एक सेल्फमेड विमेन थीं पंडिता रमाबाई
अंग्रेजी की पहली भारतीय महिला उपन्यासकार और सम्पादक- द इंडियन लेडीज़ मैगज़ीन –कमला सत्यानन्दन ने कहा था “रमाबाई भारत की नई स्त्री का प्रतिनिधित्व करती हैं: एक विचारक…एक नेता…जिसका नाम उसकी हर भारतीय बहन के घर में प्रतिष्ठापित करने योग्य है।”[i]
अभी हाल में जानी-मानी लेखक, कवि और आलोचक सुजाता द्वारा लिखित उनकी जीवनी विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई का प्रकाशन हुआ है।
उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रस्तुत है उसी से एक अंश- सं
एक सेल्फ मैड विमेन थी पंडिता रमाबाई
आज से लगभग सौ साल पहले 5 अप्रैल 1922 को पंडिता रमाबाई इस दुनिया से विदा हो गई। मृत्यु के कुछ साल पहले से ही दुनिया ने उन्हें भुलाना शुरू कर दिया था। लेकिन जब रमाबाई को इतिहास के बन्द तहख़ानों के वर्जित क्षेत्र से बाहर लाया जा सका तो उनके जीवन ने हमें चौंका दिया।
उनकी किताब द लाइफ़ आंफ़ हाई कास्ट हिन्दू वुमन का पाठ सामने आया तो भारत में स्त्रीवाद के अतीत की तस्वीर जैसे सुधारकों द्वारा बनाई गई थी, प्रश्नेय हो गई। पंडिता रमाबाई अपने समय से बहुत आगे सोचती थी और जितना भी उनके जीवन को आध्यात्मिक आवरणों मेम ढका जाए, मुख्यधारा से उनके गायब हो जाने की मूल वज़ह उनका प्रखर स्त्रीवादी व्यक्तित्व ही था।
अन्तर्जातीय प्रेम विवाह करने वाली, एकल अभिभावक, उद्यमी, ख़तरों से खेलने वाली, स्त्री स्वायत्तता की हिमायती, स्त्री शिक्षा और रोजगार के पक्ष में मज़बूती से खड़ी, न जाने कितने नये विचारों की प्रणेता रमाबाई का जन्म ही मानो नवनिमार्ण और सुधार के लिए हुआ था।
सच्चे अर्थों में अगर किसी को सेल्फ मैड कहा जा सकता है तो वह रमाबाई को। मेरे पास अपना एक दिमाग है और अपनी आज़ादी, जिसे मैंने मुश्किलों से हासिल किया है, रमाबाई को यह बात गौरव से भर देती थी।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने किया रमाबाई के साथ विश्वासघात
यह सच्चाई रमाबाई के साथ नहीं हुआ कि उन्हें मुख्यधारा के इतिहास से बाहर कर दिया गया बल्कि और भारतीय ईसाइयों जैसे कमला सत्यानन्दन के साथ भी हुआ कि जिन्हें मुख्यधारा इतिहास से बाहर किया गया। इस अर्थ में रमाबाई पंडिता पर बात करना भारती समाज सुधरों के इतिहास में उन्हें एजेंट की तरह देखना है।[ii]
राष्ट्र की उनकी अवधारणा एक रिपब्लिकन नेशन[iii] की है जहां राजा और प्रजा नहीं, ऊंच और नीच नहीं, एकाधिकार और विशेषाधिकार नहीं, जहां मेरा वचन ही है शासन नहीं। जहां सब जाति-उपजाति और जेंडर-भेद में बंटे हुए नहीं हो बल्कि देश में बसनेवाला हर इन्सान बराबर हो। जहां इस बहस की गुंजाइश तक न हो कि फ़लां अधिकार बस फंलां समुदाय के लिए सुरक्षित है।
भारत के लोकतंत्र होने से कहीं पहले, जब राष्ट्रवाद असल में हिंन्दू राष्ट्रवाद की शक्त इख़्तियार कर रहा था, उस वक्त एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना रमाबाई कर रही थी। उनका ईसाई होना उनके अनुसार राष्ट्र से द्रोह नहीं था क्योंकि उनके राष्ट्र के संकल्पना में धर्म था ही नहीं। विवेकानन्द ने रमाबाई को ईसाई हो जाने के लिए विश्वासघाती माना।[iv]
