आज़ाद की शहादत और जवाहरलाल नेहरू
आज़ाद की शहादत
27 फरवरी को आज़ाद अल्फ्रेड पार्क के लिए निकले। उस दिन वह सुखदेव राज से मिलने गए थे।
उन्होंने (सुखदेव राज ने) अपने संस्मरण में लिखा है –
27 फरवरी को प्रातः जलपान करने के बाद जब मैं साइकल से चला तो भैया (आज़ाद) रास्ते में निश्चित कार्यक्रम के अनुसार मिले। उस दिन उनके साथ दो आदमी और थे। जब मैं भैया की ओर बढ़ा तो उनके आदेश पर वे दोनों आदमी वहाँ से चले गए। बाद में भैया ने मुझे बताया कि वे यशपाल और सुरेन्द्र पांडे थे।
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जिस समय भैया से यह चर्चा हो रही थी उसी समय थॉर्नहिल रोड पर म्योर कॉलेज के सामने एक व्यक्ति जाता हुआ दिखाई दिया।
बातचीत का क्रम रोककर भैया ने कहा – वह वीरभद्र जा रहा है। शायद उसने हमें देखा नहीं। मैंने गर्दन घुमाकर देखा तो वह आदमी आगे बढ़ चुका था। मैंने वीरभद्र को कभी नहीं देखा था।
बातचीत करते-करते हमने पार्क का पूरा चक्कर लगा डाला था। पार्क के अंदर जब हम घुसे तो एक आदमी पुलिया के ऊपर बैठा हुआ दातून कर रहा था। उसने बड़े ध्यान से भैया की ओर देखा। मैंने भी उसे घूरा और भैया से उसके बारे में शंका प्रकट की। मैं एकबार फिर उसे देखने गया तब वह दूसरी ओर देख रहा था।
अभी भैया से बातें हो रही थीं कि एक एक मोटर सामने सड़क पर रुकी जिसमें से एक अंग्रेज अफ़सर और दो कांस्टेबल सादे कपड़ों में उतरे। हम लोगों का माथा ठनका। गोरा अफ़सर हाथ में पिस्तौल लिए हमारी तरफ़ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से पूछा – तुम लोग कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?
भैया का हाथ अपनी पिस्तौल पर गया और मेरा अपनी। गोरे ने जैसे ही बातें शुरू कीं हम दोनों ने पिस्तौल खींच ली और गोली से उत्तर दिया। मगर गोरे अफ़सर की पिस्तौल पहले छूटी। गोली भैया की जांघ में लगी।
आज़ाद की गोली गोरे के कंधे में लगी। गोरे की गोली से भैया की जांघ की हड्डी चूर-चूर हो गई। एक गोली उनकी दाहिनी भुजा में लगी। फिर भी उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। उनका बायाँ हाँथ ही बिजली बनकर कौंध उठाया था। उनकी पिस्तौल गरजी और नॉट बावर की कलाई टूट गई। पिस्तौल उसके हाथ से गिर पड़ी। उसने मोटर से भागने की कोशिश की लेकिन इसके पहले ही भैया की गोली से उसका टायर बेकाम हो चुका था।
नॉट बावर आगे की कहानी लिखता है –
मेरी भुजा पर चोट थी इस कारण मैं गोली नहीं चला सकता था किन्तु आज़ाद बराबर गोली दागते रहे। अंत में आज़ाद चित्त लेट गए.. मुझे यह संदेह था कि आज़ाद पुलिसवाले को धोखा दे रहे हैं। इसी समय एक पुलिस कांस्टेबल पीछे से या पहुंचा। मैंने उसे गोली मारने के लिए कहा और उसने ऐसा ही किया। मुझे जब पक्का विश्वास हो गया कि आज़ाद मर गए हैं तब मैं उनके पास गया..
उनके एक और साथी सुरेन्द्र शर्मा बताते हैं –
आज़ाद का शव पुलिस के अधिकारियों ने हम लोगों के मांगने पर भी नहीं दिया। उनके एक सम्बन्धी द्वारा पुलिस की देखरेख में गंगा किनारे अंतिम संस्कार कराया गया।
इसके कुछ दिन बाद कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में जो सभा हुई उसमें जवाहरलाल नेहरू ने उनके अपूर्व शौर्य और देशभक्ति की सराहना करते हुए कहा – इस लड़के की कुर्बानी से आज इलाहाबादवालों का सर फिर से ऊंचा हो गया है।
कौन था आज़ाद की मौत का ज़िम्मेदार –
सुखदेव राज सहित आज़ाद के अधिकतर साथियों ने वीरभद्र तिवारी का नाम लिया है जो आज़ाद की पार्टी का सदस्य था लेकिन नॉट बावर के प्रभाव में मुखबिर बन गया था।
इनमें से किसी ने कभी जवाहरलाल नेहरू का इस संदर्भ में जिक्र भी नहीं किया है। इसके अलावा आज़ाद की नेहरू से इस दौरान न कोई मुलाक़ात हुई थी न बात। उनसे फरवरी में मिलने आज़ाद नहीं बल्कि यशपाल गए थे।
पहले भी भगत सिंह की फाँसी हो या दूसरे क्रांतिकारियों की हत्या और गिरफ़्तारी, अक्सर उसके पीछे उनकी ही पार्टी के गद्दारों का हाथ होता था क्योंकि अक्सर ठिकाने बदलने के कारण दल के सदस्यों के अलावा किसी और के पास उनके कार्यक्रमों की कोई जानकारी नहीं होती थी।
आज कुछ लोग निहित स्वार्थ से नेहरू को बदनाम करते हुए यह तथ्य छिपा देना चाहते हैं कि मोतीलाल जी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ने ही हिंसा के विरुद्ध होने के बावजूद क्रांतिकारियों की अक्सर सहायता की थी। आज देशभक्ति का दावा करने वाले तो तब अंग्रेजों के साझेदार थे।
सभी संस्मरण सुधीर विद्यार्थी द्वारा संपादित पुस्तक ‘क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की जीवन कथा’ से।
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री