गांधी और भगत सिंह की फाँसी
यह बहस उस दौर से आजतक चलती आ रही है कि गांधी ने भगत सिंह को फाँसी से बचाने के लिए कोशिशें कीं या नहीं।
थोड़ी देर गोडसे और उसकी तरह सोचने वालों को छोड़ भी दें तो बाक़ी जो लोग यह सवाल करते हैं वे दो चीज़ें मानकर चलते हैं। पहली तो यह कि गांधी इतने शक्तिशाली थे कि वह अंग्रेज़ों के शासन में जो चाहते वह करा लेते। दूसरी यह कि गांधी का दिल इतना बड़ा था कि अपने विचारों के ठीक उलट चलने वाले की फाँसी पर भी द्रवित हो जाता। पहला भरोसा एक भ्रम है, दूसरा हक़ीक़त।
अक्सर बात इरविन समझौते की की जाती है। कहा जाता है कि गांधी इसमें भगत सिंह की रिहाई की शर्त रख देते तो भगत सिंह छूट जाते।
हक़ीक़त यह है कि अगर वह ऐसी शर्त रखते तो बस समझौता टूटता। यह समझने के लिए एक उदाहरण काफी है। गांधी ने इसमें एक शर्त जोड़नी चाही कि असहयोग आन्दोलन में कांग्रेस कार्यकर्ताओं और आम लोगों पर जो पुलिसिया बर्बरता हुई है उसमें पुलिस की भूमिका के लिए एक जाँच कमीशन बिठाया जाए। इसके लिए उनके सहयोगियों ने भी बहुत दबाव डाला था। लेकिन इर्विन नहीं माने और गांधी को यह माँग वापस लेनी पड़ी।
कारण यह कि बम्बई के गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स सहित सात अन्य ब्रिटिश गवर्नर वायसराय को धमकी दे चुके थे कि अगर ऐसा जाँच कमीशन बना तो वह इस्तीफ़ा दे देंगे।[i] यहाँ यह याद कर लेना ज़रूरी है कि गांधी के नमक सत्याग्रह के दौरान इसी वायसराय इर्विन की पुलिस ने ऐसा दमन किया था जिसे याद करते हुए न्यूयॉर्क टेलीग्राम के संवाददाता वेब मिलर ने लिखा था – बाईस देशों की अठारह साल की अपनी रिपोर्टिंग में मैंने बहुत सारे आन्दोलन, दंगे, सड़क की लड़ाइयाँ और विद्रोह देखे हैं। लेकिन मैंने धरसाना के नमक सत्याग्रह के दमन जैसे भयावह दृश्य कभी नहीं देखे।[ii]
भगत हमारे हीरो हैं, लेकिन ब्रिटिश सत्ता के लिए इसके ठीक उलट
भगत सिंह हर भारतीय के हीरो हैं। हमारे क्रांतिकारी इतिहास के सबसे चमकदार सितारे। हमारे गौरव। लेकिन ब्रिटिश शासन के लिए तो वह इसके ठीक उलट थे। एक युवा पुलिस अधिकारी की हत्या करने वाले। संसद में बम फेंकने वाले। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले।
उस क्रांतिकारी आन्दोलन के नेता जिसके सदस्यों ने एक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका था। जिन वीरतापूर्ण कार्यवाहियों के लिए वह हमारे हीरो हैं ठीक उन्हीं कार्यवाहियों के लिए ब्रिटिश शासन के समक्ष वह एक ख़तरा थे, एक अपराधी। पंजाब की ब्रिटिश पुलिस अपने दो साथियों की हत्या करने वाले को किसी हाल में छोड़ने को तैयार नहीं थी। जिस समय गांधी पर दबाव पड़ रहा था भगत सिंह को बचाने का ठीक उसी समय पंजाब के पुलिस अफ़सर लार्ड इर्विन पर दबाव बना रहे थे कि अगर भगत सिंह की फाँसी माफ़ की गई तो वे इस्तीफ़ा दे देंगे।
उस समय भारत में मौजूद लन्दन के न्यूज़ क्रॉनिकल के वरिष्ठ संवाददाता और इर्विन के क़रीबी बर्नेस लिखते हैं – ‘वायसराय के लिए यह बेहद मुश्किल परिस्थिति थी…अगर वह भगत सिंह की फाँसी माफ़ कर देते तो संभव था कि पंजाब का हर पुलिस प्रमुख इस्तीफ़ा दे देता।’ द पीपल ने भी 22 मार्च 1931 को लिखा था – ‘पंजाब के कुछ अधिकारी लार्ड इर्विन पर भगत सिंह की फाँसी के लिए ज़ोर डाल रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि कुछ अधिकारियों ने इस्तीफ़े तक की धमकी दी है।’[iii]
पहले ही गांधी और अन्य सत्याग्रही नेताओं को रिहा कर ब्रिटिश सरकार की नाराज़गी झेल रहे इर्विन के लिए लन्दन से भी समर्थन की कोई उम्मीद नहीं थी।
ऐसे में वह गांधी के कहने से भगत सिंह को माफ़ी देने जैसा क़दम कैसे उठा सकता था? हमें वह सरकारी पाक्षिक रिपोर्ट याद रखनी चाहिए जिसमें लिखा गया था – गांधी की भगत सिंह और उनके साथियों को बचा पाने में विफलता कई लोगों के इस दृष्टिकोण की पुष्टि करती है कि दिल्ली में उनकी जीत उतनी बड़ी नहीं जितना माना जा रहा था।[iv]
क्या भगत सिंह माफ़ी चाहते थे?
