Dr B R AmbedkarFeaturedJawaharlal Nehru

जब कांग्रेस ने बाबा साहब को संविधान सभा में चुनकर भेजा

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अंबेडकर साहब संविधान सभा में बंगाल से क्यों गए?  अभी हाल में ही एक टीवी डिबेट में यह सवाल पूछा गया।  एक जैसे सवाल एक जैसे झूठ जैसी चीजों का अंबार लग जाता है । हालांकि ये झूट नहीं है। यह सच है की बाबासाहब अंबेडकर संविधान सभा में सबसे पहले बंगाल से ही छोड़ कर गए थे? ग़लत वो कारण है जो उसकी तरह में हमें बताया जा रहा है झूठ और गलत वो मंशा है जिससे इस बात को कोट किया जा रहा है ।

 

अंबेडकर साहब संविधान सभा में बंगाल से क्यों गए? क्या था,पूरा मामला ?

 

इतिहास का सच बताने के लिए और इतिहास के झूठ से पर्दा उठाने के लिए, आज बात शुरू करते हैं कि पूरा मामला क्या था ?

मैंने आज बात करने के लिए दो किताबें चुनीं हैं। जिन किताबों के माध्यम से मैं ये बात करूँगा, दोनों है डॉक्टर अंबेडकर की जीवनियाँ। पहली जो जीवनी है वो थोड़ी पुरानी है, धनंजय कीर की जीवनी है। ये मुझे हिंदी में नहीं मिली, अंग्रेजी में मुझे मिली और ये आपको भी आराम से मिल जाएगी।

दूसरी किताब जो अभी हाल में ही राजकमल प्रकाशन से छपकर आई। हिंदी में मुझे लगता है 1 साल हुआ है इसको छपे हुए और यह बेहद प्रतिष्ठित जीवनी मानी जाती है डॉक्टर अंबेडकर की।

क्रिस्टोफ जैफ़रले की जीवनी को बहुत प्रतिष्ठा मिली है। अंग्रेजी में खूब पढ़ी गई हिंदी में अनुवाद हुई। मेरे मित्र योगेंद्र दत्त ने इसका अनुवाद किया था और हिंदी में भी पढ़ी जा रही है तो इन दो जीवनियों के सहारे मैं आज बताऊँगा कि संविधान सभा में बाबा साहब के जाने का पूरा किस्सा क्या था? और कैसे कैसे हुआ?

असल में जैसे-जैसे आजादी नजदीक आने लगी, कांग्रेस की सबसे बड़ी मांग थी कि संविधान सभा हमें खुद बनाने का अधिकार दिया जाए। आप जानते हैं 1940 इसमें जब द्वितीय विश्वयुद्ध की आहट आई और द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ। तो कांग्रेस ने शुरू में तो ये कहा कि हिटलर जैसे फासिस्ट के खिलाफ़, जिसने पूरे यूरोप को तबाह कर दिया है, उसमें हिटलर का साथ नहीं दिया जा सकता है। लेकिन एक सवाल भी उठाया, नेहरू ने उठाया और लोगों ने उठाया।

सवाल यह था कि आप एक तरफ तो दावा कर रहे हैं, क्या आप जर्मनी के फासीवाद से इटली के फासीवाद से जापान के फासीवाद से लड़ रहे हैं?  लेकिन दूसरी तरफ आपका जो फासीवाद है, आपका जो साम्राज्यवाद है यानी हिंदुस्तान जैसे देश को जो आपने ग़ुलाम बना के रखा हुआ है उस पर आप ये क़दमउठाने को तैयार नहीं है। तो आपकी लड़ाई को सही, हम तभी मान सकते हैं या आप के समर्थन में हम तभी खड़े हो सकते हैं जब आप हमसे ये वादा करें कि विश्व युद्ध के बाद डोमिनियन स्टेटस नहीं पूर्ण स्वराज्य भारत को प्रदान किया जाएगा।

हम आपका फासीवाद के खिलाफ़ साथ देते है, लेकिन आप वादा कीजिए कि जब द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो जाएगा तो आप हमारे देश को आज़ाद करके यहाँ से चले जाएंगे। आप जानते हैं क्रिप्स मिशन आया फिर कैबिनेट मिशन आया लेकिन कुल मिलाजुलाकर अंग्रेज इस बात पर राजी नहीं हुए और जब राजी नहीं हुए तो कांग्रेस ने इसको साम्राज्यवादी लड़ाई कहा। एक तरफ हिटलर जो है वो भी साम्राज्यवादी है। दूसरी तरफ आप भी साम्राज्यवादी है तो हम न हिटलर का साथ देंगे, ना आपका साथ देंगे।

 

हम अपनी आजादी की लड़ाई लड़ेंगे और क्विट इंडिया मूवमेंट चलाया। भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया जिसके चलते कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को आप जानते है गिरफ्तार कर लिया गया।

