क्यों छोड़नी पड़ी हॉकी के पहले कप्तान जयपाल मुंडा को कप्तानी और फिर आई सी एस की नौकरी भी ? : विशी सिन्हा
विशी सिन्हा बता रहे हैं कि ओलिम्पिक में भारतीय हॉकी के पहले कप्तान जयपाल मुंडा ने क्यों छोड़ दी कप्तानी फाइनल्स के ठीक पहले और फिर राजनीति में सक्रिय हो गए?
ओलंपिक के लिए भारत से 13 और इंग्लैंड में रह रहे तीन या चार भारतीयों को टीम के लिए चुना गया था. इंग्लैंड में रह रहे भारतीय खिलाड़ियों में से जिसे भारतीय टीम का कप्तान बनाया गया वे उन दिनों इंग्लैंड की हॉकी में एक बहुत बड़ा नाम थे. वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी टीम के प्रमुख स्तंभ थे और समूचे ब्रिटेन में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी. वे हर दृष्टि से योग्य थे. उन्हें अंग्रेजी खिलाड़ियों, वहाँ के वातावरण और यूरोप के खेल मैदानों की बहुत गहरी समझ थी. यह हमारे लिए बहुत गौरव की बात थी कि हमें उनके जैसा कप्तान मिला था.
– ध्यानचन्द अपनी आत्मकथा “गोल” में भारतीय हॉकी टीम के प्रथम कप्तान के बारे में. [1]
एम्सट’डैम ओलिंपिक (1928) में भारतीय हॉकी टीम द्वारा हासिल स्वर्ण पदक सिर्फ भारत ही नहीं, किसी भी एशियाई देश को ओलिंपिक में मिलने वाला प्रथम स्वर्ण पदक था. लेकिन क्या आपको मालूम है कि प्रथम भारतीय ओलिंपिक हॉकी टीम का कप्तान कौन था?
उनका नाम जयपाल सिंह था और उनका जन्म आदिवासी मुंडा जनजाति में हुआ था. उनका बचपन का नाम था प्रमोद पाहन.अमरु पाहन और राधामुनी की आठ संतानों में जयपाल दूसरे नंबर पर थे.
‘पाहन’ मुंडा समाज में एक पद है जिस पर समाज के धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्यों के सम्पादन की जिम्मेदारी होती है.
उनका नाम प्रमोद से जयपाल कैसे हुआ, इस बाबत उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है – “मुझे नहीं मालूम मेरा नाम किसने और कब बदला. मैं शायद आठ-दस वर्ष का रहा होउंगा जब मैं अपने आबा (पिता) की उंगली थामे, सकुचाते हुए राँची के संत पॉल स्कूल पहुंचा था. उस दिन से न सिर्फ मेरा नाम, बल्कि मेरी जन्म की तारीख भी बदल गई. तब से मेरा नाम जयपाल सिंह और जन्म की तारीख 3 जनवरी 1903 हो गया.” [2]
मिशनरीज़ के स्कॉलरशिप पर जयपाल सिंह ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी तक पहुँचे और वहाँ विभिन्न खेलों में छा गए. ब्रिटिश विश्वविद्यालय खेलों और लीग मैचों में हॉकी में उनके बेहतरीन प्रदर्शन के बूते उन्हें “ब्लू हॉकी प्लेयर” घोषित किया गया था. इंग्लैण्ड की कॉलेज और क्लब टीमों के साथ वे नीदरलैंड्स (जहाँ ओलिंपिक खेल होने वाले थे) समेत योरोप के कई देशों में खेल चुके थे.
ओलिम्पिक में जयपाल सिंह
एम्सट’डैम ओलिंपिक खेलों के लिए भारतीय हॉकी दल की घोषणा की गई तो 13 खिलाड़ी भारत से भेजे गए, जबकि इंग्लैंड में विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत 3 खिलाड़ी टीम के इंग्लैंड पहुँचने पर जुड़ गए. ये तीन खिलाड़ी थे – ऑक्सफ़ोर्ड के जयपाल सिंह (जिन्हें उनके अनुभव के चलते टीम का कप्तान बनाया गया) और इफ्तिखार अली खान पटौदी (क्रिकेट खिलाड़ी नवाब पटौदी सीनियर, जिन्होंने आगे चलकर इंग्लैंड की तरफ से छः टेस्ट मैच खेले) और कैम्ब्रिज़ से एस. एम. यूसुफ़.
भारतीय टीम ने इंग्लैंड में स्थानीय क्लब टीमों से मैच खेले और ओलिंपिक से पहले जर्मनी और बेल्जियम देशों के दौरे किये. नवाब पटौदी सिर्फ फ़ॉकस्टन (इंग्लैंड) में हुए मैचों में ही भारतीय टीम के साथ खेल सके, जबकि बाक़ी दो – जयपाल सिंह और एस. एम. यूसुफ़ लगातार टीम का हिस्सा बने रहे.
