चुआड़ विद्रोह के महानायक रघुनाथ महतो
झारखंड की राजधानी रांची से 55 किलोमीटर दूर सिल्ली प्रखंड के लोटा कीता गांव के पौराणिक शिव मंदिर के समीप गड़े पत्थर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई लड़ने वाले चुआड़ विद्रोह के महानायक शहीद रघुनाथ महतो की शहादत की कहानी बयां करती है।
कौन थे रघुनाथ महतो ?
रघुनाथ महतो का जन्म 21 मार्च, 1738 में झारखंड क्षेत्र के तत्कालीन जंगलमहल जिला और वर्तमान में सरायकेला खरसावाँ जिला के नीमडीह प्रखंड के घुटियाडीह ग्राम में हुआ था। रघुनाथ महतो बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव का जिंदादिल इंसान थे, वह किसी की गुलामी बर्दाश्त नहीं करते थे।
1765 के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने जंगलमहल जिला में आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन पर अपना अधिकार जमाने के लिए राजस्व वसूलना शुरू किया, आदिवासियों की जमीन छीनकर बंगाली जमींदारों के हाथों जमीन का हस्तांतरण हो रहा था, अन्य क्षेत्रों से लोगों को आयातित कर प्रजा बसाना शुरू किया था और नए-नए टैक्स लगाए जा रहे थे, इसी बीच रघुनाथ महतो ने आह्वान किया कि अब यदि अपनी जमीन में जीना है तो क्रांति, विद्रोह के अलावा कुछ भी नहीं बचा है।
अंग्रेजों की गुलामी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। हम अपनी जमीन का टैक्स नहीं देंगे। हमने खेत बनाया, गाँव बसाया, राज अपना है। इन्हीं विषयों को लेकर रघुनाथ महतो ने नीमडीह ग्राम से कुछ ही दूरी पर एक विशाल मैदान में फाल्गुन पूर्णिमा 1769 को अंग्रेजों के खिलाफ एक सभा बुलाकर विद्रोह का शंखनाद किया था और नारा दिया था— ‘अपना गाँव, अपना राज — दूर भगाओ विदेशी राज‘ आज उसी स्थान को रघुनाथपुर के नाम से जाना जाता है, जो नीमडीह प्रखंड का मुख्यालय है।
इसी तरह पुरुलिया की उत्तर दिशा में करीब तीस किलोमीटर दूरी पर एक छोटा सा शहर रघुनाथपुर है। मेदिनीपुर जिला अंतर्गत झाड़ग्राम में भी रघुनाथपुर है जनश्रुति है कि इन तीनों जगहों का नाम उस समय के लोगों ने अपने प्रिय नेता क्रांतिवीर अमर शहीद रघुनाथ महतो के नाम पर रघुनाथपुर रखा।
चुआड़ विद्रोह के नायक के रूप में उभरे रघुनाथ महतो
चुआड़ विद्रोह 1769 में रघुनाथ महतो के नेतृत्व में शुरू हुआ और वह इस विद्रोह के महानायक बने रहे, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी यह विद्रोह लगभग 1805 तक चलता रहा। ‘भारत का मुक्ति संग्राम’ नामक पुस्तक में चुआड़ विद्रोह अध्याय में अयोध्या सिंह लिखते हैं,
“ब्रिटिश शासकों को खुद स्वीकार करना पड़ा है कि इस विद्रोह का मूल कारण चुआड़ किसानों और पाइकों से जमीन और जीविका का छीना जाना था। ” मेदनीपुर के तत्कालीन कलेक्टर ने रेवेन्यू बोर्ड के पास 25 मई, 1798 को लिखा, “प्राचीन काल से जो अपने दखल की जमीन का भोग करते आ रहे थे, उन्होंने देखा कि बिना अपराध और बिना कारण जमीन भोगने का उनका अधिकार जानबूझकर छीन लिया गया।