हिंन्दू धर्म का त्याग करने के लिए बी.जी.तिलक ने भी उसे देश का द्रोही ही माना। बहुत से लोग मानते रहे कि रमाबाई के मुख्यधारा परिदृश्य से गायब हो जाने की प्रमुख वजह यहीं थी कि वह न केवल ईसाई हो रही थी बल्कि हिन्दू लड़कियों को भी उसने ईसाई बनाया था।
लेकिन असल में विश्वासघात तो रमाबाई के साथ उस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने किया था जिसके एक स्वायत्त, सबल, समर्थ स्त्री फूटी आंख नहीं सुहाती थी। वह पितृसत्ता जो राष्ट्रवाद का एक हिन्दू संस्करण तैयार कर रही थी।
मनुस्मृति आदेश के नियंत्रण में है भारतीय मर्द
जिस समय यह आख्यान रचा जा रहा था कि भारत में हिन्दू स्त्री पर अत्याचार मुस्लिम आक्रंमणों की वजह से शुरू हुए और उसने पहले तो यहां स्त्रियों की पूजा होती थी और यहां देवता वास करते थे, उस समय मनुस्मृति की आलोचना करते हुए रमाबाई लिख रही थीं स्त्री के बारे में सभी पुरुष कम या ज़्यादा मनु की बातों में विश्वास करते हैं, भले ही वह उनकी माता क्यों न हो, उसे झूठ जितना अपवित्र मानते हैं। वह मनु को उद्धत करती हैं –
दूसरे के घर में विचरण करती हुई मेरी माता अपतिव्रता होती हुई परपुरुष के प्रति लोभयुक्त हुई उससे दूषित माता के रजोरूप वीर्य को मेरे पिता शुद्ध करें, यही पादत्रय स्त्री के व्यभिचार का उदाहरण है(मनु iX,19-20) ऐसे अविश्वास और सामान्यत: स्त्रियों की प्रकृत्ति एवं चरित्र का इतना निम्न मूल्यांकन ही भारत में स्त्रियों को अलग रखने के रिवाज़ से जुड़ा है।
ऐसे अनिष्टकर रिवाज़ मुस्लिम आक्रमण के साथ ज्यादा विस्तृत और गहन अवश्य हुए, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे रिवाज़ छठी सदी से अस्तित्व में हैं। सभी पुरुषों को (मनुस्मृति के) नियमों द्वारा आदेश दिया गया कि वे स्त्रियों को सभी स्वतंत्रताओं से वंचित कर दें-पति आदि आत्मीय जनों को चाहिए कि रात-दिन स्त्रियों को अपने अधीन रखें। अनिषिद्ध विषयों में आसक्त होती हुई स्त्रियों को अपने नियंत्रण में करें।[v]
देश भी ऐसे ही एक नियंत्रण करनेवाले मर्द की तरह व्यवहार करता है। रख्माबाई क केस पूरी दुनिया देख रही थी। जिसतरह उसके पति के पक्ष में समाज इकट्ठा हो रहा था, ब्रिटिश अदालत स्त्री के पक्ष में फैसला करने से डर रही थी यह सब मनु की ही बात को सत्य करता था कि स्त्री पुरुष की वैवाहिक सम्पत्ति[vi] हैं। जैसे घर के गाय, घोड़े, जानवर हैं, ऐसे ही स्त्री भी है। उसकी अपनी कोई इयत्ता नहीं है। अस्तित्व नहीं है। जैसे वह पुरुष की सम्पत्ति है ऐसे ही राष्ट्र की भी और इसलिए उसे भटकने न देना, भटकने पर बहिष्कार और अपमान देना राष्ट्र की जिम्मेदारी है। विवेकानन्द एक जगह लिखते हैं-
हमारी औरतें भले ही बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन वे अधिक पवित्र हैं।[vii]
हमारी औरतें-तुम्हारी औरतें कहकर बात का दम्भ पितृसत्ता का आज और प्रखर है जब साम्प्रदायिकता ने चारों और सर उठा रखा है। हिन्दू-मुसलमान में बंटी हुई जनता कभी लव-जिहाद के शाब्दिक प्रंपंचों से घिर जाती है, कभी-कभी आरम्भिक बर्बर कबीलों के आपसी युद्ध जैसी राजनीति से।