ट्रिब्यूनल में जब उनके पिता ने क़ानूनी सहायता के लिए डिफेन्स कमेटी बनाई तो भगत ने इसका तीख़ा विरोध किया था। अपने लिए किसी माफ़ी की जगह उन्होंने साफ़ कहा था कि हमने ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा है तो हमें युद्धबंदियों की तरह गोली मारी जाए। किसी भी क्षमायाचना के वह पूरी तरह से ख़िलाफ़ थे। वह सावरकर तो थे नहीं कि जेल और फाँसी के डर से माफ़ी मांग लेते या अपने विचार बदल लेते।
सवाल यह भी है कि अहिंसा को जीवन भर धर्म की तरह पालित करने वाले गांधी ऐसी शर्त कैसे रख सकते थे?
सिर्फ़ मानवीय आधार पर गांधी भगत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ कराने की कोशिश कर सकते थे और इस आधार पर उन्होंने कोई कसर न छोड़ी। 18 फ़रवरी को उन्होंने इर्विन से कहा –
यह मैं निश्चित रूप से कहूंगा कि उनके विचार सही नहीं है लेकिन भगत सिंह बिला शक़ एक बहादुर आदमी है। बहरहाल, मृत्यदंड की बुराई यह है कि यह एक व्यक्ति को सुधरने का मौक़ा नहीं देता। मैं यह मुद्दा आपके सामने एक मानवीय आधार पर रख रहा हूँ और मेरी इच्छा है कि इस आदेश को टाल दिया जाये अन्यथा देश में अनावश्यक उथल-पुथल हो सकती है। अगर आपकी जगह मैं होता तो उन्हें रिहा कर देता लेकिन सरकारों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।[v]
इसके बाद भी गांधी लगातार कोशिश करते रहे।
इर्विन ने अपने संस्मरण में लिखा है –
गांधी ने कहा कि उन्हें डर है कि अगर भगत सिंह के मृत्युदंड के बारे में मैंने कुछ नहीं किया तो समझौता टूट सकता है। मैंने कहा इसका दुःख मुझे भी होगा लेकिन मेरे लिए यह बिलकुल असंभव है कि भगत सिंह के मृत्युदंड के मामले में कोई छूट दे सकूँ।[vi]
यहाँ यह भी ध्यान में रखना होगा कि पुलिसवालों की हत्या का मामला आ जाने के बाद गांधी को कांग्रेस के बाहर से किसी का भी इस मुद्दे पर समर्थन नहीं मिला। असेम्बली बम काण्ड में भगत सिंह के लिए जेल में सुविधाओं का समर्थन करने वाले जिन्ना हत्या का मामला आने पर पूरी तरह ख़ामोश हो गए तो इसी वजह से जालियाँवाला बाग़ काण्ड के बाद नाईटहुड लौटा देने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं की। भगत सिंह की फाँसी के बाद पेरियार ने अपने अखबार में उनपर लेख लिखा[vii] डॉ.अम्बेडकर ने श्रद्धांजलि दी। लगातार भगत सिंह का समर्थन कर रहे मोतीलाल नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और क्रांतिकारी आन्दोलन का प्रभाव सीमित होने के कारण पंजाब से बाहर कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खड़ा हुआ।
23 मार्च को गांधी ने इस मामले में वायसराय को अंतिम ख़त लिखा –
…आमराय, सही हो या ग़लत फाँसी की सज़ा को उम्रक़ैद में बदल देने की है। जब कोई सिद्धांत दाँव पर न लगा हो तो अक्सर आमराय का सम्मान करना कर्तव्य हो जाता है।
वर्तमान मामले में अगर फाँसी की सज़ा बदली गई तो उम्मीद यही है कि शान्ति स्थापित होगी। अगर फाँसी हुई तो निश्चित रूप से शान्ति ख़तरे में पड़ेगी।
इसे देखते हुए मैं आपको यह सूचित कर रहा हूँ कि क्रांतिकारी पार्टी ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि अगर इन ज़िंदगियों को बख्श दिया जाए तो पार्टी हिंसा की राह छोड़ देगी।
…फाँसी एक न बदले जा सकने वाला कृत्य है। अगर आप सोचते हैं कि निर्णय में ज़रा भी खामी है तो मैं निवेदन करूंगा कि फ़िलहाल इसे टाल दीजिये ताकि आगे इसकी समीक्षा की जा सके। अगर मेरा होना ज़रूरी है तो मैं वहाँ आ सकता हूँ। हालाँकि मैं बोल नहीं सकूंगा[1] लेकिन मैं वह लिख दूंगा जो मैं चाहता हूँ, ‘दया कभी बेकार नहीं जाती।’[2][viii]
लेकिन ब्रिटिश सरकार तय कर चुकी थी और जब गांधी यह ख़त लिख रहे तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु इंक़लाब जिंदाबाद के नारों के साथ फाँसी पर चढ़ चुके थे।
इससे अधिक गांधी क्या कर सकते थे?