इस बहाने कि सरकारी पुलिस के खर्च और गुजर के लिए यह जरूरी है और सारी संपत्ति से वंचित कर दिया गया अथवा उस जमीन पर इतना राजस्व लगाया गया, जिसे देने की क्षमता उनमें नहीं। उन्होंने यह भी देखा कि आवेदन निवेदन से कोई फायदा नहीं हुआ ऐसी हालत में पहला मौका मिलते ही उन्होंने अस्त्र धारण कर अपने से छीनी गई जगह जमीन वापस पाने की चेष्टा की। इसमें आश्चर्य या क्रोध करने का कोई कारण नहीं हो सकता।”
रघुनाथ महतो बहुत जल्द ही जंगलमहल जिले में अंग्रेजों के खिलाफ एक सशक्त नेता के रूप में उभरे। किसानों का भारी समर्थन प्राप्त हुआ। जंगलमहल जिले में मुख्यतः कुड़मी, संथाल और भूमिज आदिवासियों का वास स्थान रहा है। चुआड़ विद्रोह के शुरुआती तीन साल तक कुड़मी आदिवासी मोर्चा लिये हुए थे और उसके बाद विद्रोह में संथाल और भूमिज आदिवासी भी शामिल होने लगे।
अंग्रेजों को चिंता सताने लगी कि अब क्या होगा? चूँकि सैकड़ों साल से झारखंड के लोग अपनी जमीन के मालिक थे, किसी प्रकार की टैक्स वसूली नहीं थी। वे सभी स्वतंत्र रूप से जीवन जीते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजपाट सँभालते ही जंगल, जमीन पर जब अपना अधिकार के लिए कानून बनाया, तो विद्रोह होना स्वाभाविक था।
रघुनाथ महतो का नेतृत्व नीमडीह, पातकोम से लेकर बराहभूम, धालभूम, मेदनीपुर की ओर बढ़ने लगा। फिर धालभूम से किचूंग परगना में (जो अब सरायकेला खरसावाँ जिला के प्रखंड सरायकेला, राजनगर, गम्हरिया क्षेत्र को कहा जाता है) विद्रोह की आग तेजी से लपटें लेने लगी।
चुआड़ विद्रोह शुरू होने से पहले छोटानागपुर क्षेत्र पटना काउंसिल के अधीन था
उल्लेखनीय है कि चुआड़ विद्रोह शुरू होने से पहले छोटानागपुर क्षेत्र पटना काउंसिल के अधीन था, लेकिन जंगल महाल जिले में ईस्ट इंडिया कंपनी का जैसे-जैसे कब्जा बढ़ रहा था, विद्रोह भी उसी स्वर में बढ़ रहा था। चुआड़ विद्रोह की आक्रामकता को देखते हुए नवंबर 1773 में छोटानागपुर क्षेत्र को पटना काउंसिल के नियंत्रण से हटाकर बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया, ताकि खुद ईस्ट इंडिया कंपनी कलकत्ता से अपना शासन चला सके।
धालभूम राजा के किला घाटशिला पर चढ़ाई के कई महीने बाद धालभूम से सटे किचुंग परगना के मुख्यालय गोविंदपुर (जो टाटा चाईबासा रोड की बगल में हल्दीपोखर से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर हैं) में रखे गए पुलिस फोर्स के कैंप को विद्रोहियों ने घेर लिया और कई पुलिसवालों की हत्या कर दी, जिसमें कप्तान फॉबिंस को काफी परेशानी उठानी पड़ी।
बाद में विद्रोहियों की आक्रामक लड़ाई को देखकर कंपनी सरकार ने किचुंग परगना पर कब्जा करने का विचार छोड़ दिया और मयूरभंज राजा के वामनघाटी जमींदार के अधीन किचुंग परगना को सौंप दिया गया और धालभूम की ओर से हो रहे आक्रमण को रोकने को कहा गया।
