कैसे हिटलर ने किया लोकतंत्र का अंत!
आज जब यूरोप सहित दुनियाभर में में चरम दक्षिणपंथ के उभार की संभावनाएँ दिख रही हैं, एक बार फिर हिटलर को याद किया जाने लगा है।
अखबारों में लेख आ रहे हैं, किताबें लिखी जा रही है, पत्रिकाओं में सचित्र विवरण आने लगे हैं। संभवतः अडोल्फ़ हिटलर को भुलाना यूरोप या दुनिया के लिए कभी मुमकिन न हो। कारण सिर्फ़ यह नहीं कि हिटलर एक निरंकुश तानाशाह था, बल्कि यह कि वह जनता द्वारा चुना गया और पसंद किया गया नेता था। उसने तख़्ता-पलट नहीं किया, बल्कि लोकतंत्र के माध्यम से गद्दी तक पहुँचा।
वह लोकतंत्र की एक ऐसी संभावना है जो लोकतंत्र का ही गला घोंट सकती है। ऐसी संभावना से यूरोप या दुनिया का घबराना लाज़मी है।
बेंजामिन कार्टर हेट अपनी पुस्तक ‘द डेथ ऑफ डेमोक्रेसी: हिटलर्स राइज टू पावर’ में सिलसिलेवार ढंग से एक बार फिर उन घटनाओं को दोहराते हैं, जिनके कारण हिटलर सत्ता पर काबिज हुआ।
कैसे बनी नाज़ी पार्टी?
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के उपरांत 1919 में एंटन ड्रेक्सलर ने जर्मन श्रमिक दल (German Worker’s Party) की स्थापना की[1]। अगले ही वर्ष 24 फरवरी 1920 को पार्टी के युवा नेता अडोल्फ़ हिटलर के एक भाषण के बाद दल के नाम में राष्ट्रवादी शब्द जोड़ दिया गया। अब यह राष्ट्रवादी जर्मन श्रमिक दल (नाज़ी)[2] बन गयी।
1921 में अडोल्फ़ हिटलर ने धीरे–धीरे अन्य नेताओं को किनारे कर इसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया।
दरअसल हिटलर अपने भाषणों से ख़ासा लोकप्रिय हो रहा था। एक आपसी विवाद में जुलाई 1921 में हिटलर ने दल से इस्तीफ़ा दे दिया। ड्रेक्सलर को लगा कि उनका मुख्य वक्ता अगर दल छोड़ कर चला जाए, तो यह अच्छा नहीं होगा। उसने हिटलर से जब मान-मनौवल की तो उसने शर्त रखी कि उसे दल का नेतृत्व दिया जाए (यानी ड्रेक्सलर पद छोड़ दें)। ऐसा ही किया गया।
1923 में हिटलर ने अलोकतांत्रिक रूप से म्यूनिख़ में नाज़ी मार्च करते हुए तख़्ता-पलट का असफ़ल प्रयास किया। यह एक सुनियोजित नौटंकी से अधिक कुछ नहीं थी।
हिटलर समेत अन्य नाज़ियों को जेल में बंद कर दिया गया। नाज़ी दल और हिटलर पर लगे इस अभियोग को खूब मीडिया कवरेज मिला। हिटलर की चरम राष्ट्रवादी दलीलें अखबारों में छपी, और वह अचानक कुछ रूढ़िवादी खेमों में लोकप्रिय होने लगा।
हालाँकि इसके बाद भी 1924 के चुनाव में नाज़ी पार्टी को महज 3 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन हिटलर को लगने लगा कि वह लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आ सकता है।
जेल में रह कर और वहाँ से छूटने के बाद हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मीनकैम्फ’ (मेरा संघर्ष) पूरी कर ली, जो 1925-26 में छप कर आयी।
लेकिन, 1928 के चुनाव में नाज़ी मत प्रतिशत घट कर 2.6 प्रतिशत रह गया। ऐसा लग रहा था कि नाज़ी खत्म हो जाएँगे। तभी कुछ ऐसा हुआ जिससे दुनिया हिल गयी!
नाज़ी पार्टी का तेजी से उभार
1929 में दुनिया में आर्थिक महामंदी (Great Depression) आयी!
