जन्मदिन विशेष : सरोजिनी नायडू
बीसवीं सदी की शुरुआत ने बेहद सुंदर नज़ारा देखा जब राजनीतिक परिदृश्य में स्त्रियों का बड़ी संख्या में प्रवेश हुआ। एक पूरी सदी के समाज सुधार आंदोलनों ने और 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन ने बहुत सी स्त्रियों को सार्वजनिक मंचों पर आने का मौक़ा दिया।
इनमें कुछ साधारण घरों से आने वाली स्त्रियाँ थीं तो कुछ विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाली औरतें। लेकिन सभी देश-भक्ति और आज़ादी की भावना से लबरेज़।
ऐसी ही एक विलक्षण स्त्री थीं सरोजिनी नायडू
सरोजिनी (चट्टोपाध्याय) का जन्म 13 फरवरी 1879 में हुआ। पिता रसायनशास्त्री थे और माँ कवि। सरोजिनी कई भाषाएँ जानती थीं। यह हैरान कर सकता है कि अक्सर अंग्रेज़ी में भाषण देने वाली और अंग्रेज़ी में साहित्य लिखने वाली सरोजिनी ने असल में पिता की ख़ूब डाँट-फटकार के बाद अंग्रेज़ी सीखी और निश्चय कर लिया कि अब इसी भाषा में श्रेष्ठ करके दिखाऊंगी। पिता ने उन्हें कमरे में बंद कर दिया था कि अंग्रेज़ी तो सीखनी पड़ेगी।
वह उर्दू भी धाराप्रवाह लिख बोल सकती थीं। आठ बच्चों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता अघोरनाथ को 1878 में हैदराबाद बुलाया गया जहाँ उन्होने एक अंग्रेज़ी पाठशाला शुरु की। यही बाद में निज़ाम कॉलेज बना। यहीं रहते हुए सरोजिनी का जन्म हुआ। उनके पिता 1885 से कांग्रेस के साथ थे।
अंतर्जातीय, अंतर्प्रान्तीय विवाह
1896 में सरोजिनी को इंगलैंड पढने भेज दिया गया। सम्भवत: इसका कारण था कि 16 वर्ष की आयु में वह उस व्यक्ति से विवाह करना चाहती थीं जिसे प्रेम करती थीं। यानी डॉ नायडू, जो विधुर भी थे, दस वर्ष बड़े भी। सरोजिनी ने पढाई तो की लेकिन स्वास्थ्य के चलते उन्हें दिक्कतें आजीवन रहीं। बिना किसी डिग्री के वे वापस दो साल बाद लौटीं और अंतत: डॉ नायडू से ही विवाह किया।
यह विवाह 1872 में बने स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत हुआ था। यानी दोनों पक्षों को यह इनकार करना पड़ा कि वे किसी भी धर्म के हैं। इस विवाह में उन्हें दक्षिण के समाज-सुधारक वीरेशलिंगम का आशीर्वाद मिला।
कविता से राजनीति की ओर
16 साल की उम्र में वह इंग्लैंड में एडमण्ड गॉस और अन्य विद्वानों के सम्पर्क में आई।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र और अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान होने के बावजूद उन्हें गॉस ने भारत की ज़मीन से जुड़ी कविता लिखने को कहा। पद्मिनी सेनगुप्ता लिखती हैं कि बेहतर होता वह गद्य लिखतीं क्योंकि उनकी भाषा इतनी प्रभावी थी कि गद्य सुंदर बन पड़ता था। जबकि कविताएँ कुछ हल्की थीं और 1917 के बाद उन्हें समझ आ गया था कि उनका शिल्प अब काफ़ी पुराना हो चला है। गाँधी के राष्ट्रीय आंदोलन में आने के बाद वे पूरी तरह इस राह पर निकल पड़ी।
सरोजिनी को 1906 में पहली बार गोपाल् कृष्ण गोखले ने स्त्री-शिक्षा पर भाषण देते सुना और प्रभावित हुए। 1907 से 11 के बीच दोनों की मित्रता प्रगाढ हुई। गोखले युवा कवयित्री को निरंतर भारत की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पण करने की प्रेरणा देते थे।
1914 में सरोजिनी की पहली मुलाकात गांधी से लंदन में हुई। तब तक कविता के लिए दुनिया में जानी जा चुकी थीं। वह याद करती हैं कि कैसे गांधी का घर तलाशते हुए जब वहाँ पहुँची तो एक छोटे से आदमी को जेल के कटोरे में मींडे हुए टमाटर को जैतून के तेल के साथ खाते देखा। आस-पास मूंगफली और सूखे केले के बेस्वाद बिस्कुटों के पिचके हुए डिब्बे थे। उन्हें हँसी आ गई। यह देख गांधी ने कहा- ज़रूर तुम सरोजिनी हो। इतना आदरविहीन और कौन हो सकता है भला!
