महिलाओं के शिक्षा को मौलिक अधिकार बताने वाली, हंसा मेहता
हंसा मेहता को भारत के संविधान सभा सदस्य रही, जिन्होंने 14 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्री को सत्ता के हस्तांतरण के ऐतिहासिक अवसर पर भारतीय महिलाओं की ओर से राष्ट्र-ध्वज भेंट करने का गौरव प्राप्त किया था।
हंसाबेन उन विदुषी महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने भारतीय महिलाओं के गरिमापूर्ण विकास में शिक्षा के महत्व को बखूबी समझा ही नहीं, शिक्षा को मौलिक अधिकार को सूची में शामिल करने की कोशिश भी की। भारतीय लड़कियों के लिए चौदह वर्ष तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की पैरवी की, जिसे हंसा मेहता समिति के सुझाव के रूप में जाना जाता है।
महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए ठोस आधार देते हुए वह कहती हैं कि
हम यह अनिवार्य समझते हैं कि भारतीय महिला के स्तर में सुधार किया जाए ताकि उसे पुरुषों के समान स्तर तक लाया जाए। जिससे कि वे इस देश तथा विश्व के आम पुनर्निर्माण में अपना योगदान दे सकें।
हंसा मेहता का जन्म और जीवन
बड़ौदा राज्य में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, जो बाद में बड़ौदा राज्य के दिवान भी रहें सर मनुभाई मेहता के घर 3 जुलाई 1897 को हंसाबेन का जन्म हुआ।
करल घेलो गुजराती साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है के उपन्यासकार नंद शंकर मेहता, हंसल मेहता के दादा थे।[i]
घर में पढ़ने-लिखाई का महौल उपलब्ध था तो हंसाबेन ने बड़ौदा के विद्यालय और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र से बी.ए. आनर्स किया। हंसा मेहता और उनकी बड़ी बहन जयश्री रायजी स्नात्तिका बनने वाली गुजराती महिलाओं में तीसरे स्थान पर थीं।
हंसाबेन जब पत्रकारिता की पढ़ाई करने इंग्लैड पहुंची, तब वहां उनकी मुलाकात सरोजिनी नायडू से हुई। सरोजिनी नायडू के साथ हंसाबेन महिला आंदोलन के बारे में दीक्षित तो हुई ही, सार्वजनिक सभाओं में भी शिरक्त करना शुरू किया।
सरोजनी नायडू के साथ वह एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में जेनेवा भी गईं। पत्रकारिता की पढ़ाई खत्म करके हंसाबेन अमेरिका की यात्रा पर गईं, जहां वह शिक्षण संस्थाए, शैक्षणिक एवं सामाजिक कार्य सम्मेलनों में शामिल हुईं, मताधिकार करने वाली महिलाओं से मिलीं।
हंसाबेन सैन फ्रांसिस्को, शंघाई, सिंगापुर और कोलंबो होती हुईं भारत आईं। अपनी यात्रा के अनुभवों को बॉम्बे क्रॉनिकल में प्रकाशित किया।
अंतरजातीय विवाह पर करना पड़ा विरोध का सामना
उस दौर में प्रतिलोम विवाह दूसरे शब्दों में अपने से नीची जाति में विवाह समाज को स्वीकार्य नहीं था। यह सामाजिक संरचना के विरुद्ध जाकर बहुत बड़ा कदम था।
3 जनवरी 1924 को डॉ. जीवराज मेहता के संग विवाह किया। जो उस समय बड़ौदा राज्य के प्रधान चिकित्सा-अधिकारी थे।
ऊंची जाति का वैश्य के संग विवाह के प्रतिरोध के लिए गुजरात से बनारस तक में सभाएं की गईं और उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। इन सब चीज़ों से हंसाबेन विचलित नहीं हुईं और कहा, जब जाति से बहिष्कृत हो ही चुकी हूं, तो विवाह स्थगित करने का कोई तुक नहीं है।[ii]
उनके पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के अनुमोदन से 3 जुलाई 1924 हंसाबेन से हंसा मेहता हो गईं। विवाह के पश्चात हंसा मेहता बंबई आ गईं, जहां पति ने किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल और जीएस मेडिकल कॉलेज में डीन का पद संभाला।
बंबई हंसा मेहता की क्षमताओं के विकास के लिए अनुकूल शहर था। यहां हंसा ने शैक्षणिक और सामाजिक कल्याण की गतिविधियों में वक्त देना शुरू किया। हंसा मेहता गुजरात महिला सहकारी समिति, बंबई नगरपालिका विद्यालय समिति, राष्ट्रीय महिला परिषद, अखिल भारतीय महिला सम्मेलन आदि संस्थाओं से जुड़ी रहीं।
हंसा मेहता की रचनाएं
हंसा मेहता ने गुजराती भाषा में बच्चों के लिए बाल साहित्य अनुवाद करना उस दौर में शुरू किया जब बच्चों के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं था। उस समय केवल गिजूभाई मधोका बाल साहित्य के लिए गंभीरता से कार्य कर रहे थे।
हंसाबेन ने बालवार्तावली तैयार की,जो बाल कहानियों का संग्रह था। इसके बाद उन्होंने किशोरवार्तावली, बावलाना पराक्रम, पिननोशियों का अनुवाद, गुलिवस ट्रैवल्स का अनुवाद किया। विभिन्न देशों की यात्रा का वर्णन उन्होंने अरुण नू अदभूत स्वप्नु 1934 में प्रकाशित किया जो बाद में अंग्रेजी में एडवेंचर्स आंफ़ विक्रम तथा प्रिंस आंफ अयोध्या के नाम से प्रकाशित हुई।
हंसा मेहता ने शेक्सपियर के नाटकों का गुजराती अनुवाद, वाल्मीकि रामायण का संस्कृत से गुजराती अनुवाद किया। इसके साथ ही फ्रेंच भाषा की कुछ रचनाओं का भी गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया। अंग्रेज़ी में तीन पुस्तिकाएं प्रकाशित की, वीमेन अंडर द हिंदू लॉ ऑफ मैरिज एंड सक्सेशन, सिविल लिर्बिटी और इंडियन वुमेन।
बच्चों के लिए बाल साहित्य तैयार करना और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय होते हुए कई समितियों से जुड़ा होना हंसाबेन के व्यक्तित्व का एक छोटा सा परिचय है।
