एटनबरो की फिल्म गांधी से जुड़ी कुछ रोचक कथाएं
रिचर्ड एटनबरो एक शिक्षक ( कॉलेज प्रिंसिपल) के पुत्र थे। वह अभिनेता भी थे, फ़िल्म निर्देशक भी। उनकी चरम ख्याति लगभग उसी रूप में गांधी फ़िल्म बनाने से हुई है, जिस रूप में वाल्मीकि और तुलसीदास श्रीराम की कथा लिखकर अमर हो गए। ऐसी फिल्में सच में रचनात्मक पागलपन से ही बनती हैं, जो रिचर्ड में भरपूर था। एटनबरो ने 20 साल तक सपना देखा, तैयारी की, तब जाकर मुमकिन हुई यह फ़िल्म।
गांधी के व्यक्तित्व को सिनेमा पर उतारना कोई सहज काम नहीं था
गांधी सरल भी हैं, जटिल भी, महान भी हैं तो किसी भी बड़े कद के इंसान की तरह कुछ विवाद भी उनके व्यक्तित्व के साथ जोड़े जाते हैं, तो सिनेमा पर उतारना कोई सहज काम नहीं था।
उनकी यह फ़िल्म हम आप मे से प्रायः लोगों ने देखी होगी। इस फ़िल्म को जब साल 1983 में ऑस्कर यानी अकेडमी अवार्ड्स में बेस्ट पिक्चर और बेस्ट डायरेक्टर के दो अवॉर्ड मिले थे, उसकी घोषणा के क्षण आपको यूट्यूब पर ढूंढकर देखने को मिल जाएंगे, रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य हैं। पहले तो यही सोचिए कि बेस्ट डायरेक्शन की दौड़ में वोल्फगोंग पीटरसन और स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्में भी थी, सिडनी पोलक और सिडनी लुमेट की भी… अपने समय के ही नहीं लंबे कालखंड के श्रेष्ठ फिल्मकार।
फ़िल्म को इन शब्दों के साथ बेस्ट पिक्चर के लिए नॉमिनेट किया गया था: ‘एक ऐसे व्यक्ति की जीवनी जिसने एक देश को गर्व, गरिमा, शांति दिलाए, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं।’ जब विजेता के रूप में उनके नाम की घोषणा हुई, उन्होंने कहा-‘ मेरे पार्टनर मोती कोठारी आज मेरे साथ नहीं है, जिनके साथ मुझे यह अवार्ड लेना था, फ़िल्म उनको डेडिकेट की गई है, उनका परिवार – डोरोथी, श्यामा और रजनी। उनको उनके पिता के योगदान के लिए प्रेम और आदर प्रकट करता हूँ, जिन्होंने मुझे विचार दिया।
बेन कहते हैं कि यह सम्मान महात्मा गांधी का सम्मान है, वे लाखों- लाखों लोगों की प्रेरणा थे, और मेरे लिए खास बात यह है कि वे अभी भी,आज तक भी प्रेरणा हैं, आपके लोकनायक मार्टिन लूथर किंग जूनियर गांधी से प्रेरित थे, पोलिश देशभक्त लेक वालेसा जब जेल से बाहर आए, बोले- ‘ जो मैं अतीत में करने की कोशिश कर रहा था, वह सफल नहीं हो सकता था था, हम केवल गांधी के दर्शन और शिक्षाओं से ही मानव की गरिमा और शांति प्राप्त कर सकते हैं।
उनका विचार है कि मानवीय गरिमा के ज़रिए ही हम समकालीन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आखिरकार हिंसा कोई समाधान नहीं है, उन्होंने समाधान के मानदंडों पर सवाल उठाने और उन्हें बदलने की बात कही, मुझे लगता है उनके पास हम सब, दुनिया के सब लोगों के लिए एक संदेश था, सारे फ़िल्मकेकर यही कहना चाहते हैं, चाहे फ़िल्म मेरे नाम के साथ सम्मानित हुई है, आपने महात्मा गांधी को सम्मानित किया है, हम सब यही कहना चाहते हैं, जो उनकी कामना थी कि शान्ति से रहें।’
फ़िल्म का प्रभाव यह कोई कम है कि इस फ़िल्म को ऑस्कर, BAFTA सहित सारे प्रमुख अवॉर्ड मिले, रिचर्ड एटनबरो को भारत सरकार ने पद्म विभूषण दिया था। रिचर्ड को याद करने का एक सिरा यह भी हो सकता है कि जब सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर आधारित फिल्म बनाई, उसमें मेजर आऊट्रम का रोल रिचर्ड ने निभाया था।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