रमाबाई पितृसत्ता के इस अहंकार को, जो स्त्री को सम्पत्ति की तरह निर्जीव वस्तु की तरह देखता है और स्त्री के अभिकर्तृत्व को छीन लेने पर सदा आमाद है, खूब पहचानती थी। मिसेज़ मार्क्स बीं. फुलर की किताब द रांन्ग्स आंफ़ इंडियन विमेनहुड की भूमिका में रमाबाई कहती हैं-
सच बोलने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता होती है जब आप जानते हैं कि पूरा राष्ट्र आपको नीचे गिराने के लिए आपके खिलाफ एक पुरुष के रूप में खड़ा हो जाएगा।[viii]
इसलिए हैरानी नहीं होनी चाहिए कि अपने साथ होने वाले गलत को जानते हुए भी भारतीय स्त्री उसके खिलाफ खड़ी नहीं हो सकती। वह स्पष्ट कहती हैं कि भारत में भी बहुत कम लोग जानते हैं कि असल में पर्दे के पीछे का जीवन क्या है। भारतीय सुधारक स्त्री की वस्तुस्थिति के प्रति उदासीन हैं। भारतीय स्त्रियां स्वयं अपने पतन की सीमा नहीं जानतीं। वे भी जिन्होंने भयानक कष्ट सहे हैं, दुनिया को सच बताने से कतराती हैं, अवसर मिलने पर भी उन्हें अपने और अपने देश के दूसरे देशों की नज़र में कमतर साबित होने का भय रहता है।
रमाबाई को एक युवा विधवा स्त्री बता रही थी कि वैधव्य के किन कष्टों से वह आशंकित रहती है। एक और विधवा युवती जो यह सब सुन रही थी, वह बातचीत खत्म होते ही उसे दूसरे किनारे ले गई और खूब जोर से डांटा कि अपने परिवार ख़ूब जोर-से डांटा कि अपने परिवार और देश की बदनामी कर रही हो!
रमाबाई रोम-रोम से एक स्त्रीवादी थीं
रमाबाई का देश-प्रेम किसी धार्मिक सत्ता के बनाए खांचे में समानेवाला नहीं था। उसे जब अन्याय दिखा, उसने खुलकर ब्रिटिश शासन का विरोध किया।
रमाबाई सम्भवत: वह पहली थीं जिसने हिन्दी को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकृत किए जाने की सिफ़ारिश की। भारत की गुलामी, काले दासों की गुलामी और स्त्रियों की गुलामी को हमेशा समानान्तर रखकर देखने का साहस किया।
सावत्रीवाई फुले और ताराबाई शिन्दे की तरह रमा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दोगलेपन पर लगातार निशाना साध रही थीं। जब उनके अकाल राहत कार्य में तथाकथित हिन्दू राष्ट्रवादी तबका मदद करने की जगह चोट करने के मौके तलाश रहा था। वह लिखती हैं-
वे उन चन्द स्त्रियों के लिए शोक मनाते हैं जिनमें अपने को स्वतंत्र स्त्री घोषित करने और अपने विवेक के अनुसार चलने का साहस है, लेकिन वे उन हजारों लोगों के बारे मेम कुछ नहीं कहते जो हर साल मर जाते हैं या शर्मनाक जीवन जीते हैं।[ix]
रमाबाई को एक सपोर्ट-सिस्टम ईसाई समुदाय में मिला। जब वह भार लौटी थी तो उसे उम्मीद थी कि इस काम में अपने देसवासी मदद करेंगे, लेकिन स्थितियां ही उलट गई। यह सर्पोर्ट-सिस्टम मिला तो एनीबेसेंट को, क्योंकि उन्होंने हिन्दू धर्म में अपना विश्वास दिखाया। भारत में लड़कियों की शिक्षा में उन्होंने महाभारत और रामायण के साथ मनुस्मृति की शिक्षा को जरूरी माना।[x]
एक स्त्री के लिए राष्ट्र का वही अर्थ नहीं हो सकता जो उसके लिए होता है जो 56 इंच के सीने की जय-जयकार करते हैं, हिंसा के चरणों में श्रद्धा से झुक जाते हैं, जिनका धर्म छल का दूसरा नाम है।
स्त्री को अपना सच कहते हुए धर्म, कानून, राष्ट्र जैसे महान संस्थाओं से हमेशा उलझना पड़ा है, पड़ेगा मानो रमाबाई भी यह जतना चाहती थी कि चुनने की छूट दी जाए तो लड़कियां कभी तुम्हारा धर्म न चुनें!
