बहादुर शाह ज़फर का हमशक्ल शहीद वली ख़ान
हिन्दुस्तान की जंग-ए-आज़ादी में शामिल किसी साधारण से व्यक्ति का क़िरदार भी छोटा नहीं था। वली ख़ान आज़ादी के एक मतवाले का नाम है जिसने ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ 1857 के गदर में बड़ा कारनामा कर दिखाया था। जिसकी कद-काठी, शक्ल-सूरत बादशाह बहादुर शाह ज़फर से बहुत ज्यादा मिलती थी। वह अपने पूरे शरीर, शक्ल-सूरत, कद-काठी और चाल-ढ़ाल से दूसरे बहादुरशाह ज़फर नज़र आते थे। उन्होंने इसका फ़ायदा उठाते हुए 1857 के गदर में इन्क़लाबियों में जोश भरने का काम किया।
विद्रोही सिपाहियों को लगा कि बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने खुद युद्ध का मोर्चा संभाल लिया है, जिसके इन्क़लाबियों में जोश भर गया। वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश अफसर हैरान हो गए और उनके पांव जंग के मैदान में कमज़ोर पड़ने लगे। आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए वली ख़ान 17 मई 1857 को शहीद हो गए…
कौन थे शहीद वली ख़ान
शहीद वली ख़ान का पूर नाम वली दाद ख़ां था। उन्होंने कस्बा कोट ज़िला फ़तेहपुर में रहीम खां के घर जन्म लिया। वह फ़िरंगी फौज के देशी रेजीमेंट न. 11, मेरठ के बड़े अफ़सरों में से थे।
उस समय फ़िरगी हिन्दुस्तान पर अपना क़ब्ज़ा जमाए हुए थे। फ़िरगी फौज के अक्सर नशे में कुछ हरकतें करते थे जो कि देशवासियों के लिए तकलीफ का कारण हुआ करती थी। कभी उनकी रस्म व रिवाज़ में छेड़छाड़, कभी मज़हबी मामलों को ऩजरअन्दाज़ कर उनकी भावनाओं को भड़काया जता था। कारतूसों में सूअर और गाय की चर्बी का मुद्दा भी मज़हबी आस्था को ठेस पहुंचाने वाला विषय था
कारतूसों में सूअर और गाय की चर्बी का किस्सा जब तूल पकड़ा, वली ख़ान को भी अंग्रेज़ अफ़सर ने इस कारतूस का उपयोग में लेने तथा स्टोर में पूराने कारतूस जमा करने के लिए मज़बूर किया। ताक़त के नशे में चूर अफ़सर ने वली ख़ान की एक न सूनी और भला-बुरा कहा।
ये बाते सुनकर वली ख़ान को गुस्सा आ गया। क्योंकि सुअर की चर्बी वाले कारतूस को मुंह से खोलने के लिए उनका मज़हब इज़ाजत नहीं देता था। उन्होंने अकेले ही उस अंग्रेज अफसर को मौट के घाट उतार दिया। इसके कारण ब्रिटिश फौज के मेरठ कैंप में हलचल मची।
अपने रेजीमेंट से बगावत कर 1857 के जंग में हुए शामिल
जब अली ख़ान को पता चला कि फ़िरंगियों ने दिल्ली पर हमला किया है। उन्होंने अपने देसी रेजीमेंट में होने का फ़ायदा उठाकर अपनी रेजींमेंट के साथ दिल्ली कूच कर दिया। वहाँ अपने शल्त-सूरत बहादुर शाह ज़फर से मिलती-जुलती होने के कारण शाही लिबास हासिल करके फौज़ के साथ मैदान में कूद पड़े।
सेना ने उनको बादशाह समझा और विद्रोही सेना का जोश बढ़ गया। वली ख़ान के सेना ने फ़िरगियों पर जोरदार हमला किया और उसे किले से खदेड़ दिया। दूसरे दिन भी उन्होंने इसी बहादुरी से फ़िरंगी सेना का मुलाबला किया और अंग्रेज सेना को मार भगाया।
तीसरे दिन जब वली ख़ान की सेना का अंग्रेज सेना से मुकाबला हुआ तो उन्होंने अपने साथी इकराम ख़ान को कुछ हिदायतें दी। वली ख़ान ने कहा कि आज देश की आज़ादी के लिए मेरी शहादत का दिन है।
जब मैं फ़िरंगी सेना से मुक़ाबला करने लगूं तो तुम मेरे साथ रहना। मेरे जख़्मी हो जाने पर मेरी सवारी पर बैठे जाना और मुझे किले के अन्दर ले जाकर वहीं दफ़न कर देना। हुआ भी कुछ इस तरह से। उसके बाद शाही समान और लिबास, जो वली ख़ान ने उपयोग किया था, वापस कर दिया गया।
शहीद वली ख़ान की बहादुरी और सूझबूझ से स्वतंत्रता के दुश्मनों का बहुत अधिक नुकसान हुआ और हौसलें भी पस्त हुए। इधर बादशाह की सेना के यह समझने से कि बादशाह सलामत इस बुढ़ापे की हालत में भी उनके साथ लड़ाई के मैदान में मौजूद हैं, उनका बहुत हौसला बढ़ा।
इस प्रकार वलीं ख़ान देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए 17 मई 1857 को शहीद हो गए। उनके कुछ रिश्तेदार भी इस संघर्ष में शहीद हुए।
संदर्भ स्त्रोत
मेवाराम गुप्त सितोरिया, हिंदुस्तान की जंगे आजादी के मुसलमान मुजाहिदीन, किताबघर, मुंबई, 1988 एंव 2012, पेज नं 41-42
डां एम.एल. नागोरी, भारत के मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी, राज पब्लिलेशन हाउस, जयपुर, 2002, पेज नं 9
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में