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1930 में जब हंसाबेन गॉंधी जी के साथ जुड़कर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी, तो उनके व्यक्तित्व का बहुआयामी पक्ष उभरकर सामने आया। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी में 1932 और 1940 में उनको जेल भी जाना पड़ा।[iii]
हंसा मेहता महिलाओं को संगठित करके स्वतंत्रा संग्राम में भाग लेती रही महिला स्वतंत्रता सेनानियों की बढ़ती संख्या अंग्रेजी सरकार के लिए मुसीबत बन रही थी।
विशालाक्षी मेनन ने अपनी किताब भारतीय महिला और राष्ट्रवाद – यू.पी.की कहानी में 1930 की एक घटना का उल्लेख किया है।
जब कमला नेहरू और हंसा मेहता दिल्ली रेलवे स्टेशन पर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए पहुंची, तब नारे के आवाज़ न पहुंच पाए इसके के लिए अंग्रेजों ने ट्रेन के इंजनों के सिटी को नांन-स्टांप बजवाया था ताकि उसके आवाज़ के नीचे नारों की आवाज़ दबा जाए।[iv]
समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकीकरण पर नेहरु से मतभेद
हंसा मेहता ने महिलाओं के अधिकारों के विषय पर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का घोषणापत्र तैयार करने की ज़ोरदार वकालत की। उनकी अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ, जिसमें राजकुमारी अमृतकौर और लक्ष्मी मेनन शामिल थीं।
यह घोषणा पत्र में महिलाओं के स्तर को प्रभावित करने वाले थे। जिसकी प्रस्तावना में हंसा मेहता ने कहा –
हम यह अनिवार्य समझते हैं कि भारतीय महिला के स्तर में सुधार किया जाए तथा उसे पुरुषों के समान स्तर तक लाया जाए जिससे कि वह इस देश तथा व्यापकतर विश्व के आम पुर्ननिमार्ण में अपना योगदान कर सके। इस लक्ष्य को दृष्टि में रखकर व्यक्ति के नाते तथा समाज की सदस्य के रूप में भारतीय महिला के अधिकारों के विषय पर भावी विधि-निमार्ण के आधार-स्वरूप इन मांगों का निर्धारण किया गया है। यह घोषणा पत्र महिला नागरिक अधिकार, शिक्षा और स्वास्थ्य, संपत्ति से संबंधित अधिकार, विवाह, परिवार में स्थान, महिलाओं के कर्तव्यों इत्यादी का समावेश था।[v]
हंसाबेन समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ज़रूरी मानती थी, जिसको लेकर पंडित नेहरू से उनके गहरे मतभेद भी थे।[vi]
हंसाबेन ने महिलाओं के स्तर में सुधार के अपने उद्देश्य को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी रखने की कोशिश की। संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘महिलाओं के स्तर’ से संबंधित आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व किया और ‘मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र’ का प्रारूप तैयार करने वाले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
वह दर्जनों अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडलों में शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व करती रहीं। उनके इन योगदानों के लिए उन्हें 1959 में पद्मभूषण से विभूषित किया गया।
नौ साल तक महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के उप-कुलपति के तौर पर उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को वह स्वरूप देने का काम किया, जो उन्होंने विश्वभर भ्रमण के दौरान अर्जित किया था।
शिक्षा को सामाजिक कार्य से जोड़ने के पीछे उनका दार्शनिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण था। इस कार्य में टकराव की स्थिति में वह तर्कसंगत सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करती पर सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करती।
कठिन परिस्थितियों में आशावादी रहने वाला लंबा जीवन जीते हुए 4 अप्रैल 1995 को अपने पीछे एक बड़े संघर्ष की पंरपरा छोड़कर चली गईं। महिलाओं के स्तर में सुधार के लिए उनके प्रयासों को संयुक्त राष्ट्र संघ ने सराहा और एक कालजयी विदुषी महिला के रूप उनके योगदानों को याद करता है।
सदंर्भ
[i] अंनजी मेहता, हंसा मेहता(1897-1995), संपादन-सुशीला नायर, कमला मनकेकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट आंफ इंडिया, 2005- पेज 346
[ii] अंनजी मेहता, हंसा मेहता(1897-1995), संपादन-सुशीला नायर, कमला मनकेकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट आंफ इंडिया, 2005- पेज 347
[iii] अंनजी मेहता, हंसा मेहता(1897-1995), संपादन-सुशीला नायर, कमला मनकेकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट आंफ इंडिया, 2005- पेज 348
[iv] योगेश श. पाण्डेय, वीरांगनाएं, भारत की महान मातृशक्ति को समर्पित, Notion Press Media Pvt Ltd, 2021, पेज 105
[v] अंनजी मेहता, हंसा मेहता(1897-1995), संपादन-सुशीला नायर, कमला मनकेकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट आंफ इंडिया, 2005- पेज 350
[vi] अंनजी मेहता, हंसा मेहता(1897-1995), संपादन-सुशीला नायर, कमला मनकेकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट आंफ इंडिया, 2005- पेज 352
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री