लेकिन हिन्दू धर्म की तमाम उचित आलोचनाओं से सहमत होता कि भारत की स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए असली उपाय क्राइस्ट का सन्देश ही है होतीं वह आज भी कहतीं कि चुनने की छूट हो तो कोई औरत कोई धर्म न चुने। दमन न चुने। अपमान और अन्याय न चुने। हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म की राह लेनेवाली थेरियां भी बार-बार मुक्ति का उत्सव मनाती हैं!
मुत्ता थेरी कहती है- आह मैं मुक्त हुई, मैं कितनी अच्छी तरह विमुक्त हुई! संकीर्ण सोच और रूढ़िवादी परम्पराओं वाले समाजों में औरत की मुक्ति का रास्ता धर्म तक ही जाता था।
अपनाया तो डा. अम्बेडकर ने भी बौद्ध धर्म को अन्य समय में। धर्म की ही सत्ता को खारीज करने की जगह। कुमारी जयवर्द्धन अपनी किताब व्हाइट वुमंस अदर बर्डन में लिखती हैं कि
रमाबाई राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं का एक शक्तिशाली नेतृत्व कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने स्वयं अपनी सम्भावनाएं सीमित कर लीं। बाइबल अनुवाद में अपने को खपा देना और अपने कार्यक्षेत्र के दायरे को संकीर्ण कर लेना था। क्या यह किसी तरह की निराशा थी अपने समय और समाज के प्रति उपजी या वे संस्कार थे जो पिता से मिले थे कि अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है और उसका रास्ता धर्म से होकर जाता है? जयवर्द्धन यह भी लिखती हैं कि सब कुछ के बावजूद ईसाइयत एक बहाना भर था रमाबाई को मुख्यधारा से दूर कर देने का।
असम में रमा रोम-रोम से एक स्त्रीवादी थीं। उनका स्त्रीवाद जाति, धर्म, नस्ल और राष्ट्रीयताओं के इंटरसेक्सन पर खड़ा हुआ। अमेरिका प्रवास पर लिखी किताब नस्लीय और जातिगत भेदभाव पर बात करती है!
