Feminism
क्या आप इला मित्रा को जानते हैं?


1925 में कलकत्ता में जन्म। चैंपियन एथलीट जिन्हें 1940 में फ़िनलैंड में होने वाले ओलिंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करना था लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते खेल रदद् हो गए।
अट्ठारह की उम्र में बंगाल के किसानों का संघर्ष और अंग्रेजों व ज़मींदारो द्वारा उनपर होता ज़ुल्म देखकर कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन की। ये वो समय था जब चर्चिल ने कृत्रिम अकाल पैदा करके बंगाल में तीस लाख लोग मार दिए थे।
ग़रीबों की रानी माँ
1946-47 में बंगाल में तेभागा आंदोलन शुरू हुआ। ‘तेभागा’ यानी एक तिहाई भाग। ज़मींदार किसानों से फसल का आधा हिस्सा माँगते थे। कृषक सभा के नेतृत्व में किसानों ने दो तिहाई फसल पर हक़ के लिए आवाज़ बुलंद की।इला मित्रा आज बांग्लादेश में पड़ने वाले राजशाही में तेभागा आंदोलन की नेता थीं। वहां गरीब संथाल आदिवासी, हिन्दू व मुसलमान कृषक उन्हें ‘रानी माँ’ कहते थे।
सन 46 में नोआखली के दंगों के बाद इला गांधी के साथ राहत कार्यों के लिए गयीं।
1947 में बंटवारा हुआ तो वे अपने नए जन्मे शिशु को कोलकाता छोड़ खुद अपने पति (जो कि सीपीआई के होल टाइमर थे) के साथ पूर्वी पाकिस्तान रुक गयीं चूंकि उनके ससुराल की ज़मींदारी वहीं थी। 47 से लेकर 50 तक इला ने खूब संघर्ष किया।
1950 में पाकिस्तानी सेना ने उनके कार्य के केंद्र वाले गांव पर हमला कर दिया। इला पकड़ी गयीं और उनपर पुलिस वालों की हत्या समेत कई इल्ज़ाम लगाके जेल में ठूंस दिया गया।

जेल में भयावह अत्याचार
इला की जेल की दास्तान अत्यंत मार्मिक है। पाकिस्तानी पुलिस के लिए वे सबसे पहले एक हिन्दू, एक कम्युनिस्ट और विशेषकर एक महिला थीं। बाद में उन्होंने उस समय के प्रतिकूल जाकर अदम्य साहस दिखाते हुए अदालत में दर्ज कराया कि उनके साथ क्या हुआ था। उन्हें आरोप कबूलने पर मजबूर करने के लिए बलात्कार, लगातार मारपीट व जघन्य यातनाओं से गुजरना पड़ा। इला ने बाद में कहा कि वे उस समय अपने बेटे के जन्म और उसके बाद के सोलह दिन याद कर खुद को ढांढस देतीं थीं। वे बहुत बीमार पड़ गईं।
1954 में पूर्वी पाकिस्तान में चुनाव हुए और मौलाना भस्नानी जैसे प्रगतिशील वामपंथी नेता सत्ता में आये। इला को कलकत्ता इलाज के लिए भेज दिया गया। वे फिर भारत में ही रहीं। फिर से एमए किया और प्रोफेसर हुईं। 1962 में कलकत्ता के मानिकतला से विधायक चुनी गईं।
1965 में कलकत्ता में साम्प्रदायिक दंगे हुए। एक जगह एक मुस्लिम बस्ती जलाने भीड़ जुटी। इला उनके सामने खड़ी हो गईं- ‘रुको’ वे गरजीं और भीड़ वापस लौट गई।क्या इला नही सोच सकतीं थीं कि पंद्रह साल पहले उन्हें जीवनभर की यातना देने वाले किसी धर्म विशेष के थे। जीवनभर गरीबों की लड़ाई लड़ने वाली इला जानतीं थीं की ऐसी हैवानियत एक मज़हब की मोहताज नही। और उनके लिए जान देने वाले कृषकों मैं कितने ही तो मुसलमान थे। जेल में एक अधिकारी इला को पहचानते थे चूंकि वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में साथ पढ़े थे। उन अधिकारी ने इला के लिए डॉक्टर की व्यवस्था की और उनका नाम रहमान था।
फिर से बांग्लादेश

1971 में बांग्लादेश मुक्तियुद्ध हुआ। इला का घर उस पर से आये लोगों की शरणस्थली बना, और सहयोग का सक्रिय अड्डा। 1974 मैं वे बांग्लादेश गयीं जहां मुजीबुर्रहमान ने उन्हें बांग्लादेश ससम्मान परिवार सहित बुलाने और नागरिकता देने का वायदा किया। पर कुछ ही समय बाद मुजीब की हत्या कर दी गयी।
इला 1978 तक विधायक रहीं।2002 में निधन हुआ। उनके पोते बताते हैं कि वे अपने जीवन के अंत तक तैराकी करतीं थीं। उनका कहना था कि चूंकि वे एक एथलीट रहीं थीं इसीलिए उस बर्बर यातना को झेल पायीं थीं।
कितना तो कम जानते हैं हम ऐसे जीवनों के विषय में!
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।