उस समय जब फैक्ट्रियाँ बंद पड़ने लगी, लोग सड़क पर आने लगे, तो नाज़ी प्रोपोगैंडा ने जोर पकड़ा। प्रथम विश्व युद्ध और वर्साय संधि की समीक्षा की जाने लगी। यहूदियों, मार्क्सवादियों और सत्ताधारी लोकतांत्रिक समाजवादियों को जर्मनी की दुर्गति का जिम्मेदार ठहराया गया।
हिटलर यह जानता था कि यहूदी-विरोध जर्मनी के कुछ नस्लीय लोगों के वोट दिला सकता है, मगर उदारवादियों के नहीं। चूँकि उसे उन जर्मनों के भी मत चाहिए थे, उसने आर्थिक मसलों पर बात करनी शुरू की। जर्मनी को आर्थिक-विकास पथ पर ले जाने के तरीके बताए। विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप को घटाने की बात कही।
देश की स्थिति को देखते हुए कमजोर गठबंधन की सरकार ने 1930 में मध्यावधि चुनाव घोषित किए। उसमें अचानक नाज़ी पार्टी का मत प्रतिशत बढ़ कर 18.1 प्रतिशत हो गया, और वह समाजवादी लोकतांत्रिक दल के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल बन कर उभरा। दो वर्ष के अंदर ही सोलह प्रतिशत मत का बढ़ जाना साधारण बात नहीं थी।
चूँकि संसद में अब कोई भी दल पूर्ण बहुमत में नहीं था, और न ही कोई गठबंधन स्थायी सरकार बनाने की हालत में लग रहा था, तो राष्ट्रपति पॉल हिंडेनबर्ग ने कमान अपनी हाथ में ले ली।
हिंडेनबर्ग प्रथम विश्व युद्ध के समय फ़ील्ड मार्शल रहे थे। संविधान का अनुच्छेद 48 उन्हें यह अधिकार देता था कि आपातकाल के समय वह संसदीय लोकतंत्र को किनारे कर सकते हैं। उन्होंने सेंटर पार्टी के हेनरिक ब्रूनिंग को चांसलर नियुक्त किया, जो आर्थिक सुधार के लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाए।
जर्मनी की जनता को यह लगने लगा कि अब लोकतंत्र के दिन ढल चुके हैं। दुनिया में यह लहर चलने लगी थी कि अब दो ही हल हैं– फ़ासीवाद या साम्यवाद।
हालाँकि लोकतंत्र पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। दो साल बाद जर्मनी में चुनाव तय थे और नाज़ी पूरे देश में प्रचार कर रहे थे। उनके दल का एक अर्धसैनिक संगठन था- SA (Sturmabteilung), जिसकी सदस्यता बढ़ती जा रही थी। वे भूरी कमीज वाले (Brownshirts) साम्यवादियों और यहूदियों पर हमला किया करते, जिसमें जनता भी साथ देती।
1932 के चुनाव में नाज़ी दल को 37.3 प्रतिशत मत मिले, और सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। दूसरी तरफ़, कम्युनिस्ट पार्टी के भी मत प्रतिशत पहले से बढ़े, और उन्हें 14.3 प्रतिशत मत मिले। समाजवादी लोकतांत्रिक दल दूसरे स्थान पर थी, और कोई भी दल बहुमत में नहीं था। न ही इन तीनों के मध्य गठबंधन संभव था।
राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने बिना कोई सरकार बनाए फ्रांज वोन पापेन को अंतरिम चांसलर बने रहने दिया। उसी वर्ष नवंबर में दुबारा चुनाव हुए। नाज़ी पुनः 33.1 प्रतिशत मतों से पहले स्थान पर रहे। लेकिन कम्युनिस्टों का मत प्रतिशत बढ़ कर 16.9 प्रतिशत हो गया।
पहले दो महीने (दिसंबर 1933-जनवरी 1934) कुर्ट वोन श्लाइसर को चांसलर बनाया गया। 30 जनवरी 1933 को हिंडेनबर्ग ने अडोल्फ़ हिटलर को चांसलर नियुक्त कर दिया। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हिटलर जनता में लोकप्रिय था और उम्मीद थी कि वह स्थायित्व ला सकता है। हिटलर ने चांसलर बनने के अगले ही दिन मार्च 1933 में चुनाव की घोषणा कर दी, जो एक लोकतांत्रिक कदम था।
हिटलर का तानाशाह बनना
चुनाव से ठीक पूर्व 27 फ़रवरी को जर्मनी के संसद ‘रीकस्टाग’ में आग लग गयी!