जयपाल सिंह एक दक्ष डिफेंडर थे और टीम में वे माइकल रॉक अथवा लेस्ली हैमंड के साथ फुल बैक की पोजीशन में खेलते थे. टीम के कप्तान होने के बावजूद जयपाल सिंह टीम के साथ नहीं ठहरते थे, वे मैच से पूर्व आते थे और मैच के बाद वापस लौट जाते थे. दरअसल उन दिनों वे इम्पीरियल एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस /आई.सी.एस. की ट्रेनिंग कर रहे थे, लेकिन उन्हें ओलिंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम के साथ खेलने के लिए छुट्टी नहीं मिली. बिना अनुमति के अवकाश पर जाने से उनके आईसीस ट्रेनिंग पर आँच आ सकती थी.
जयपाल सिंह ने सोचा “जो होगा देखा जाएगा” और ज्यादा परवाह न करते हुए भारतीय हॉकी टीम के साथ एम्सट’डैम जाने का फैसला किया . एम्सट’डैम में इतिहास रचा गया और भारतीय टीम ने सभी मैच जीतते हुए, बिना एक भी गोल खाए, स्वर्ण पदक पर कब्जा किया. स्वर्ण पदक जीतने के बाद भारतीय टीम के मैनेजर बी. रोजर को भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन का तार मिला – “कृपया इस शानदार जीत पर जयपाल सिंह और उनकी टीम के सभी सदस्यों तक मेरी दिली शुभकामनायें पहुँचाइए.”[3]
ओलंपिक फाइनल से ठीक पहले छोड़ी कप्तानी
लेकिन हकीकत में जयपाल सिंह ने फाइनल मैच से पूर्व व्यक्तिगत कारणों से खेलने से मना कर दिया था. 26 मई को होने वाले फाइनल मैच से पूर्व यह स्थिति थी कि फिरोज़ खान, शौकत अली और खेर सिंह अस्वस्थ/अनफिट थे, जयपाल सिंह निजी कारण बताकर फाइनल में खेलने से विरत रहे थे और ध्यानचन्द को भी बुखार चढ़ गया था. भारतीय हॉकी टीम के लिए 11 खिलाड़ी जुटाना भारी पड़ रहा था. खैर, बुखार के बावजूद ध्यानचन्द ने फाइनल खेला और जयपाल सिंह की अनुपस्थिति में टीम की कमान संभाली उप-कप्तान एरिक पिनिगर ने.
मैनेजर के ‘करो या मरो’ के नारे से जोश से भरी टीम ने मेजबान नीदरलैंड्स को 3-0 से पराजित कर स्वर्ण हासिल किया, जिसमें दो गोल ध्यानचन्द के थे.
लेकिन लाख टके का सवाल है कि जयपाल सिंह ने फाइनल मैच से ऐन पहले भारतीय टीम की कप्तानी क्यों छोड़ी. कोई कयास लगाता है कि आईसीएस की ट्रेनिंग से छुट्टी न मिलने और फ़ौरन ज्वाइन करने के दबाव में यह निर्णय लिया तो कोई टीम मैनेजर/मैनेजमेंट से पटरी न बैठने की बात कहता है तो कोई उनके प्रति नस्लीय भेदभाव बरतने का कयास लगाता है.
ध्यानचन्द ने अपनी आत्मकथा में लिखा है – “यह एक रहस्य ही बना रहा कि जयपाल सिंह हें अचानक क्यूँ छोड़ गए. इस बारे में मैंने उड़ती-उड़ती कई कहानियाँ सुनी लेकिन वास्तव में सच्चाई क्या थी ये कभी नहीं जान पाया. हमें ऐसा लग रहा था कि ऊपरी लेवल पर कुछ तनातनी चल रही है. रोजर हमारी टीम का मैनेजर था और भारतीय फ़ौज के दो एक्स-आर्मीमेन – मेजर रिकेट्स और कर्नल ब्रूस टर्नबुल कमोबेस उसके बॉस.
कुछ लोगों के अनुसार यह मामला साम्प्रदायिक और नस्लीय था.
मुझे नहीं मालूम जयपाल सिंह ने फाइनल देखा भी था या नहीं. निश्चित रूप से परदे के पीछे कुछ चल रहा था. ‘क्या ‘ ये सिर्फ तीन-चार लोग ही जानते थे – टीम मैनेजर रोजर, मेजर रिकेट्स , कर्नल ब्रूस टर्नबुल. भारतीय हॉकी संघ के तत्कालीन अध्यक्ष मेजर बर्न-मर्डोक और उपाध्यक्ष चार्ल्स न्यूहैम भी इस बारे में अवश्य जानते होंगे. मुझे इस बात में भी पूरा संदेह है कि इनमें से कोई भी शायद ही पूरा सच बताएगा. सच्चाई एक ही आदमी बता सकता है और वो हैं जयपाल सिंह.” [4]
जयपाल सिंह ने ता-ज़िन्दगी खुद कभी भी इस विवाद पर मुँह नहीं खोला. न ही हमें उनकी आत्मकथा “लो बिर सेंदरा” में हमें इस विवाद पर कुछ पढने को मिलता है. बिना छुट्टी मिले खलने के लिए चले जाने पर उनकी आईसीएस ट्रेनिंग खतरे में पड़ गई.