एक जगह वह लिखती हैं- अमेरिकी पुरुष हमारे देश के पुरुषों की तरह ही बेशर्म होते हैं।
श्रम के आधार पर लैंगिक विभाजन को रमाबाई ने भी पहचाना
वे कहते हैं कि, हम अपने घरों का भरण-पोषण करते हैं और अपनी पत्नियों का भरण-पोषण अपने दैनिक परिश्रम से करते हैं और पसीना बहाते हैं। पुरुष दिन में आठ, दस या अधिकतम बारह घंटे काम करते हैं, लेकिन महिलाओं को पुरुषों की सेवा के लिए प्रतिदिन सोलह या सत्रह घंटे के लिए नारे लगाने पड़ते हैं लोक, बच्चों का ध्यान रखें और घर के काम करें।
मज़दूरों की पत्नियां, किसान और अन्य व्यवसायों में लगे पुरुष अपने घरों और बच्चों की देखभाल करते हैं पहला; इसके अलावा, वे अपने पतियों के काम को समान रूप से साझा करती हैं और उनकी मदद करती हैं। बावजूद इन सब में से पत्नी को पारिवारिक आय का कोई अधिकार नहीं है।[xi]
रमाबाई ने परिवार मूल्यों पर कम और स्त्री की स्वायत्ता पर अधिक बल दिया। कह सकते हैं कि उन्होंने एकल परिवार को मान्यता दी। घर ही हो तो ऐसा जहां दमन न हो, शोषण न हो, जहां स्त्री अपने मन का कर सके, जैसा चाहे वैसे रहे, मालकिन हो उसकी जहां उसका शासन चलता हो। आज भी ऐसे विचार बेहद रैडिकल कहे जाते हैं उस समय यह सब कह सकने की बड़ी कीमत चुकाई थी रमाबाई ने।
धीरे-धीरे वह रैडिकल होती भी गई स्त्री मुद्दों पर। समाज में आमूलचूल परिवर्तन की हिमायती, ऐसे रैडिकल लोग को जरा-जरा-सा इधर-उधर खिसककर अपने लिए जगह बनाने की बजाज संरचनाओं से टकराते हैं, अक्सर अपने समय और समाज में अव्यावहारिक दिखाई देते हैं। पढ़ाई और नौकरी रमाबाई के हिसाब से ये दो चीजें औरत के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण थीं। वह लिखती हैं-
पुरुष समाज कहता है, पुरुष पत्नियों का पेट भरने और कपड़ों के लिए पैसे कमाने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत करते हैं। ओह, वे अपनी अपनी पत्नियों पर कितना उपकार करते हैं! पत्नी के न होने पर घर, काम करने के लिए कम-से-कम दो या तीन नौकरों को नियोजित करने की आवश्यकता होगी जो वह अकेले करती है; और उन्हें मज़दूरी का भुगतान भी करना होगा। नौकरों को कुछ न करने के लिए खिलाय़ा नहीं जाता है और न ही वह दस नौकरों का काम करती हो, वह बाध्य है। इसलिए कि पति उसे खिलाता है![xii]
दुनिया का सबसे पहला वर्ग विभाजन श्रम के आधार पर स्त्री-पुरुष का लैंगिक विभाजन है। समाजवादी स्त्रीवादियों ने यह सवाल प्रखरता से उठाया था कि स्त्री के घरेलू श्रम का किस तरह अवमूल्यन कर दिया गया। घर की स्त्री का श्रम, श्रम है ही नहीं जैसे। उसका मूल्य तभी पता लगता है अगर उस काम को करने के लिए किसी को भुगतान करना पड़े।
उस दौर में जब राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल स्त्रियां भी स्त्री को पुरुष की अनुगामिनी ही मान रहीं थीं और उसके माता रूप को ही प्रमुखता से सामने रखा जा रहा था, यहां तक कि भारत माता का बिंब भी एक ऐसी ही त्यागमयी, ममतामयी सवर्ण हिन्दू स्त्री से मेल खाता था जिसका अपना जीवन और स्वतंत्र अस्मिता न हो; ऐसे में रमाबाई स्त्री को एक नागरिक के रूप में देखने की कोशिश कर रही थी। उन्होंने लिखा-
उन्हें(स्त्रियों को) कोई सामाजिक या राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। क्या उन्हें विधवापन या गरीबी का दुर्भाग्य भुगतना चाहिए क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई सहारा नहीं है कि सिलाई, खाना पकाना, घरेलू सेवा या इसी तरह के गौण काम करें या अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह या पुनर्विवाह करें। इस देश के कानून का कोई संज्ञान नहीं लेते। औरतों दासों की तरह मर्दों की कैदी हैं। राजनीतिक मामलों में और कानून के आगे भी इसका कोई अपवाद नहीं, केवल सामाजिक में जीवन अपवाद हो सकता है, हालांकि वह भी बहुत ही दुर्लभ है।[xiii]
स्त्रियां जो ख़ुद को ही दोयम समझने के लिए अनुकूलित हो चुकी हैं और जो मानती हैं कि जैसा चल रहा है, वही उनके लिए ठीक है, वे राजनीति में वस्तुस्थिति को स्टेट्स को कैसे चुनौती दें? कौन सा सपोर्ट सिस्टम होगा जो उन्हें राजनीतिक रूप से एक बराबर का मनुष्य हो सकने के लिए मदद करेगा? एक प्रमुख सवाल यह है कि राजनीत में एक फेमिनिस्ट के लिए आज भी नेतृत्व करने की गुंजाइश है?
