कई मायनों में ख़ास है “अ लाइफ़ इन द शैडोज”-ए एस दुलत की नई किताब
भारत के पूर्व रॉ प्रमुख ए एस दुलत की तीसरी क़िताब “अ लाइफ़ इन द शैडोज” कई मायनों में एक ख़ास संस्मरण है. जैसा कि लेखक के परिचय में लिखा है, ए एस दुलत से पहले भारत के किसी स्पाईमास्टर ने संस्मरण लिखने की ज़हमत या ज़ुरअत नहीं की. इसके पहले उनकी “कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स” और “द स्पाई क्रानिकल्स” किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.
लड़ना और अपनी ग़लतियों को स्वीकार करना अहम है
ए एस दुलत पहले अध्याय “बिगिनिंग्स” में बताते हैं कि उनका और उनकी बीवी का ताल्लुक एक बेहद समृद्ध, सुशिक्षित और अभिजात्य घराने से था. दुलत के दादा गुरुदयाल सिंह नाभा के महाराजा के कोर्ट में काम करते थे. उनके पिता शमशेर सिंह दुलत ने इंग्लैंड में पढ़ाई की.
भारत में आकर उन्होंने आईसीएस ज्वाइन किया और आजादी से पहले वेस्ट पंजाब (आज के पाकिस्तान) के महत्वपूर्ण ज़िलों होशियारपुर, सियालकोट और रावलपिंडी के मजिस्ट्रेट रहे. असल में, विभाजन के समय इनके पिता रावलपिंडी के मजिस्ट्रेट थे जहां भीषणतम दंगे हुए. भारत में भी वह हाई कोर्ट के जस्टिस रहे.
बिशप कॉटन स्कूल में दुलत ने सीखा कि जिसमें आपका भरोसा हो उसके लिए लड़ना और अपनी ग़लतियों को स्वीकार करना अहम है. अगर आप कुछ ग़लत करते हैं तो अपना हाथ उठाइए और कहिये यह मैंने किया.
अमरजीत सिंह दुलत स्कूल कॉलेज और यूनिवर्सिटी में क्रिकेट खेलते थे. उसके बाद नौकरी में भी दिल्ली, चंडीगढ़, काठमांडू और भोपाल में क्लब क्रिकेट खेलते रहे. वह लिखते हैं निसंदेह श्रीनगर का शेर ए कश्मीर स्टेडियम दुनिया का ख़ूबसूरततरीन मैदान है.
ए एस दुलत के बेहतरीन जासूस
क़िताब में देश और दुनिया के बेहतरीन जासूसों का ज़िक्र आता रहता है जिसमें से एमके नारायणन (पूर्व आईबी चीफ़ और एनएसए) के लिए उनकी विशेष श्रद्धा है. एमके नारायणन के साथ नार्थ ब्लाक में डेस्क पर काम करते हुए उन्होंने कमरा भी साझा किया.
दुलत लिखते हैं “वह एक सच्चे कलाकार और कम्युनिज्म के जाने-माने उस्ताद थे जो उन दिनों बेहद अहम विषय था. यद्यपि उन दिनों मेरा उनसे संवाद न्यूनतम था फिर भी मैं जानता था कि मैं एक महान शख़्स की संगत में हूं.” हक़ीक़त में पूरी किताब में एन के नारायणन की काफ़ी बात की गई है. “
वह लिखते हैं- मैंने देखा है, एम के नारायणन साप्ताहिक शुक्रवार की मीटिंग्स में हमेशा पहले वक्ता होते थे और जब वो बोलते थे तो विस्मय और उनके सम्मान में पूरे कमरे में सन्नाटा छा जाता था. उन्हें सब कुछ मालूम होता था, चाहे वह सियासी हो अथवा जासूसी. उन्हें सब कुछ जानने के लिए उन पर निर्भर होना पसंद था- एक ऐसा आदमी जिसे किसी भी परिस्थिति के लिए सबसे पहले बुलाया जाए.”
आर एन काव, जिनको आधुनिक भारत का महानतम जासूस समझा जाता है, नारायणन से बहुत जुदा थे: ज़्यादा शांत, अलग-थलग व्यक्ति. प्रचलित मिथक है कि आप कितनी भी बरीक़ी से देखते हैं, आपको ऐसी कोई फोटो नहीं मिलेगी जिसमें काव का चेहरा स्पष्ट दिखता है (जब तक कि हाल में किसी ने उनकी जीवनी नहीं लिखी).
अपने संस्मरण में कई मशहूर पुलिस अफसरों के कार्यशैली और तौर-तरीक़ों का भी जायज़ा लेते हैं. उदाहरण के लिए पंजाब के डीजीपी रहे, ‘सुपरकॉप’ कहे जाने वाले कंवर पाल सिंह (केपीएस) गिल और जूलियो रिबिरो के बीच अंतर का आख्यान रचते हैं.
दरअसल यह अंतर दुलत और उनके सबार्डिनेट रहे अजीत डोवल के बीच का भी हो सकता है. एक जगह वह कहते हैं कि उनके बॉस एमके नारायणन ज़रूरत के मुताबिक़ मुझे गाजर और डोभाल को छड़ी की तरह इस्तेमाल करते थे.