गांधी पर फ़िल्म बनाने की कोशिश पहले भी हुई थी
ज़रा पीछे चलें तो हंगरी के फ़िल्मकेकर गेब्रियल पास्कल नेहरू की मदद से 1952-54 में गांधी पर फ़िल्म बनाने की नाकाम कोशिश कर चुके थे।
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने अपने एक लेख में (होरेस अलेक्जेंडर के व्यक्तिगत पत्रों पर आधारित) लिखा था कि गुजराती प्रवासी, लंदन के भारतीय हाई कमीशन के अधिकारी मोतीलाल कोठारी पचास के दशक में दिल की बीमारी से ग्रसित हुए तो बचे हुए जीवन में मानवता के हित का कोई छोटा काम करने की सोची तो गांधी के शांति के संदेश को सबसे लोकप्रिय माध्यम फ़िल्म के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने के सिवा उन्हें कुछ नहीं सूझा तो वे गांधी के जीवनीकार लुई फिशर के पास गए, लुई फिशर ने खुशी खुशी अपनी किताब पर फ़िल्म बनाने के अधिकार निशुल्क दे दिए तो मोतीलाल कोठारी रिचर्ड एटनबरो के पास पहुंचे कि क्या आप डायरेक्ट करेंगे।
यह जुलाई 1962 की बात है। फरवरी 63 में एटनबरो ने हां कर दी। रिचर्ड एटनबरो माउंटबेटन परिवार की मदद से नेहरू मिले, कोशिशें शुरू हुई, कोठारी और एटनबरो गेराल्ड हेनली की स्क्रिप्ट के साथ नेहरू से मिले, नेहरू ने इसे ‘राइट स्पिरिट’ के साथ लिखने के लिए कहा। विशेषज्ञों की टिप्पणियों के आधार पर फिर से लिखा गया, प्रोजेक्ट के लिए इंडो ब्रिटिश फ़िल्मस लिमिटेड की स्थापना हुई जिसके डायरेक्टर्स थे- एटनबरो और मोतीलाल कोठारी।
19 दिसम्बर 1964 को लंदन के सेवॉय होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस में दोनों ने फ़िल्म बनाने की घोषणा की। कोठारी ने रिचर्ड एटनबरो को भावी फ़िल्म का डायरेक्टर घोषित करते हुए कहा कि अगर हम अपनी कहानी में इस महान आदमी का दुर्लभ और विशिष्ट शिष्टाचार एवं करुणा, हास्य बोध और विनम्रता, साहस और बुद्धिमत्ता को ठीकठाक भी दिखाने में कामयाब हुए तो मेरा यकीन है कि दुनिया के लोग जो सिनेमा देखने आएंगे, खुद से कहेंगे कि कितना अच्छा है मनुष्य होना, और कितना श्रेष्ठ है खुद को अच्छा मनुष्य बनाने की कोशिश करना।
चंपारण सत्याग्रह के इतिहास में पीर मुहम्मद मूनिस एक छूटा हुआ नाम है
फंडिंग के वज़ह से गांधी फिल्म बनने में देरी हुई
फ़िल्म में देरी की पहली वजह फंडिंग थी, मेट्रो -गोल्डविन- मेयर पहले फंडिंग के लिए आगे आए, फिर पीछे हट गए, दूसरी यह कि स्क्रिप्ट कौन लिखे, मोतीलाल रॉबर्ट बोल्ट से लिखवाना चाहते थे, पर कुछ लिखाई के बाद बात आगे नहीं बढ़ी, पर नेहरू के निधन से भी प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ सका, बीच में एटनबरो और कोठारी के बीच भी कुछ रचनात्मक असहमतियां बनी, मोतीलाल कोठारी डेविड लीन को डायरेक्टर के तौर पर ले आए, वे शास्त्री और इंदिरा के समय भारत भी आए।
1969 में गांधी की जन्मशताब्दी वर्ष में फ़िल्म लाने की कोशिशें पूरी नहीं हुई। डेविड लीन की प्रोजेक्ट में रुचि नहीं रही। पर एटनबरो की बनी रही। इस बीच जनवरी 1970 में हार्ट अटैक से मोतीलाल कोठारी चल बसे। मोतीलाल कोठारी ने स्क्रिप्ट राइटर के लिए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में फ़िल्म में 3 बातों को खास तवज्जो देने की मंशा दिखाई देती है-
1- गरीबों के साथ गांधी की आत्मीयता
2- अन्याय के विरुद्ध गांधी का संघर्ष
3- उपदेश से पहले उसका स्वयं के जीवन में व्यवहार।