आज जब एक महिला जज यह कहे कि स्त्री के लिए पितृसत्तात्मक सपोर्ट सिस्टम अनिवार्य है और कहे कि स्त्री को संयुक्त परिवार में रहना चाहिए ताकि उन्हें परिवार के वरिष्ठ पुरुषों का समर्हन मिले; इस समर्थन की शर्त भी बताए कि स्त्रियां एडजस्ट करें और मेरा समय मेरी जरूरत जैसी बात न करे; आज जब किसी अदालत के प्रागंण में मनु की मूर्ति लगा दी जाती है और हम मौन देखते रह जाते हैं, आज जब स्त्रियों के खिलाफ अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं, राजनीति में मर्दवाद का बोलबाला है, तब हम समझ सकते हैं कि रमाबाई जैसी फेमिनिस्ट की कितनी सख्त जरूरत है।
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संदर्भ स्त्रोत
सुजाता , विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई
[i] देखे, पृ 103, इंडियन लेडीज मैंगजीन, डेबोराह आना लोगन में 1901 के ILM के पंडिता रमाबाई पर केन्द्रित अंक से उद्धत
[ii] देखे, पृ.21, द इमर्जेस आंफ़ फ़ेमिनिज्म इन इंडिया, पद्मा अनागोल, रुटलेज, 2005
[iii] देखे, पृ. 76, पंडिता रमाबाईज़ अमेरिकन एनकाउंटर्स, द पीपल आंफ़ द युनाइटेड स्टेट्स(1889,पंडिता रमाबाई)सं मीरा कौसाम्बी
[iv] देखें, पृ.337, पंडिता रमाबाई हर लाइफ़ ऎंड टाइम्स, उमा चक्रवर्ती, जुबान बुक्स, काली फांर वुमन, 1998
[v] देखे, पृ. 94, द लाइफ़ आफ़ हाई कास्ट हिंदू वुमन, पंडिता रमाबाई, फ़िलाडेल्फिया, 1888
[vi] देखे, पृ. 60, द लाइफ़ आफ़ हाई कास्ट हिंदू वुमन, पंडिता रमाबाई, फ़िलाडेल्फिया, 1888
[vii] देखे, पृ.187, डेबोराह आना लोगन,
[viii] देखे, पृ.11, द रांन्ज्स आंफ इंडियन वुमनहुड, मार्कस बी. फुलर, फ्लेमिंग एच. रेवेल कम्पनी, पब्लिशर आंफ एवांजालिक लिटरेचर, न्यूयार्क 1900
[ix] देखे, पृ. 74, स्पीचिज एंड राइटिग्स आंफ एनीबेसेट, एनी बेसेंट, जी.एम. नाटेसन एंड कम्पनी, मद्रास 1921
[x] देखे, 313 लेटर्स एंड कारेस्पांन्डेस आंफ पंडिता रमाबाई, ए.वी.शाह(सं)
[xi] देखे, पृ.213, पंडिता रमाबाईज़ अमेरिकन एनकाउंटर्स, द पीपल आंफ़ द युनाइटेड स्टेट्स(1889,पंडिता रमाबाई)सं मीरा कौसाम्बी
[xii] देखे, पृ.214, वही
[xiii] देखे, पृ.167, वही
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।