आईबी और रॉ की नाकामियों के बारे में भी बात करते हुए ए एस दुलत सीआईए के पूर्व चीफ रिजल्ट रिचर्ड हेल्म्स को उद्धृत करते हैं कि सिर्फ घंटी को बजाना भर पर्याप्त नहीं है, आपको सुनिश्चित करना पड़ता है कि दूसरा व्यक्ति उसको सुने भी. इसके लिए वह 2001 के पार्लियामेंट अटैक, कंधार विमान अपहरण और 26/11 के मुंबई हमले का उदाहरण देते हैं. इशारों में ये अंदेशा भी जताते हैं कि पार्लियामेंट पर हमला जुलाई 2001 के आगरा समिट के नाकाम होने पर मुशर्रफ की हताशा का नतीजा था.
आपातकाल के दौरान दुलत की तैनाती नेपाल दूतावास में कर दी गई जहां वह सितंबर 1976 से मार्च 1980 तक रहे. वह लिखते हैं कि आपातकाल ने व्यक्तिगत रूप से उनकी ज़िंदगी को प्रभावित नहीं किया. असल में भारत-पाकिस्तान तक़सीम के बाद हुए दंगों की तरह ही आपातकाल की भयावहता पर भी वे ज़्यादा बात करने से भी गुरेज़ करते हैं.
राजनेताओं से मित्रवत ए एस दुलत
माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट जैसे कांग्रेस के ब्राइट स्टार्स को सम्मान पूर्वक याद करते हैं. जब उनकी बेटी प्रिया की शादी हो रही थी तो माधवराव जल्दी आ गए थे लेकिन धैर्यपूर्वक बारात के आने का इंतज़ार करते रहे. फिर वह ख़ामोशी से निकल गए. उनके ख़ामोशी से निकलने को उन्होंने उनकी बेवक़्त वफ़ात के लिए मेटाफर की तरह इस्तेमाल किया. दोनों नेताओं की असमय मृत्यु देश और कांग्रेस पार्टी दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण रही. उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ अपने तवील ताल्लुक़ की तफ़सील देने के लिए एक पूरा अध्याय लिखा है.
1984 के सिख दंगों और भोपाल गैस त्रासदी के दौरान दुलत की तैनाती भोपाल में रही. उसमें कांग्रेस पार्टी के अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे. उनके बारे में दुलत कहते हैं कि वह स्थिति को संभालने में नाकाम रहे. लेकिन बतौर पंजाब के राज्यपाल उनको लोगोंवाल समझौते का आर्किटेक्ट बताते हैं जिसकी वजह से अशांत राज्य में शांति बहाल होने का रास्ता साफ़ हुआ.
डॉक्टर साहब यानि फारूक़ अब्दुल्ला निसंदेह उनके पसंदीदा शख़्सियत हैं जिनके बारे में वह कहते हैं कि आधुनिक कश्मीर का कोई भी अफ़साना डॉक्टर साहिब के ज़िक्र के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता है. वह मई 1988 में अपनी पहली श्रीनगर तैनाती के बारे में लिखते हैं: मेरा काम इतना भर था. हमें फारूक़ को अपने राइट साइड पर रखना था. यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था. मुझे हमेशा लगता था कि फारूक़ हमारे राइट साइड पर ही थे.
1988 में शुरू हुए फारूक़ के साथ रिश्ते को वह गर्व से याद करते हैं जो मुसलसल अब तक क़ायम है. दुलत कहते हैं कि
अनगिनत बार दिल्ली अपने वादे से मुकर गई फिर भी फारूक़ ने माफ़ कर दिया. 1984 में जब जगमोहन की राज्यपाल पर पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया, उन्होंने कश्मीर के साथ उपनिवेश जैसा बर्ताव करने को लेकर चेतावनी दी थी. धारा 370 हटने के पसे मंज़र में वो बात अब भी मौजूँ है.
यूपीए-2 में मंत्री रहने के दौरान सईद नक़वी के साथ इंटरव्यू में वह कहते हैं ग़लती यह होती है कि दिल्ली हम पर भरोसा नहीं करती. धारा 370 हटने के बाद फारूक़ ज़्यादा भावुक, ज़्यादा अक्रामक और गहरे रूप से धार्मिक हो गए हैं. दुलत इशारा करते हैं कि 2020 में नज़रबंदी के बाद जब दिल्ली ने फारूक़ की रिहाई के बारे में सोचना शुरू किया तो उनका मूड जानने के लिए मुझे भेजा गया.
ए एस दुलत और कश्मीरियत
कश्मीरी पंडितों या आईबी ऑफिसियल्स की टारगेट किलिंग पर दुलत ISI और JKLF के लड़ाकों पर ज़िम्मेदारी डाल कर इतिश्री कर लेते हैं. अपने करियर में ज़्यादातर वक़्त कश्मीर में काम करने के बाद भी वह इस सवाल का सामना करने से बचते मालूम पड़ते हैं.