लेफ्टिनेंट गुडयार को पुलिस फोर्स की दो कंपनियों के साथ किचुंग परगना और धालभूम में शांति बनाए रखने के लिए पुलिस फोर्स भेजी गई। किचुंग परगना के लिए हल्दीपोखर और धालभूम के लिए नरसिंहगढ़ में पुलिस फोर्स कैंप बनाया गया। लेफ्टिनेंट गुडयार ने स्थानीय छोटे-बड़े जमींदारों को शांति बहाल करने का जिम्मा सौंपा।
जनवरी 1774 में फसल कटाई के बाद रघुनाथ महतो ने फिर से चुआड़ विद्रोहियों को लेकर धालभूम राजक्षेत्र पर आक्रमण किया। इसके प्रतिवाद में ईस्ट इंडिया कंपनी की फोर्स ने बहरागोड़ा, नरसिंहगढ़, चाकुलिया, मुसाबनी, डामपाड़ा क्षेत्र के दर्जनों गाँवों में आग लगाकर उन्हें तहस-नहस कर दिया। इन घटनाओं को देखते हुए हल्दीपोखर के सेनाध्यक्ष सिडनी स्मिथ ने 10 अप्रैल, 1774 को मेदनीपुर के रेजीडेंट को सूचना दी कि चुआड़ विद्रोहियों के खिलाफ फौजी कार्रवाई करनी बहुत ही आवश्यक है।
विद्रोहियों का दमन करने में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार असमर्थ हुई। अंततः अंग्रेजों को विद्रोहियों से हार मानकर जगन्नाथ धवलदेव को धालभूम का राजा बहाल करना पड़ा (चुआड़ विद्रोहियों की यह पहली जीत थी)। जनश्रुति है कि जगन्नाथ धवलदेव पुनः जब राजा बना तो अपनी प्रजा से लगान वसूली कई साल तक बंद कर दी थी, क्योंकि चुआड़ विद्रोही मुख्यतः किसान थे।
रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 18 मई, 1774 को बराहभूम के करीब 25-30 कि.मी. दूरी पर बाघमुंडी पहाड़ में अपने विद्रोही साथियों के साथ छिपे होने की खबर जैसे ही लेफ्टिनेंट गुडयार को मिली, वह अपनी पुलिस फोर्स के साथ उन्हें पकड़ने के लिए चल पड़ा और विद्रोहियों को घेरने का आदेश दिया, लेकिन इतना आसान नहीं था कि पुलिस फोर्स विद्रोहियों को पकड़ ले।
पुलिस फोर्स की गोलीबारी से विद्रोही भाग खड़े हुए, कई पकड़े गए और कई मारे गए इस लड़ाई में बराहभूम के राजा ने लेफ्टिनेंट गुडयार का साथ दिया, जिसे विद्रोहियों को दबाने में सफलता मिली।
रघुनाथ महतो का नारा था ‘जमीन हमारी राज हमारा‘
विद्रोहियों के पास तीर-धनुष, फरसा, बरछा, बल्लम होते थे, जिससे वे युद्ध करते थे। अंग्रेज शासक रघुनाथ महतो को पकड़ने के लिए भरसक कोशिश करता रहा, लेकिन वह पकड़ से बाहर था। विद्रोहियों की रात में सभा होती थी । विद्रोही सैकड़ों गाँवों पर अपना कब्जा जमाते हुए तहसीलदार कार्यालय और थाने पर आक्रमण कर उन्हें जलाते हुए झरिया की ओर आगे बढ़े।
25 जुलाई की रात दामोदर नदी पारकर रघुनाथ महतो ने झरिया राजा के क्षेत्र पर चढ़ाई कर दी। ईस्ट इंडिया कंपनी फौज ने विद्रोहियों को कुचलने के लिए तुरंत कदम उठाए । विद्रोहियों की योजना थी कि वे राजा के सिपाहियों को शस्त्रहीन कर देंगे और शस्त्र लूटकर अंग्रेजों से लोहा लेंगे। रात को राजा की बैरक पर हमला किया, लेकिन असफल होकर पीछे लौटना पड़ा।