सरोजिनी ने देखा और कहा ‘कितना गंदा खाना’, लेकिन इस मुलाकात के बाद दोनों की मित्रता घनिष्ठ होती गई। सभी सरोजिनी की विद्वत्ता और भाषा-कौशल का सम्मान करते थे।
देशभक्ति और महिला अधिकारों के लिए सक्रियता
आयरिश स्त्रीवादी मार्गरेट कजिंस और सरलादेवी चौधरानी द्वारा संगठित वीमेंस इंडियन एसोसिएशन के एक डेलीगेशन से भेंट के लिए मॉंटेंग्यू से समय मांगा। इसी समय महिलाओं के लिए मताधिकार का मुद्दा उठा और तैयारी के बाद 15 दिसम्बर 1917 को सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में 14 महिलाओं का एक प्रतिनिधि-मंडल मॉंटेंग्यू और चेम्सफोर्ड से मिला।
मॉंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन मॉंटेग्यू ने इसे अपनी डायरी में एक रोचक घटना की तरह दर्ज किया और – ‘बम्बई की एक बहुत ही अच्छी दिखने वाली महिला डॉ जोशी’, ‘एक कवयित्री तथा बहुत ही आकर्षक और चतुर, किंतु दिल से क्रांतिकारी (ऐसा वे मानते हैं) महिला सरोजिनी नायडू’ तथा ‘बम्बई की एक प्रसिद्ध मताधिकारवादी और मिसेज बेसेंट के जमात की एक महिला मिसेज कजिंस’ का उल्लेख किया।
दांडी यात्रा में शुरु में गांधी स्त्रियों की सहभागिता के पक्ष में नहीं थे। लेकिन सरोजिनी ने नाराज़गी जताई। और नतीजा यह कि बड़े स्तर पर स्त्रियों ने इसमें भाग लिया और गिरफ्तारियाँ दीं।
गांधी के साथ 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन से लौटकर वे फिर गिरफ्तार हुईं। लेकिन एक विश्व विख्यात कवयित्री के लिए जेल में कुछ विशिष्ट सुविधाएँ भी चली आती थीं जिनका उल्लेख मीरा बेन ने किया है।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गांधीजी, प्यारेलाल, महादेव देसाई, मीरा बेन के साथ सरोजिनी को भी पुलिस ने 9 अगस्त को गिरफ्तार किया। पुणे के आगा खाँ हॉल में सब साथ थे। महादेव देसाई को दिल का दौरा पड़ा और मृत्यु हो गई। गांधी की हालत भी ठीक न थी। ख़ुद सरोजिनी को मलेरिया हुआ और वे स्ट्रेचर पर 21 मार्च 1943 को बाहर आई। इसके साल भर बाद कस्तूरबा की मृत्यु ने सबको आहत किया।
गांधी की अहिंसा का पालन करना और उसका प्रसार करना सरोजिनी का कर्म बन गया। मज़ाकिया स्वभाव उनके साथ के लोगों को हर स्थिति में प्रेरित करता।
गिरफ्तारियों की ऐसी आदत हो गई थी कि उनका वाक्य हो गया ‘चलो भई, जल्दी-जल्दी टूथब्रश रखो और गाड़ी में आओ।’
पहली महिला कांग्रेस अध्यक्ष
दिसम्बर 1925 में सरोजिनी नायडू कांग्रेस की पहली भारतीय महिला अध्यक्षा बनाई गईं। गांधी उनमें अहिंसा और करुणा की राह पर चलने वाली ऐसी स्त्री देखते थे जो कांग्रेस का नेतृत्व कर सकती है।
जब अक्तूबर में उन्हें भावी अध्यक्ष घोषित किया गया तब गांधी ने कहा ‘सरोजिनी को उनकी जगह होना चाहिए।’ यह एक शानदार बात थी कि स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेते हुए कांग्रेस ने स्त्रियों की सहभागिता का सम्मान किया।
मदर इंडिया और भारत कोकिला
लेकिन राष्ट्र की एकता, उसकी छवि और देश-भक्ति के लिए महापुरुषों के विचार के आगे नतमस्तक हो जाने की एक सीमा भी होती है। यह बड़ा अटपटा था कि मिस कथरीन मेयो की कृति मदर इंडिया ने जो प्रभाव बनाया था गांधी ने उससे व्यथित होकर सरोजिनी को विश्व यात्राओं पर भेजा ताकि दुनिया देख सके कि भारत की स्त्री कितनी प्रतिभाशाली, निश्शंक और आत्मनिर्भर है। वे प्रेरक भाषण देकर अमेरिका से लौटीं।
उनकी कविता और व्यक्तित्व की तारीफ़ होती ही थी हर जगह्। लोग कहते थे वह चलता फिरता भाषा कोश हैं। अखबारों में उनके बारे में ख़ूब छपा और वह उद्देश्य में सफल होकर भारत लौटीं।
भारत एक विचार
सरोजिनी ख़ुद हैदराबाद में जन्मी थीं। जानती थीं कि भारतीय संस्कृति कितने विविध रंगों से बनी है। इसलिए दक्षिण की नदियों को मिलाए बिना कोई एक भारत-नदी कैसे बन सकती है। अपने भाषणों में उन्होंने लगातार साम्प्रदायिक एकता की बात की, निर्भय होने की प्रेरणा दी।
1917 में इलाहाबाद में दिए एक भाषण में वह कहती हैं-
भारत सिर्फ़ गंगा और जमुना का संगम नहीं है, इसमें बहुत सी और धाराएँ शामिल हैं, अनेक नदियाँ हैं जो भले महानदियों की तुलना में छोटी हैं, इन सबसे मिलकर मिलकर जीवन की जो नदी बनेगी है वह एकीकृत भारत होगा. मैं ऐसा सपना देखती हूँ और जानती हूँ कि यह साकार होगा.