भगत सिंह के साथी रहे चमनलाल ने, जिन्होंने उस दिन कराची जाने वाली ट्रेन में रास्ते भर गांधी का अपमान किया था और गांधी मुस्कुराकर सुनते रहे थे, अपने संस्मरण में लिखा है – गांधी ने मुझसे कहा- ‘मैंने वह सबकुछ किया जो कर सकता था लेकिन पंजाब से पड़ने वाले दबाव के चलते इर्विन मज़बूर थे।’
बाद में भिक्षु बन गए चमनलाल संस्मरण के अंत में कहते हैं – ‘यह ज़रूरी है कि भारत के लोग और इतिहासकार यह जानें कि यह गांधीजी नहीं थे जो असफल हुए थे।’[ix]
भगत को फाँसी तक पहुँचाने वाले कोई और नहीं उनके अपने संगठन के ग़द्दार थे जिन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने समर्पण कर दिया था।
जवाब देने के बाद कुछ सवाल भी पूछने होंगे।
थोड़ा आश्चर्यजनक है कि हिंसा की राह पर भरोसा करने वाले विनायक दामोदर सावरकर से यह सवाल कोई नहीं पूछता कि उन्होंने भगत सिंह को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? बचाना छोड़िये उन्होंने भगत सिंह के समर्थन में एक बयान क्यों नहीं जारी किया?
भगत सिंह का नाम लेकर गांधी को कोसने वाले गोडसे ने उस समय किसी आन्दोलन में हिस्सा क्यों नहीं लिया? क्यों नहीं खडा कर दिया इनलोगों ने महाराष्ट्र में एक बड़ा आन्दोलन भगत के पक्ष में? कोई लेख तक क्यों नहीं लिखा! क्या कर रहे थे उस समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोलवलकर, हेडगेवार, केतकर, मुंजे जैसे तमाम नेता?
क्या उनके लिए सिख भगत सिंह या उनके साथ फाँसी पर चढ़ने वाले ‘हिन्दुओं’ की जान की कोई क़ीमत नहीं थी? क्यों गोडसे के अख़बार पर शहीद भगतसिंह का नहीं माफ़ी मांगकर रिहा हुए सावरकर का फोटो लगता था? क्यों उस अख़बार में कभी एक लेख नहीं छपा भगत सिंह पर और जब अदालत में गांधी को बदनाम करना हुआ तो भगत सिंह याद आये?
जिसने अपना दिल-दिमाग गिरवी नहीं रख दिया है, इसके उत्तर ख़ुद ढूंढ लेगा।
[1] सोमवार उनका मौनव्रत होता था
[2] यह गांधी ने बाइबल से कोट किया था. इर्विन ख़ुद एक धार्मिक व्यक्ति थे और गांधी परोक्ष रूप से उनसे उस आधार पर माफ़ी की अपील कर रहे थे.
[i] देखें, पेज 62-63, गाँधी एंड भगत सिंह, वी एन दत्त, रूपा,दिल्ली– 2008
[ii] देखें, पेज 63, गाँधी एंड हिज़ क्रिटीक्स, बी आर नन्दा, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली- 1997
[iii] देखें, वही, पेज 64
[iv] देखें, अध्याय 7, अ रिवोलुश्नरी हिस्ट्री ऑफ़ इंटरवॉर इण्डिया, कामा मैकलियान, पेंगुइन, दिल्ली -2015 (किंडल संस्करण)
[v] देखें, पेज 155, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 51 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[vi] देखें, पेज 44, गाँधी एंड भगत सिंह, वी एन दत्त, रूपा,दिल्ली– 2008
[vii] देखें, http://tehelkahindi.com/a-long-report-on-how-bhagat-singh-is-getting-politicized-in-current-times/2/ (आख़िरी बार 1 अगस्त, 2020 को देखा गया)
[viii] देखें, पेज 290, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 51 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[ix] देखें, अध्याय 7, अ रिवोलुश्नरी हिस्ट्री ऑफ़ इंटरवॉर इण्डिया, कामा मैकलियान, पेंगुइन, दिल्ली -2015 (किंडल संस्करण)
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री