रघुनाथ महतो ने हार नहीं मानी। इन्होंने विद्रोहियों के साथ दामोदर नदी किनारे एक सभा की और अगले आंदोलन के लिए तैयार रहने को कहा। रघुनाथ महतो की सेना में लगभग पाँच हजार की संख्या में विद्रोही शामिल थे। इनके पास तीर-धनुष, टांगी, फरसा, तलवार, बल्लम से सुसज्जित सेना थी। इन लोगों ने सभा में प्रस्ताव पारित किया कि जब तक अंग्रेज हमारी जमीन जमींदारों के हाथों सौंपते रहेंगे और राजस्व की वृद्धि होती रहेगी, हम किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे और हमारी जंग जारी रहेगी।
‘जमीन हमारी राज हमारा’ का नारा दिया गया। रघुनाथ महतो की विद्रोही सेना ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ने की शपथ ली। कंपनी की सेना द्वारा रघुनाथ महतो को पकड़ने के लिए पूरे जंगल- महाल जिले में जगह-जगह छापेमारी की गई। उस समय सड़कें अच्छी नहीं थीं, आने-जाने के साधन उपलब्ध नहीं थे, पगडंडी का सहारा लेना पड़ता था ।
क्षेत्र जंगलों से भरा पड़ा था, जिसके कारण रघुनाथ महतो को पकड़ने में ईस्ट इंडिया कंपनी की पुलिस को काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी, लेकिन वह पुलिस के हाथ नहीं लगता था। रघुनाथ महतो के साथ हथियार से लैस डेढ़-दो सौ लोगों का एक लड़ाकू दस्ता होता था। इस लड़ाकू दस्ते के चलते अंग्रेज पुलिस भी हिम्मत नहीं कर पाती थी।
रघुनाथ महतो का साथ देने वाले को मौत का दंड की घोषणा
1776 तक चुआड़ विद्रोह का एक केंद्र राँची और पुरुलिया के बीच सिल्ली गाँव में बना था । विद्रोहियों की अगुवाई झगडू महतो और डोमन भूमिज करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने झगडू महतो को एक बार गिरफ्तार कर काशीपुर जेल में कैद कर रखा था, फिर उन्हें आंदोलन न करने की चेतावनी देकर छोड़ा गया। झगडू महतो कंपनी की पुलिस की बात कहाँ माने, वह तो रघुनाथ महतो के विद्रोही सेनाओं का प्रमुख नेता बन चुका था।
एक बार झालदा के पास विद्रोही और ईस्ट इंडिया कंपनी पुलिस के बीच में लड़ाई हो गई। लड़ाई में झगडू महतो मारा गया। झगडू महतो के मारे जाने की सूचना पाकर विद्रोहियों और ग्रामीणों की संख्या जब घटनास्थल पर बढ़ने लगी, तो पुलिस डोमन भूमिज को कैद कर अपनी जान बचाते हुए पुरुलिया की ओर भाग खड़ी हुई। इस घटना के बाद यह लड़ाई सिल्ली, सोनाहातु, बुण्डू व रामगढ़, हजारीबाग की ओर बढ़ने लगी।
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासकों को लगा कि जंगलमहल जिला चुआड़ विद्रोहियों के कब्जे में चला गया है। जगह-जगह विद्रोहियों की अंग्रेज सिपाहियों के साथ मुठभेड़ होती रही, लोग मरते रहे और कहीं-न-कहीं मुठभेड़ के समाचार आते रहते थे।
इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के शासकों ने घोषणा की कि जो कोई भी रघुनाथ महतो के साथ शामिल होगा, उसे मौत का दंड दिया जाएगा। इधर कंपनी शासक भी झुकने को तैयार नहीं हुए और न ही रघुनाथ महतो अंग्रेजों की धमकी के आगे आत्म-समर्पण करने को तैयार हुए। महतो ने लड़ाई को जारी रखने के लिए विद्रोहियों का आह्वान किया।
चुआड़ विद्रोह की विशेषता यह थी कि जैसे ही एक हिस्से में विद्रोह दबाया जाता था, वैसे ही दूसरे हिस्से में स्वतः विद्रोह खड़ा हो जाता था। विद्रोहियों के निशाने पर जमींदार, तहसीलदार और ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही थे।
