतों का बयान लेने का काम 9 जून से ही बंद कर दिया गया और इसकी सूचना गांधीजी ने मुख्य सचिव मैक्फर्सन को 10 जून को भेज दी थी। इसके बाद तो गांधीजी का रांची आना-जाना लगा रही यह तय हुआ था कि समिति 15 जुलाई से अपना काम आरंभ कर देगी।
18 अक्तूबर को सरकार ने कमेटी की रिपोर्ट पर विचार- विमर्श के बाद अपना मंतव्य प्रकाशित करने की अनुमति दे दी। रैयतों की जीत हुई थी। रिपोर्ट जमा करने के बाद गांधीजी राँची से चंपारण रवाना हो गए, जहाँ रैयतों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया। गांधीजी अपना अभियान पूरा कर चुके थे।
संदर्भ
अनुप कुमार सिन्हा, महात्मा गांधी की झारखंड यात्रा, प्रभात प्रकाशन 2019
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में