कुदरत ने गांधी बनाने की ख्याति एटनबरो की किस्मत में ही लिखी थी। कोठारी की यादों और सितारवादक रविशंकर की प्रेरणा से उत्साहित होकर एटनबरो …फ़िल्म के लिए धन जुटाने की कोशिशें करने लगे।
एनएफडीसी के 10 मिलियन डॉलर की मदद से बन सकी गांधी फ़िल्म
फ़िल्म कम्पनी वार्नर ब्रदर्स की मदद से इंदिरा गांधी के समय फिर एटनबरो सक्रिय हुए, तो इमरजेंसी के रूप में बड़ी बाधा आ गयी। फिर आखिरकार इंदिरा गांधी के सहयोग से एनएफडीसी के 10 मिलियन डॉलर की मदद से फ़िल्म बनी।
फ़िल्म की मेकिंग को लेकर बीबीसी द्वारा निर्मित, जेनी बैरक्लो निर्देशित एक डॉक्यूमेंट्री भी है, जिसमे रिचर्ड बताते हैं-‘ नेहरू ने मुझसे कहा कि गांधी पर फ़िल्म ऐसे बनाओ कि लोग यकीन करें कि वह कोई देवता या संत नहीं थे, इंसान थे। ‘
रिचर्ड ने एक और साक्षात्कार में कहा-‘ अट्ठारह साल पहले मैं एक समृद्ध अभिनेता और आंशिक निर्माता था, बहुत ही सहज जीवन। फिल्मों में मेरे लिए पर्याप्त जगह थी,मेरा पैसा ठीक से निवेश किया हुआ था, तभी मुझे मोतीलाल कोठारी ने लुई फिशर की लिखी गांधी की जीवनी दी, और मैं पूरे सच के साथ कह रहा हूँ कि इसने मेरा जीवन बदल दिया, कान फेस्टिवल के उंस दिन से लेकर आज तक मैंने किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचा, तबसे अपने पूरे करियर में निर्देशन से लेकर एक्टिंग के रोल ठुकराने तक मैंने जो किया, भारत की 40 यात्राएं, सब इस एक फ़िल्म को बनाने के लिए किया है।’
कोई 22 मिलियन यूएस डॉलर यानी 17.6 करोड़ रुपए खर्च हुए, 21 हफ्तों की नॉनस्टॉप शूटिंग से बनी थी गांधी। बारबरा क्रोसेट ने न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने एक लेख में दिलचस्प बात बताई कि एटनबरो फ़िल्म बनने के बाद लॉस एंजिलिस के हर फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के पास फ़िल्म के 2 घण्टे का हिस्सा लेकर गए,20 साल से जो सारी कम्पनियां इस फ़िल्म के विचार को ही नकार चुकी थी, अब देखकर अधिकार लेने को बोलियां लगाने लगीं।
दिलचस्प बात यह भी है कि फ़िल्म को मुख्यतः लंदन की जिस कम्पनी- गोल्डक्रेस्ट फ़िल्म इंटरनेशनल ने निर्माण सहयोग दिया, उसमें पियर्सन लॉंगमैन पब्लिशिंग ग्रुप सबसे बड़ा स्टॉकहोल्डर है। तो एक चक्र का पूरा होना है कि एक किताब से फिल्मी रूपान्तरण का प्रेरणा बीज पड़ा, वह ख़याल किताबों के प्रकाशक की कम्पनी के सहयोग से मूर्त होने की तरफ बढ़ा। बाद में, न्यूयॉर्क की इंटरनेशनल फ़िल्म इन्वेस्टर भी साथ मे जुड़ी, और एक तिहाई हिस्सा भारत सरकार की संस्था एनएफडीसी ने दिया।
गांधी का किरदार बड़ा था, बड़े कैनवस का किरदार। रिचर्ड एटनबरो की इस फ़िल्म ने उनके किरदार को बड़े वर्ग तक जीवंत रूप में पहुंचाया। बेन किंग्सले के रूप में गांधी चलते- फिरते घर- घर मे पहुंच गए। लाखों दर्शकों की चेतना में जिस गाँधीय छवि का निर्माण इस फ़िल्म ने किया है, उसका ठीक- ठीक मूल्यांकन भी हम नहीं कर सकते। उसकी कल्पना ही रौंगटे खड़ी कर देने वाली है, जिस अभिनेता बेन किंग्सले को उस किरदार में लिए जाने पर रिचर्ड की आलोचना हुई, वह बड़े जनमानस में गांधी के जीवंत प्रतीक की तरह स्थापित हो गए हैं, और यह स्थापना सुदीर्घ समयावधि के लिए हो गयी है।
-दुष्यन्त-
(लेखक हिंदी सिनेमा के गीतकार– स्क्रिप्ट राइटर और स्वतंत्र इतिहासकार हैं)
दुष्यंत हिन्दी के स्वतंत्र लेखक और इतिहासकार हैं। उन्होंने हिन्दी फ़िल्मों के लिये गीत और स्क्रिप्ट भी लिखे हैं।