“द मेनी फेसेस ऑफ कश्मीरी नेशनलिज्म” की लेखिका नंदिता हकसर मुंबई में एक लिटरेचर फेस्टिवल में दुलत के साथ पैनल में थीं. कश्मीरियत का सवाल आने पर नंदिता ने इसरार किया कि कश्मीरियत पहले जैसे नहीं रही. माहौल बदल गया है. लेकिन दुलत के हिसाब से कश्मीरियत किसी परिभाषा से परे है. इसका वर्णन करने के लिए “एकजुटता” या “एकता” शायद सबसे सटीक शब्द है.
दुलत की नज़र में विजय धर और आगा अशरफ अली जैसे लोग कश्मीरियत के सच्चे नुमाइंदे हैं. विजय धर कश्मीर में दिल्ली पब्लिक स्कूल चलाते हैं जो देश के सबसे अच्छे स्कूलों में से है. उन्होंने आम बच्चों और उग्रवादियों के बच्चों में कभी भेद नहीं किया. आग़ा अशरफ अली गांधीवादी सेकुलर शिक्षा शास्त्री और प्रोफेसर रहे जो अपने भाई के बरक्स भारत में ही रहे. इत्तेफाक़ से आग़ा अशरफ अली मशहूर शायर आग़ा शाहिद अली के पिता भी हैं
अमरजीत सिंह दुलत अजीत डोवल के साथ नॉर्थ ब्लॉक के आईबी ऑफिस की पार्किंग में हुई अपनी पहली मुलाक़ात को याद करते हैं जिसमें डोवल एम के नारायणन के लिए अहो भाव से भरे हुए थे. चीफ़ के साथ अच्छे रिश्ते होना जासूसी के पेशे में बेहद अहम है. डोवल जितने नारायणन के राइट साइड पर थे उतना कोई और नहीं. उस मुख़्तसर मुलाक़ात में ही दुलत ने भांप लिया था कि डोवल उच्च पदों पर जाने के लिए कितने दृढ़ प्रतिज्ञ थे!
अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए डोवल किसी हद तक गैर पारंपरिक हो सकते थे. उसके लिए दुलत ने उनके मिजोरम में तैनाती के समय का ब्यौरा पेश किया है. आइजवाल में डोवल से मिलने लालडेंगा के एम एन एफ के कमांडर आए थे. डोवल की पत्नी अनु ने उनके लिए पोर्क बनाया जबकि वो पोर्क बनाने की अभ्यस्त नहीं थीं. उनकी पत्नी अनु को कई साल बाद पता चला कि वास्तव में उस रात के उनके मेहमान भारतीय राज्य द्वारा प्रतिबंधित संगठन के लड़ाके थे.
दुलत के अनुसार, 2015 में बीजेपी और पीडीपी गठबंधन के पीछे भी उनके ‘पुराने दोस्त’ डोवल के होने का शुबहा है. 1996 में जब दुलत ने डोवल को फारूक़ से मिलवाया तो वे विनम्र तो थे लेकिन उनके बीच ‘केमिस्ट्री’ नहीं थी. इस तरह वो मुफ्ती मोहम्मद के क़रीब चले गए. इस दोस्ती की वजह से ऐसी चर्चाओं का बाज़ार भी गर्म था कि पीडीपी के गठन के पीछे संभवतः आईबी का हाथ था.
“द वाजपेयी ईयर्स” की तरह ही दुलत शब्बीर (पूर्व अलगाववादी नेता जिनकी हत्या कर दी गई), महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला, मीरवाइज़ उमर फारूक़ के बारे में सकारात्मक बातें करते हैं (ज़्यादातर उम्मीद में). उनकी दलील है कि वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार हुर्रियत से बात कर सकती है तो मोदी सरकार को भी अलगाववादियों से बात करने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए.
अब तो उनसे बातचीत ज़्यादा आसान है. मीरवाइज़ में तो वो कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने की क़ाबिलियत देखते हैं. आख़िर आज़ादी के बाद से ही हमारी कोशिश कश्मीर को मुख्य धारा में लाने की रही है. कश्मीर में शांति के लिए तीन परिवारों ( अब्दुल्ला, मुफ्ती और गांधी परिवार) को दुलत महत्वपूर्ण मानते हैं.
बकौल बृजेश मिश्रा, “कश्मीर में सिर्फ़ पॉपलर के दरख़्त सीधे हैं”. दुलत एक जगह कश्मीरियों के बारे में लिखते हैं, “तुम लोग हरामी हो, मगर प्यारे हो”. कश्मीर और कश्मीरियों के प्रति अपनी संवेदना और सम्मान को प्रदर्शित करने के लिए 19वीं सदी के कश्मीरी शायर रसूल मीर को उद्धृत करते हैं:
‘I am my own messenger.
So, ask my heart
No pen, no message will carry my tale’
(‘मैं ही मेरा क़ासिद हूं.
इसलिए सीधे मेरे दिल से पूछो
कोई कलम, कोई क़सीदा
नहीं कह सकेगी कहानी मेरी.’)
(दीपांकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधछात्र हैं)
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में