वे कहते हैं – “जब मैं लन्दन लौटा तो अधिकारियों से कहा कि मैं अपना टर्म नहीं पूरा कर सका इसलिए एक साल और रहकर अपना टर्म पूरा करना चाहूंगा. लेकिन भारतीय टीम की कप्तानी करते हुए विश्वविजेता बना देने का अंग्रेज अधिकारियों की निगाह में कोई मोल नहीं था. मैंने इस्तीफ़ा दे दिया और ट्रेनिंग पूरा न करने के दण्ड-स्वरुप निर्धारित 350 पाउंड्स भी देने से इनकार कर दिया.” [5]
हॉकी छोड़ राजनीति में आए जयपाल मुंडा
इसके बाद जयपाल सिंह इंग्लैंड से वापस भारत आ गए और कलकत्ते में नौकरी करने लगे. हॉकी के लिए आईसीएस की परवाह नहीं करने वाले जयपाल सिंह ने फिर कभी भारतीय टीम के लिए हॉकी नहीं खेली.
आगे चलकर उन्होंने राजनीति में इतना काम किया और नाम कमाया कि लोग हॉकी में उनके योगदान को भूल ही गए.
उन्होंने भारतीय संविधान सभा के सदस्य के रूप में योगदान दिया , संविधान में आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया, राजनीती में लम्बी पारी खेली, झारखण्ड को अलग राज्य बनाने की बात उठाई और बिहार में खेलों के विकास की दिशा में योगदान दिया. 1938 में उन्होंने अखिल भारतीय आदिवासी महासभा की स्थापना की.
यही आदिवासी महासभा 1949 में ‘झारखण्ड पार्टी’ नामक राजनैतिक दल के गठन का आधार बनी. 1952 के चुनाव में बिहार विधान सभा में 34 और लोक सभा में 4 सीट जीतकर झारखण्ड पार्टी बिहार में मुख्य विपक्षी दल बन गई जो अगले 15 वर्षों तक इसी भूमिका में रही – 1957 और 1962 के चुनावों में क्रमशः 30 विधानसभा/6 लोकसभा सीटऔर 20विधानसभा/5लोकसभा सीट जीतकर.
जयपाल सिंह मुंडा स्वयं तीन बार – 1952, 1957 और 1962 में खूंटी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित होकर संसद पहुंचे.
छोटा नागपुर के आदिवासियों के लिए जयपाल सिंह मुंडा ‘मरङ गोमके’ यानी महान नेता थे. संविधान सभा ने सरकारी नौकरी और विधायी मंडलों में जनजातियों के आरक्षण का प्रावधान रखा तो इसमें जयपाल सिंह के प्रयत्नों का ही नतीजा था.[6]
20 मार्च 1970 को दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांस ली.
खेलों पर विशी सिन्हा के कॉलम के अन्य लेख
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स्रोत
[1] ध्यानचन्द , गोल: ऐन ऑटोबायोग्राफी , स्पोर्टस्टार ,2018, पृष्ठ सं. 64
[2] जयपाल सिंह, लो बिर सेंदरा: एन ऑटोबायोग्राफी, सम्पादक – रश्मि कात्यायन, प्रभात खबर पब्लिकेशन्स, राँची, 2004, पृष्ठ सं. 4
[3] सी.डी. पार्थसारथी, इंडियन हॉकी: राइज एन्ड फॉल, स्पोर्ट एन्ड पास्टटाइम, 16 फ़रवरी, 1963
[4] ध्यानचन्द , गोल: ऐन ऑटोबायोग्राफी , स्पोर्टस्टार ,2018, पृष्ठ सं. 65
[5] जयपाल सिंह, लो बिर सेंदरा: एन ऑटोबायोग्राफी, सम्पादक – रश्मि कात्यायन, प्रभात खबर पब्लिकेशन्स, राँची, 2004, पृष्ठ सं.38
[6] रामचन्द्र गुहा, इंडिया आफ़्टर गांधी: द हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड’स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी, पिकैडर, 2007, पृष्ठ सं.115-116
विश्वरंजन हैं तो क़ानून के प्रोफेशनल लेकिन मन रमता है खेलों और क्राइम फिक्शन में। कई किताबें लिखी हैं और ढेरों लेख।