 

जब कैबिनेट मिशन आया तो उसने डॉक्टर अंबेडकर की जो शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन थी, उसकी जगह पर कांग्रेस के जो दलित प्रतिनिधि थे, जगजीवन राम उनसे बातचीत की, उनको बातचीत करने के लिए बुलाया। बाबासाहब इससे बहुत नाराज भी हुए। दुखी भी हुए।  अंग्रेजों के साथ घनिष्ठ सहयोग से उन्हें अपने उद्देश्यों को साकार करने में मदद नहीं मिली। हालांकि अछूतों के लिए के लिए उल्लेखनीय रियायतें पाने में सफल हुए।

 

आप जानते हैं कि 1942 का जो पूरा दौर था सेकंड वर्ल्ड वार का उसमें बाबासाहब अंग्रेजों की एग्जिक्यूटिव कमिटी में बने रहे, अंग्रेजों के साथ बने रहे। उसके पहले भी और ये साथ बने रहने का इकलौता उद्देश्य उनका ये था कि जो दलित जातियाँ है उनके लिए विशेष अधिकार को हासिल कर सकते हैं।

वो जानते थे कि बाहर रहकर यह अधिकार शायद हासिल ना कर पाए तो लेबर लॉज और बाकी सारी चीज़ो में उन्होंने कुछ रियायत तो जरूर हासिल की। लेकिन जैफरलो बताते हैं कि जो उनका शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन था। उसका आधार बहुत सिमट चुका था इसलिए कैबिनेट मिशन ने उनसे मिलने में कोई रुचि नहीं दिखा। बाबा साहब की उस समय जो नाराज़गी है वो साफ दिखाई देती है। वो इंग्लैंड भी गए। वहाँ पर ढेरों जो महत्वपूर्ण लोग थे उनसे मुलाकात की। सब ने आश्वासन दिया लेकिन किसी ने उनकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और वो इंडिया लौट आए।

 

बॉम्बे असेंबली के विधानसभा चुनाव और बाबा साहब

ऐसे माहौल में विधानसभा चुनाव हुए थे। 1945 में विधानसभा चुनाव हुए थे उन चुनावों में शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन को कोई खास सफलता नहीं मिली थी बल्कि अगर ये कहें कि एकदम सफलता नहीं मिली थी तो ये भी कोई गलत बात नहीं। इसलिए महाराष्ट्र जो उस समय बॉम्बे असेंबली हुआ करती थी, बॉम्बे असेंबली में शेड्यूल कास्ट ऑपरेशन का प्रतिनिधित्व नहीं था।तो जब संविधान सभा बनने की बात हुई तो संविधान सभा को ही आम चुनाव से नहीं बनी थी। संविधान सभा में इन्हीं विधानसभाओं में जो प्रतिनिधि थे उन्होंने संविधान सभा के सदस्य चुनकर भेजे थे।

अब ऐसे समझिये जैसे अभी राज्यसभा का चुनाव होता है।जिसमे आप जानते हैं कि चुने हुए जो विधायक होते हैं वो राज्यसभा का प्रतिनिधि चुनकर भेजते। जैफरलो बताते हैं और कीर भी इस बात की ताकीद करते हैं कि बॉम्बे के विधानसभा में अंबेडकर के पास कोई ऐसा नहीं था जो उनको चुनकर संविधान सभा में भेजता। कांग्रेस का पूर्ण बहुमत था तो कांग्रेस ने अपने लोगों को चुनकर भेजा।

अब जो लोग सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस ने आखिर बाबा साहब को क्यों नहीं भेजा? वो मुझे ज़रा जवाब दे दें कि  क्या आज अगर भारतीय जनता पार्टी के का बहुमत है तमाम राज्यों में तो उसने एक भी ऐसे आदमी को कभी चुनकर भेजा है जो संघ और भाजपा से ना हो। क्या कोई पार्टी अपने विरोधी को चुनकर भेजती है? डॉक्टर अंबेडकर उस समय कांग्रेस के स्पष्ट विरोधी थे। आप जानते हैं उन्होंने नागपुर में सत्याग्रह किया था, पुणे में सत्याग्रह किया था। हालांकि इन सत्याग्रह का कोई खास असर नहीं हो पाया था क्योंकि जैसा मैंने बताया जैफरलो के हवाले से, फ़ेडरेशन का जो आधार था वो काफी सिमट गया था।

