एक किताब रोज़ : सेपियन्स
[एक किताब रोज़ में आज पढिए युवाल नोवा हरारी की चर्चित किताब ‘सैपियंस ‘ पर एक टिप्पणी। किताब यहाँ उपलब्ध है। ]
अग्नि ने हमें शक्ति दी, वार्तालाप ने हमें परस्पर सहयोग करने में मदद की, कृषि ने हमें और अधिक के लिए भूखा बनाया, मिथकों ने कानून और व्यवस्था कायम की, धन ने हमें एक ऐसी चीज दी जिस पर हम सचमुच् भरोसा कर सकते थे, अंतर्विरोधों ने संस्कृति की रचना की, विज्ञान ने हमें घातक बनाया, यह साधारण वानरों से लेकर विश्व के शासकों तक के हमारे असाधारण इतिहास का रोमांचक वर्णन है। हम बात कर रहे हैं युवाल नोआ हरारी की अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर पुस्तक सेपियंस मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास की, जिसका हिन्दी अनुवाद मदन सोनी ने किया है। बड़ी बहसों को जन्म देने वाली यह पुस्तक अपनी उत्तेजक तथा आकर्षक भाषा से न केवल पाठकों को बाँध देती है बल्कि उसकी तमाम धारणाओं को भी ध्वस्त करती है। लेकिन यह पुस्तक अक्सर बिना स्रोत वाले दावे करती है जिससे ग्रन्थवादी इसे कल्पना कहेंगे परन्तु फिर भी इसे इतिहास की एक बेहतरीन समझ पैदा करने वाली पुस्तक कहा जाएगा क्योंकि अगर हम प्रशिक्षित इतिहासकार रामशरण शर्मा से कुछ शब्द उधार लें तो तो कह सकते हैं कि ‘कल्पना नहीं तो इतिहास नहीं’।
यह पुस्तक न केवल भिन्न विश्वास वाली दुनिया में इतिहास के बुनियादी आख्यानों पर सवाल उठाने के लिए हमें प्रोत्साहित करती है, बल्कि यह खोज करती है कि हमारी प्रजाति वर्चस्व की लड़ाई में किस तरह कामयाब हुई ? हमारे आहार खोजी पूर्वज नगरों और राजवंशों का निर्माण करने के लिए क्यों एकजुट हुए ? हमने देवताओं, राष्ट्रों, और मानव अधिकारों में विश्वास करना कैसे शुरु किया ? साथ ही यह पुस्तक आने वाली सहस्त्राब्दियों में हमारी दुनिया कैसी होगी इसकी भी पड़ताल करती है। लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों वाली यह पुस्तक चार भागों में तथा बीस अध्यायों में बटी हुई है।
पुस्तक के प्रथम भाग में सेपियंस की क़ामयाबी के रहस्य से पर्दा उठाया गया है। इंसान, और प्रजातियों से अलग है क्योंकि इन्सान अनंत अंतहीन कहानियां बना सकता है। इन्सान ने अपनी अनूठी तथा लचीली भाषा की वजह से दुनिया पर विजय प्राप्त की है। हरारी इसे संज्ञानात्मक क्रांति कहते हैं, जिसने 70000 साल पहले इतिहास को क्रियाशील बना दिया। इस गपबाज़ी ने उस ज्ञान के वृक्ष का निर्माण किया जिसने न केवल आने वाली पीढ़ियों को अपनी इस कुशलता को हस्तांतरित किया बल्कि जीन समूह को भी बाईपास किया। इसने दुनिया के बारे में सूचना को दक्षता के साथ प्रसारित किया जिसके परिणामस्वरूप सेपियंस ने न केवल योजना बनाना सीखा बल्कि उसे क्रियान्वित भी करने लगे।
किताब के दूसरे भाग में 12000 साल पूर्व हुई दूसरी क्रांति का विवरण हैं जिसे हम कृषि क्रांति कहते हैं। हरारी इसे इतिहास का सबसे बड़ा धोखा कहते हैं जिसमें इंसान ने गेहूं को पालतू बना लिया, जी नहीं दरअसल गेहूँ ने इन्सान को पालतू बना लिया। गेहूँ ने अपने फायदे के लिए सेपियंस को नियंत्रित किया। इंसान ने चैन से घूमते हुए जीना छोड़ सारी दुनिया में गेहूँ की खेती करने लगा। चूंकि गेहूँ को कंकड़ पत्थर नहीं पसंद थे तो इंसान ने अपनी कमर तोड़ कर उन्हें खेतों से साफ किया। गेहूँ को अपनी जगह, पानी और पोषक तत्वों में दूसरी वनस्पतियों से साझा करना पसंद नहीं था तो मर्द और औरतों ने तीखी धूप में निराई की। बीमारी में देखभाल की तथा कीड़ो, खरगोश तथा टिड्डी से सुरक्षा प्रदान की। यहाँ तक कि गेहूं ने अपने पोषण के लिए सेपियंस को अन्य जानवरों का मल तक इकट्ठा करने को विवश किया। मनुष्य ने दयनीय अस्तित्व चुना लेकिन इससे फायदा क्या हुआ? गेहूँ की खेती ने क्षेत्र की प्रति इकाई को कहीं ज्यादा भोजन मुहैया कराया और इस तरह होमो सेपियंस को तीव्रतम गति से अपनी वंशवृद्धि करने में सक्षम बनाया। साथ ही इसने विलासिता का पिंजरा भी दिया। जिसकी सुरक्षा के लिए कानून, धर्म, राज्य तथा समाज जैसे कल्पित वास्तविकताओं को रचा गया। इन कल्पनाओं ने उस दुश्चक्र को पैदा किया जहाँ कोई न्याय नहीं था।
पुस्तक के अगले भाग में मानव के एकीकरण की कहानी है। ईसा पूर्व पहली सहस्त्राब्दी में तीन सम्भावित वैश्विक व्यवस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके पक्षधर पहली बार समूची दुनिया और समस्त मानव प्रजाति को नियमों की एक एकल व्यवस्था के अधीन शासित एक इकाई के रूप में कल्पित कर सके। हर कोई, कम से कम सम्भावित रूप से ‘हम‘ था। अब कोई ‘वे‘ नहीं थे। ऐसी पहली व्यवस्था आर्थिक थी : वित्तीय व्यवस्था। दूसरी वैश्विक व्यवस्था राजनैतिक थी : साम्राज्यवादी व्यवस्था। तीसरी वैश्विक व्यवस्था धार्मिक थी : बौद्ध, ईसाइयत और इस्लाम जैसे सार्वभौमिक धर्मों की व्यवस्था। व्यापारी, विजेता और पैगम्बर वे पहले लोग थे, जो ‘हम बनाम वे‘ के युग्म परक विकासवादी विभाजन से ऊपर उठ सके और मानव-जाति की सम्भावित एकता का पूर्वानुमान कर सके। व्यापारियों के लिए पूरी दुनिया एक बाज़ार थी और सारे मनुष्य सम्भावित ग्राहक थे । उन्होंने एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था विकसित करने की कोशिश की, जो हर कहीं, हर किसी पर लागू हो सकती थी। विजेताओं के लिए सारी दुनिया एक एकल साम्राज्य थी और सारे मनुष्य सम्भावित प्रजा थे।पैग़म्बरों के लिए सारी दुनिया में एक ही सत्य था और सारे मनुष्य सम्भावित आस्तिक थे। उन्होंने भी एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश की, जो हर कहीं हर किसी पर लागू हो सकती थी ।
पुस्तक के अंतिम भाग में पिछले 500 वर्षों के बारे में बात की गई है जब पहली बार इंसान ने अपनी अज्ञानता को स्वीकार कर उस चीज़ की शुरुआत की जो शायद इतिहास को समाप्त कर सर्वथा किसी पूरी तरह से भिन्न चीज़ की शुरुआत कर सकती है, बात हो रही है वैज्ञानिक क्रांति की। विज्ञान में अनुसंधान के द्वारा लालची इंसान ने शक्ति ग्रहण की जिसकी भनक को शीघ्र ही साम्राज्यों तथा पूंजी ने भांप कर विज्ञान के साथ गठजोड़ कर लिया। हम आज इस दौर में हैं जहाँ सिर्फ काया ही नहीं गढ़ी जाती बल्कि अंतःकरण भी गढ़ा जाता है। लेकिन हमें सचेत रहना चाहिए क्योंकि अगर हम गिलगमेश को नहीं रोक सकते तो हम डॉ फ़्रैंकेन्स्टाइन को भी नहीं रोक सकते। और सवाल यह नहीं है कि हम क्या बनना चाहते हैं बल्कि सवाल यह है कि हम क्या आकांक्षा करना चाहते है। अगर आप इन सवालों से नहीं डरते तो शायद आपने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है।
राजीव कुमार पाण्डेय बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ के शोध छात्र हैं।