महारानी लक्ष्मी बाई के वफ़ादार पठान स्वतंत्रता सेनानी
भारत में अधिकांशत: ऐसे ही आज़ादी के मतवाले सफल रहे हैं, जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के नेतृत्व में भेद-भाव की भावना मन में नहीं रखी । सभी ने एकजुट होकर कभी किसी मुसलमान मुजाहिद-ए-आज़ादी की रहनुमाई में लड़ाई लड़ी तो कभी हिन्दू स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नेतृत्व में संघर्ष करके फ़िरंगियों के हौसले पस्त किये।
आज़ादी की लड़ाई में जहाँ हिन्दुओं के बग़ैर सफ़लता संभव नहीं थीं, वहीं कोई भी शान्ति पूर्ण आन्दोलन हो या ख़ूनी क्रांति, मुसलमानों की वफ़ादारी और सहायता के बग़ैर उसमें कामयाबी मुमकिन नहीं थी। स्वतंत्रता सेनानी महारानी लक्ष्मीबाई के सेना में ज़्यादातर मुसलमान पठानों की मौज़ूदगी इस बात का खुला सबूत है।
इतिहास के अध्ययन से यह मालूम होता है कि महारानी लक्ष्मी बाई की फ़ौज में बड़ी संख्या में मुसलमान पठान, छोटे एवं बड़े ओहदों पर पदस्थ थे, जो कि रानी के एक इशारे पर सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया करते थे। उनमें का कोई भी मुसलमान फ़ौजी, बहादुरी और वफ़ादारी में किसी से कम नहीं था। उन्होंने जहाँ जंगों में रानी के साथ रहकर दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया, वहीं रानी के प्रत्येक हुक्म पर अपनी जान को भी निछावर कर दिया।
शहीद ग़ुलाम ग़ौस एवं शहीद ख़ुदा बख़्स
शहीद ग़ुलाम ग़ौस एवं शहीद ख़ुदा बख़्स दोनों जांबाज़ पठान झांसी की रानी के तोपखाने में तोपची थे। किसी भी सेना की हार या जीत का फ़ैसला जहाँ पैदल फ़ौजी, घुड़सवारों और हाथी सवारों आदि पर निर्भर करता था, वही सेना में तोपख़ाने का भी बड़ा महत्त्व हुआ करता था। किसी लड़ाई की बड़ी मुहिम के समय जब कि दुश्मन बेक़ाबू हो जाता था अथवा क़िला आदि उड़ाने के लिए तोपख़ाने का उपयोग ज़रूरी होता था।
रानी के तोपख़ाने में ग़ुलाम ग़ौस एवं ख़ुदा बख़्स दोनों बहुत माहिर निशानेबाज़ तोपची थे। फ़िरंगियों ने आज़ादी की लड़ाई कमज़ोर करने के लिए रानी से कई बार संघर्ष किए। तमाम कोशिशों के बाद भी वह रानी के क़िले पर क़ब्ज़ा नहीं कर सके।
जब भी अंग्रेजों ने क़िले पर हमला किया ग़ुलाम गौस, तोपची ने अपने सटीक निशाने लगा कर दुश्मन सेना में लाशों के ढ़ेर लगा दिए। ग़ुलाम ग़ौस, स्वतंत्रता सेनानी ने दुश्मन के हाथों कभी रानी का क़िला नहीं जाने दिया। रानी को ग़ौस पर विश्वास भी था और गर्व भी।
अंग्रेज़ों ने रानी का क़िला जीतने के लिए एक बार बड़ी तैयारी की। बड़ी मात्रा में गोला-बारूद और बड़े तोपख़ाने के साथ क़िले पर ज़ोरदार हमला किया। उधर से ग़ौस पठान ने भी निशाने साध-साधकर अपनी तोपों से दुश्मन पर आग उगलना और गोले बरसाना शुरू कर दिए। ग़ुलाम ग़ौस ने मंदिर को बचाते हुए उसके पीछे छुपी अंग्रेज सेना के परख़च्चे उड़ा दिए थे।
घमासान लड़ाई के कारण मज़बूत क़िले की दीवारें कई जगह से टूट गई। उसी के साथ एक बड़ा हादसा यह भी हुआ कि रानी के तोपख़ाने के सरदार ग़ुलाम ग़ौस को भी दुश्मन की एक तेज़ रफ़्तार गोली आ कर लगी जो उनके मौत का कारण बनी।
रानी का विश्वासपात्र पठान, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ग़ुलाम ग़ौस देश पर अपनी जान न्यौछावर कर अमर हो गया। महारानी लक्ष्मी बाई को उस देश प्रेमी सेनानी के मौत का बहुत ग़म हुआ।
देश के आज़ादी के लिए फांसी का फंदा चूमने वाले, नवाब नूर समद ख़ान