लेकिन यह सपना तब सच होगा जब आप ख़ुद से कहें- अब और भेद-भाव नहीं, समुदायों का और अत्याचार नहीं, नस्ली भेद पर ज़ोर नहीं, बल्कि यह एक अंतिम चेतावनी हो दुनिया के लिए कि हम एक राष्ट्र हैं.
अनमोल दोस्तियाँ
आज हम इतिहास से पात्र उठाकर उनकी आपसी भिड़ंत करवाकर राजनीति को अपना मकसद साधते देख रहे हैं। लेकिन सच यह है कि तमाम बड़े राजनेताओं ने एक-दूसरे से मतभेदों के बावजूद मित्रताएँ निभाई। सम्मान किया। स्त्री-पुरुष दोस्तियों के मामले में आज हम उस युग से भी ज़्यादा पिछ्ड़े हुए नज़र आते हैं। आज बंद दिमाग़ से चरित्रों को देखा जाता है और स्त्रियाँ अपने जीवन में जो निर्णय करती हैं उसका सम्मान करना छोड़िए, उसे लगातार जज किया जाता है।
सरोजिनी के जीवन में यह खास था कि उनकी मित्रताएँ स्त्रियों से और पुरुषों से बराबरी और सम्मान के स्तर पर रहीं। मित्र मंडली में कभी उन्हें नॉटी गर्ल कह दिया जाता था। वे गांधी के लिए नन्हे मिकि माउस कहकर स्नेह दर्शातीं। नेहरू और उनकी बहनों से उनकी अच्छी मित्रता थी। वह जहाँ भाषण देने जाती लोग उनका इंतज़ार करते थे बेसब्री से। जिस महफिल में जाती, वहाँ उनके प्रशंसक ख़ूब स्वागत करते। वातावरण हँसी से भरा रहता।
गांधी उनके मित्र और गुरु भी थे। आज़ादी से ठीक पहले जब साम्प्रदायिक दंगों से निपटने वह नोआखली गए तो सरोजिनी ने कहा- मुझे भय नहीं, आपके मिशन में पूरा विश्वास है।
अंतिम समय
आज़ादी के बाद सरोजिनी नायडू को उ.प्र. का राज्यपाल बनाया गया।
गाँधी-हत्या के बाद आहत, जब वह दिल्ली आई तो कहा-रोते क्यों हो सब, क्या वह बुढ़ापे या अजीर्ण से मरते? यही महान मृत्यु उनके लायक थी। इसके बाद एक रेडियो भाषण में बोलीं- जिन्होंने गाँधी का विरोध किया हम उनकी चुनौती स्वीकार करते हैं।
लेकिन सच यह है कि इस चुनौती को उसकी गंभीरता में नहीं देखा गया।
इसके बाद से सरोजिनी का स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। इसके एक साल बाद ही 13 फरवरी को वह सत्तर की हुईं और उनकी तबियत तेज़ी से बिगड़ी। 18 फरवरी को उन्हें ऑक्सीजन देना पड़ा। 2 मार्च की सुबह 3.30 पर उनकी मृत्यु हो गई।
जीवन को उन्होंने भरपूर जिया। कर्म के क्षेत्र में उतरीं तो वहाँ समर्पित रहती थीं और सालों बाद अवकाश मिलने पर अपने घर ‘द गोल्डन थ्रेशोल्ड’ में अपने एकांत का उत्सव मनाती हुई, अपनी पसंद का खाना खाती हुई आनंदित होती थी।
अस्वस्थता और एक बार बीमारी में मौत के मुँह से बाहर आने पर उन्हें लगा कि सच मुच की एक दिन मर जाऊँ तो! वहीं से एक-एक पल को शिद्दत से जीना शुरु किया और कीमती दोस्तियों से समृद्ध, देश-भक्ति से ओत-प्रोत, कविता और साहित्य से सराबोर जीवन जीकर अपने गुरु गांधी की अहिंसा का संदेश देते हुए विलीन हो गईं।
संदर्भ पुस्तकें
- Sarojini Naidu, Her ways with words, Edited and introduced by Mushirul Hasan, Niyogi Books, 2017
- सरोजिनी नायडू, भारतीय साहित्य के निर्माता, पद्मिनी सेनगुप्ता, साहित्य अकादमी
- Words of Freedom, Ideas of A Nation, Sarojini Naidu, Penguin Books, 2010
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।