उस समय जो दलित थे वो कांग्रेस के साथ खड़े थे। तो ऐसे में जब महाराष्ट्र विधानसभा में उनका कोई प्रतिनिधि था ही नहीं तो वो कैसे चुने जाते? उनके विचार पूरी तरह से कांग्रेस से अलग थे। उस जमाने में तो कांग्रेस उनको कैसे जिताती? तो हुआ ये कि बंगाल में जहाँ मुस्लिम लीग का बहुमत था, वहाँ जोगेंद्र नाथ मंडल थे। वह फ़ेडरेशन के सदस्य भी थे। उनके सहयोग से बाबा साहब को पूर्वी बंगाल से चुना गया। उस जमाने में तो बंगाल एक ही था उसका जो कुछ भी हिस्सा जो बाद में बांग्लादेश बन गया, वहाँ से चुना गया।

अब जोगेंद्र नाथ मंडल जी को आप देखेंगे तो उनका भी किस्सा बड़ा मजेदार है। वो मुस्लिम लीग के बेहद करीबी थे। एक जमाने में दलितों से उन्होंने आह्वान किया था कि वो कांग्रेस को नहीं मुस्लिम लीग को वोट दें। उसके बाद उनको कानून मंत्री बनाया गया। जिन्ना के मंत्रिमंडल में पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने लेकिन जिन्ना के मरने के बाद वहाँ जो हालात हुए उससे वो इतना दुखी हो गए कि लौटकर फिर हिंदुस्तान आये।

कभी उनके बारे में अलग से बात की जा सकती है, खैर जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से बंगाल से बाबासाहब चुनकर विधानसभा में आए। इस समय असम विधानसभा के अंदर जब वो आते है बल्कि उसके पहले ही जैफरलो ने एक बड़ा अच्छा कमेंट किया है। बल्कि इंट्रेस्टिंग कमेन्ट कहूंगा उसमें वो कहते है-

अंबेडकर ने अंग्रेजों से मुँह फेर लिया और उच्च जाति के प्रभुत्व वाली कांग्रेस को ही अपनी सेवाएं देने का फैसला किया। 1942 में ही उन्होंने यहाँ ऐलान कर दिया कि अगर हिंदू डिप्रेस क्लासेस को पर्याप्त आश्वासन देते हैं तो वे उनकी लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर साथ देंगे अन्यथा उनके साथ समझौते का कोई मतलब नहीं है।

तो  शर्तों के साथ उन्होंने 1942 में जो बात की थी, संविधान सभा में आने के बाद उनको मालूम था कि अगर मैं संविधान सभा से बाहर रहता हूँ या कांग्रेस का विरोध करता हूँ तो दलितों के लिए अधिकार हासिल नहीं कर पाऊंगा। इसलिए उन्होंने संविधान सभा के अंदर हम देखते हैं कि कांग्रेस के साथ सहयोग का फैसला किया। इसका एक सबसे अच्छा एग्जाम्पल जैफरलो ही देते है। 17 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के लक्ष्यों और उद्देश्यों के बारे में जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किये गए प्रस्ताव पर उन्होंने अपनी टिप्पणी की-

उन्होंने कहा कि मैं आज इस बात से भलीभांति अवगत हूँ कि हम राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से बंटे हुए हैं। हम परस्पर धुंध में जूझ रहे खेमों का एक समूह है और मैं स्वीकार करने को तैयार हूँ कि संभव था मैं भी ऐसे ही ये खेमे का नेता हूँ। परन्तु महोदय, इस सबके बावजूद मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि अगर समय और हालात मिले तो दुनिया की कोई ताकत इस देश को एकजुट होने से नहीं रोक सकती।

मुझे यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि हम अपनी सारी जातियों और पंथों के साथ किसी ना किसी रूप में हम एकबद्ध जन होंगे। मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि भारत के विभाजन के लिए मुस्लिम लीग द्वारा चलाए गए आंदोलन के बावजूद एक दिन मुसलमानों में भी विवेक का संचार होगा और वे भी यही सोचने लगेंगे कि उनके लिए एकजुट भारत ही बेहतर है।

तो इस पर टिप्पणी करते हैं, जैफरलो कि अंबेडकर को इस लक्ष्य की ओर प्रेरित करना किसी जबरदस्त तख्तापलट जैसी कामयाबी थी।

अब 1947 तक तक़रीबन ये मैत्रीभाव चलता रहा। आप जानते हैं कि 47 में भारत का हो गया विभाजन तो जो बांगलादेश वाला बंगाल था, जो पूर्वी बंगाल था, वो तो चला गया पाकिस्तान में जब पाकिस्तान चला गया बंगाल तो जो बंगाल से सीटें आईं थीं संविधान सभा की वो भी अपने आप हिंदुस्तान की संविधान सभा में खत्म हो गयी। जो लोग पाकिस्तान चले गए वो तो वहाँ की संविधान सभा में शामिल हो गए लेकिन बाबासाहब अम्बेडकर तो पाकिस्तान गए नहीं थे, वो तो हिंदुस्तान में थे लेकिन चुन के आये थे उस इलाके से क्यों पाकिस्तान में चला गया? इस तरह से उनकी जो मेम्बरशिप थी वो खत्म हो गई।