भारत के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने विद्रोह थमता नहीं देखकर छोटानागपुर खास, जंगल- महाल और रामगढ़ जिले के तत्कालीन कमिश्नरों से रघुनाथ महतो और विद्रोहियों से बातचीत कर समस्या का समाधान करने का आदेश दिया। गवर्नर जनरल ने आदेश दिया कि उन पर किसी तरह की दमनात्मक कार्रवाई नहीं हो, लेकिन जमींदारों ने गवर्नर जनरल की बातों को नहीं मानने के लिए कमिश्नरों पर दबाव बनाया। जमींदारों ने किसी भी परिस्थिति में रघुनाथ महतो और विद्रोहियों का आंदोलन दबाने की कोशिश की।
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क्रांतिवीर अमर शहीद रघुनाथ महतो का बलिदान
5 अप्रैल, 1778 का दिन था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की पुलिस को पता चला कि रघुनाथ महतो अपने दल-बल के साथ झालदा के आस-पास ग्रामीण क्षेत्र से स्वर्ण रेखा नदी पार कर राँची (तत्कालीन छोटानागपुर खास) और सिल्ली के बीच जंगल में लोटा गाँव के नजदीक सभा कर रहे हैं। और सभा के बाद रामगढ़ की ओर बढ़ने वाले हैं, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के पुलिस बैरक पर हमला करेंगे। पुलिस फोर्स ने सभा स्थल में ही रघुनाथ महतो को घेर लिया, अंधाधुंध गोलियाँ चलीं, जिससे वे पुलिस के शिकार हो गए। गोलीबारी से दर्जन भर लोग मारे गए, सैकड़ों लोग गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए।
रघुनाथ महतो के नेतृत्व में करीब दस साल तक आंदोलन चला। उनकी शहादत के बाद भी चुआड़ विद्रोह 1805 ई. तक चलता रहा और समय-समय पर इस विद्रोह को कई नेताओं ने नेतृत्व प्रदान किया, जिसमें धालभूम राज्य अंतर्गत खैरपाल (वर्तमान में पोटका प्रखंड) के जागीरदार सुबल सिंह, दामपाड़ा (घाटशिला प्रखंड) के सरदार जगन्नाथ पातर और श्याम गंजाम ने चुआड़ विद्रोह को शक्ति प्रदान की।
भारत देश के प्रथम क्रांतिवीर अमर शहीद रघुनाथ महतो का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी शहादत, त्याग और अंतिम आत्माहुति की ज्वाला कालांतर में विभिन्न आंदोलनों, क्रांतियों, विद्रोहों का प्रेरणास्त्रोत बनी और न सिर्फ झारखंड, न भारतवर्ष, बल्कि पूरी दुनिया के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रतम गाथा के रूप में रघुनाथ महतो का बलिदान चिरस्मरणीय रहेगा। रघुनाथ महतो की समाधि लोटा गाँव में है, जहाँ हर साल 5 अप्रैल को लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
चुआड़ विद्रोह के महानायक रघुनाथ महतो के जीवन चरित्र, उनके संघर्ष और उनके बलिदान को याद कर अपनी महान् स्वाभिमानी स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता एवं आभार की अभिव्यक्ति हमारे निश्चय को दृढ़ता और संघर्ष को नवीन संबल प्रदान करती रहेगी।
संदर्भ
शैलेंद्र महतो, झारखंड में विद्रोह का इतिहास(1767-1914), प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में