शहीद ख़ुदा बख़्श भी एक देश प्रेमी, अज़ादी के मतवाले, रानी लक्ष्मी बाई के वफ़दार तोपची थे। रानी को ख़ुदा बख़्श पर भी उतना ही भरोसा और गर्व था जितना कि ग़ुलाम ग़ौस पर।
1857 के स्वतंत्रता संघर्ष में जब रानी मैदान-ए-जंग में फ़िरंगियों को या तो मौत के घाट उतार रही थीं अथवा उन्हें धरती की धूल चाटने पर मज़बूर कर रही थी, ऐसे समय में ख़ुदा बख़्श भी रानी के साथ संघर्ष में आगे-आगे रहे। उन्होंने अपनी बहादुरी से जहाँ अंग्रेजों के हौसले पस्त किए वहीं रानी का भरोसा भी जीता।
महारानी लक्ष्मी बाई को अपने वफ़ादार साथी ग़ुलाम ग़ौस और ख़ुदा बख़्श की शहादत पर बहुत ज़्यादा दुख हुआ। रानी ने उन दोनों साथियों के सम्मान में उन्हें अपने ही महल के अहाते में दफ़न करवाया।
रानी के महल के अहाते में बनी हुई दोनों मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों की क़ब्रें देशवासियों को, नफ़रत की दीवारें ढा कर आपसी मुहब्बत और भाई चारे का संदेश दे रही हैं।
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शहीद सरदार बुरहानुद्दीन
महारानी लक्ष्मी बाई जब जंगे आज़ादी के मैदान में चारों ओर से दुश्मन अंग्रेज़ के मज़बूत घेरे में घिर गई। हालात कुछ इस तरह के बने कि दुश्मन किसी पल भी रानी पर हमला करके उनका कत्ल कर सकता था।
इस बीच सरदार बुरहानुद्दीन, जो किसी कारण से रानी की फ़ौजी नौकरी छोड़कर अलग हो गया था, अचानक बीच में कूद पड़ा। तलवारबाजी के माहिर सरदार बुरहानुद्दीन ने अपनी तलवारबाजी से वह कारनामा कर दिखाया कि अंग्रेजों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
इस संघर्ष में बहुत ज्यादा ज़ख्मी हो चुका था। तब रानी उसके क़रीब गई उन्होंने अपने वफ़ादार पठान को पहचान लिया। वह रानी की रक्षा में इतना जख्मी हो चुका था कि तकलीफ़ के कारण बैचेन हो रहा था। महारानी ने तड़पते हुए वफ़ादार सरदार बुरहानुद्दीन के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा कि तुम सच्चे बहादुर सिपाही हो।
उस पठान स्वतंत्रता सेनानी सरदार बुरहानुद्दीन की जान इस तरह उसके जिस्म से जुदा हुई कि उसकी लाश अपनी मातृभूमि की गोद में थी और सर पर महारानी लक्ष्मीवाई का हाथ रखा था।
रानी सरदार बुरहानुद्दीन को भी उठवाकर अपने ही महल में ले गई और महल के अहाते में उन्हें भी दफ़नाया।
गुल मुहम्मद
रानी लक्ष्मी बाई जब जंग के मैदान में बहुत ज्यादा घायल हो गई। घायल रानी का बदला लेने के लिए गुल मुहम्मद ने क़ातिल अंग्रेज पर अपनी तलवार से करारा वार कर उसके शरीर के दो टुकड़े कर दिये।
हालाँकि रानी भी सर का एक भाग कट कर आँख लटक जाने के कारण बेहोश हो कर ज़मीन पर गिर गई। गुल मुहम्मद ने जीतेजी रानी से वफ़ादारी की और ऐसी हालत में भी रानी के शहीद होने पर उन्होंने अपना फ़र्ज़ निभाया।
गुल मुहम्मद वीरांगना की लाश को बाबा गंगा दास की कुटिया के करीब घास के ढेर पर रखकर चिता को अग्नि दी। उस समय गुल मुहम्मद के साथ वहाँ रघुनाथ सिंह भी मौजूद थे। आखिरी दम तक रानी का साथ देने वाले गुल मुहम्मद भी रानी के साथ भारतीय इतिहास में अमर हो गए।
स्वतंत्रता सेनानी गुल मुहम्मद, शहीद ग़ुलाम ग़ौस, शहीद ख़ुदा बख़्श और शहीद सरदार बुरहानुद्दीन की बहादुरी, महारानी लक्ष्मी बाई से वफ़ादारी एवं देश प्रेम इतिहास के पन्नों में अमर रहते हुए देशवासियों को हिन्दू-मुसलमान एकता और सद्भावना का हमेशा संदेश देते रहेगे।
संदर्भ
मेवाराम गुप्त सिरोरिया, हिन्दुस्तान की जंगे-आजादी के मुसलमान मुजाहिद्दीन, किताबघर, मुबंई 1998 एवं 2012, पेज-62-64
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में