तो जब ये मेंबरशिप खत्म हो गयी थी। और दुबारा उन्हें संविधान सभा में आना था तो मैं बता दूँ ना तो हिंदू महासभा ने उसके लिए कोई कोशिश की जिनके लोग और ना तो जनसंघ ने कोई कोशिश की। जिनके लोग आज शोर मचा रहे हैं टीवी चैनल्स पर यहाँ-वहाँ सोशल मीडिया पर। नोट कर लीजिये इस पॉइंट को। अंततः, बाबासाहब जब संविधान सभा में आये, तो बॉम्बे प्रान्त से चुनकर आए और कैसे आए?

 

डॉक्टर एमएल जयकर साहब थे। उन्होंने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया था। उनकी जगह पर कांग्रेस उन्हें चुनकर ले आयी। यानी अंततः बाबासाहब जब कानून मंत्री बने हिंदुस्तान के तो वो कांग्रेस के समर्थन से। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल गाँधी, इन लोगों की कांग्रेस के समर्थन से। बम्बई से चुनकर आए थे, बम्बई की विधानसभा से चुनकर आए थे। तो जब आप ये कहते हैं कि बाबा साहब तो बंगाल से चुनकर आए थे तो ये एक सच है

 

लेकिन दूसरा सच ये है कि हिंदुस्तान जब आजाद हुआ तो बंगाल का वो हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। बाबा साहब की मेंबरशिप खत्म हो गयी थी।तो उस समय कांग्रेस के सहयोग से मैं फिर दोहरा दूँ महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद वाली कांग्रेस के सहयोग से डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बम्बई विधानसभा से, उस सीट से चुनकर आए, जिस सीट से कांग्रेस के एक नेता डॉ एमएल जयकर ने इस्तीफा दे दिया।

उसके बाद का जो किस्सा है वो आप जानते हैं कि सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने मिलकर ये तय किया कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को भारत का पहला कानून मंत्री बनाया जाएगाऔर जैफरलो इस पर टिप्पणी करते हैं कि निःसंदेह बाबासाहब को देश का पहला कानून मंत्री बनाने का यह फैसला महात्मा गाँधी के दबाव में किया गया।

तो मित्रों, यह है तथ्य मैं ये नहीं कहता कि अंबेडकर, नेहरू, गाँधी, पटेल सारे हर मुददे पर सहमत थे। मैं ये नहीं कहता कि डॉक्टर अंबेडकर गाँधी के आलोचक नहीं थे। मैं ये भी नहीं कहता कि गाँधी डॉक्टर अंबेडकर के आलोचक नहीं थे, आलोचनाएँ थी, असहमतियां थीं। बाबा साहब का स्पष्ट पक्ष जिसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार थे कि दलितों को भारत के अंदर,आजाद भारत के अंदर अधिक से अधिक अधिकार मिले और इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के स्टेप उठाए। गाँधी का अपना स्टैंड था कई मामलों में नेहरू का अपना स्टैंड। लेकिन इनके बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बात थी वो थी एक साझा सपना। देश को समतामूलक समाज की तरफ ले जाना, एक दूसरे के लिए सम्मान और अपने निजी हित से आगे बढ़कर सार्वजनिक हित को गरीब, दलित, दमित जनता के हित को महत्त्व देना।

इस पूरे पॉलिटिक्स को इनके बीच में जो पॉलिटिकल विवाद है।जब व्यक्तियों के विवाद के रूप में हम पढ़ेंगे तो हमेशा गलत जगह पहुँचेंगे, जब विचारों के विवाद के रूप में पढ़ेंगे तो निष्कर्ष हमेशा ग़लत होंगे।

ये सब देश का भला करना चाहते थे, लेकिन सबको लगता था की अलग अलग रास्ता देश का भला करने के लिए सही होगा। इसलिए वो अपने अपने रास्ते के पक्ष में लड़ रहे थे। इसको ऐसे समझिए की चार दोस्त बैठे हैं उनको कहीं जाना है। एक कह रहा है ये वाला शॉर्ट कट सहयोग का दूसरा कह रहा है की वो वाला शॉर्टकट सही होगा।  जाना सबको एक ही जगह है तो ये जो सारे हमारे महान नेता थे, चाहे वो महात्मा गांधी हों, चाहे जवाहरलाल नेहरू हो, चाहे सुभाष बोस हो, चाहे सरदार पटेल हो, चाहे बादशाह खान हो, चाहे मौलाना आज़ाद हो, चाहे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर हों, इन सबका गंतव्य एक ही था – एक ऐसा भारत जहाँ हर नागरिक जाति, धर्म इन सारी चीजों से परे सर उठाकर जी सके

 

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Editor, The Credible History

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