इस आगजनी के लिए एक बेरोज़गार डच युवक मैरिनस वान डर लुब्बे को गिरफ़्तार किया गया। चूँकि यह युवक कथित रूप से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा था, इस देशद्रोही घटना के लिए कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराया गया और लगभग चार हज़ार कम्युनिस्टों को गिरफ़्तार किया गया। हालाँकि अटकलें यह भी थी कि नाज़ीयों ने स्वयं यह आग लगायी, मगर उस वक्त इस घटना ने नाज़ीयों का पलड़ा भारी कर दिया।
मार्च 1933 के चुनाव में नाज़ी पार्टी को 43.9 प्रतिशत मत मिले। कम्युनिस्टों को 12.3 प्रतिशत। हालाँकि हिटलर को अब भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, लेकिन यह मामूली तकनीकी मसला रह गया था। संसद में आग लगने के अगले दिन ही हिटलर ने राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग से ऐसे अध्यादेश (Enabling Act,1933) पर हस्ताक्षर करवा लिए थे जिससे चांसलर की ताक़त बढ़ गयी थी। इतना ही नहीं, नाज़ी अर्धसैनिक संगठन SA के 4,45,000 सदस्य हो गए थे जो यहूदियों और अपने विरोधियों पर नकेल कसने लगे थे।
नवंबर 1933 के चुनाव में सभी मुख्य विपक्षी दलों (समाजवादी लोकतांत्रिक दल और कम्युनिस्ट पार्टी) से चुनाव लड़ने का अधिकार ही छीन लिया गया। अकेली नाज़ी पार्टी और कुछ उसके मित्र चुनाव लड़े। नतीजतन नाज़ीयों को 92.1 प्रतिशत मत मिले।
विपक्षी दलों को निपटाने के बाद हिटलर को अपने ही भूरे क़मीज़ वाले संगठन SA से खतरा महसूस होने लगा। उसके मुखिया और हिटलर के पुराने वरिष्ठ सहयोगी रहे अर्न्स्ट रोम को रास्ते से हटाना जरूरी थे। वहीं, हिटलर के तीन साथियों का महत्व बढ़ गया था- जोसेफ़ गोएबल्स जो नाज़ी प्रोपोगैंडा संभालता, हर्मन गोरिंग जो गृहमंत्री था और हेनरिक हिम्लर जिसके हाथ में सुरक्षा एजेंसी SS (Schutzstaffel) थी।
उन्होंने एक व्यूह रचा जिसे ‘लंबे चाकूओं की रात’ (Night of long knives) कहते हैं। 30 जून से 2 जुलाई के मध्य अपने विरोधियों की हत्या की गयी।
पूर्व चांसलर कुर्ट वॉन श्लाइसर भी मारे गए।
SA के मुखिया अर्न्स्ट रोम को गिरफ़्तार कर लाया गया, और उसे आत्महत्या करने का विकल्प दिया गया। जब उसने मना किया तो 1 जुलाई 1934 को उसे हिम्लर के इशारे पर गोली मार दी गयी। इस तरह नाज़ियों ने अपने ही अर्धसैनिक संगठन के नेता को खत्म कर दिया गया।
कुछ ही समय बाद 87 वर्ष के बूढ़े राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग की भी मृत्यु हो गयी। अब हिटलर ही सर्वेसर्वा हो गया। पुनः हिटलर ने ‘लोकतांत्रिक’ चेहरा दिखाते हुए 19 अगस्त 1934 को जनमत-संग्रह कराया और 89.3 प्रतिशत मतों से स्वयं को ‘फ्यूरर’ (तानाशाह ) नियुक्त किया।
हेट्ट चर्चिल के शब्दों का प्रयोग करते हुए लिखते हैं- ‘यह एक अंत की शुरुआत (Beginning of the end) थी’!
मुख्य संदर्भ-
हेट, बेंजामिन कार्टर, द डेथ ऑफ डेमोक्रेसीः हिटलर्स राइज टू पावर, विंडमिल बुक्स, पेंगुइन रैंडम हाउस, लंदन, 2018; Amazon Link : Hitler’s Rise to Power
[1] यह पार्टी Deutsche Arbeiterpartei (DAP) कहलाती थी।
[2] Nationalsozialistische Deutsche Arbeiterpartei (NSDAP) को ही Nazi नाम से जाना जाता है।
पेशे से डॉक्टर। नार्वे में निवास। मन इतिहास और संगीत में रमता है। चर्चित किताब ‘कुली लाइंस’ के अलावा प्रिन्ट और किन्डल में कई किताबें