उर्दू अदब के महान शायर- मजाज़ लखनवी
मजाज़ लखनवी उर्दू के प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ा रहे और एक रोमानी शायर के रूप में मशहूर हुए। लखनऊ शहर से जुड़े होने की वज़ह से मजाज़ लखनवी नाम से मशहूर हुए। लेखन के शुरुआती दौर में उपेक्षा होने के बावजूद कम लिखकर भी उन्होंने बहुत ज्यादा प्रसिद्धि पाई।
एक रहस्य के तरह है मजाज़ की शायराना ज़िन्दगी
मजाज़ लखनवी हकीकत में उस रहस्य का नाम है, जिसे ज़माना उसकी मौत के बाद भी आज भी समझने का कोशिश कर रहा है। उर्दू के तमाम शायरों में अगर सबसे शायराना ज़िन्दगी किसी की रही तो वह मजाज़ ही थे।
19 अक्टूबर 1911 को अवध के प्रसिद्ध शहर बाराबंकी के रदौली शहर में हुआ। माता-पिता ने असरारुल हक नाम रखा। परंतु, मजाज़ तख्ल्लुस अपनाया।
शुरुआती पढ़ाई आगरा में हुई, अमीनाबाद इंटर कांलेज से हाई स्कूल पास किया, सेंट जांन्स कालेज इंटर साइंस में दाखिला लिया। दिल साइंस पढ़ने में नहीं लगा और इंटर में फेल हो गए। इसके बाद उन्होंने अलीगढ़विश्वविद्यालय आर्ट विषय लिए और उतीर्ण भी हुए।
अलीगढ़ का यह दौर उनके जीवन के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ। जहां वो मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार जाफरी, सिब्ते हसन, जां निसार अख्तर जैसे शायरों से हुई।
मशहूर लोगों के सोहबत में मजाज़ के कलाम को निखरने का मौका मिला। गजल की दुनिया में बड़ा सितारा बनकर उभरे और उर्दू अदब के फलक पर छा गए।
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मजाज़ के किस्से हमेशा चर्चे में रहे और मजाज़ीफे बन गये
उर्दू अदब की दुनिया में मजाज़ के नज़्म ही नहीं, उनके किस्से के भी चर्चे हमेशा रहे। मजाज़ के लिए लड़कियों में अगल तरह की दिवानगी थीं और उनकी नज़्में गर्ल्स हास्टल के तकियों में दबी मिलती थीं। बावजूद इसके मज़ाज ताज़िन्दगी प्यार के तलबगार ही रहे… और इस तलब का पूरा न होना मज़ाज की बर्बादी का सबब बना।
एक दफा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में ही इस्मत चुगताई ने उनसे कहा कि लड़कियां मजाज़ से मुहब्बत करती हैं। इसपर मजाज़ ने तपाक से कहा-और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं।
ज़िन्दगी में सबकुछ बदलता रहा, लेकिन हाज़िरजवाबी का ये सिलसिला हर दौर में मजाज़ के साथ रहा।
जब इस्मत चुगताई ने उनसे पूछा कि – मजाज़, तुम्हारी ज़िन्दगी को बर्बाद लड़की ने किया या शराब ने?, तो मजाज़ ने कहा कि –मैंने दोनों को बराबर का हक़ दिया है।
मजाज़ के ऐसे कई लतीफे जिन्हें बाद में मजाज़ीफे कहा जाने लगा, आज भी लखनऊ की आबो-हवा में बिखरे पड़े हैं।
एक दफ़ा मजाज़ को आगरा की मशहूर फनकार जानकीबाई से मिलवाया गया, तो शर्मीले स्वभाव वाले मजाज़ ने कहा कि – क्यूं मिलवा रहे हो भाई, बाई कहीं की भी हो बहुत कष्ट देती है और फिर ये तो जान- की-बाई है।
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मजाज़ की शायरी, इश्किया भी थी और इंकबाली भी
मजाज़ की शायरी के दो रंग हैं- एक इश्किया, दूसरा इंकबाली। पहले रंग में वे इश्किया गजलकार नजर आते हैं जबकि दूसरे रंग में उनके इंकलाबी शायर होने की झलक मिलती है। प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ने के बाद उनकी शायरी व उनके लेखन को नया विस्तार मिला। वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए थे। स्वभाव से रोमानी शायर होने के बावजूद उनकी शायरी में प्रगतिशीलता के तत्व मौजूद रहे।
एक तरफ वह कहते है तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था। वही दूसरी तरफ यह भी कहते हैं – कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी, कुछ मुझे भी खराब होना था।
कहते है कि आगरा तक तो मजाज़ इश्किया शायर थे, पर अलीगढ़ आते-आते इश्किया शिद्दत इंकबाल में तब्दील हो जाती थी।
मजाज़ उस दौर के शायर हैं जब उर्दू अदब में तरक़्की पसंदी की तहरीक अभी परवान चढ़ रही थी। उस समय देश में सम्राज्यवाद-विरोधी उभार जारी था, मज़ाज को अगर उसी उभार का शय़र कहा जाए तो कुछ ग़लत नहीं होगा। इसलिए जब तरक़्की पसंदी की लहर ने एक अंजुमन की शक्ल में बाक़ायदा एक संगठित शक्ल इख़्तियार कर चुकी थी, उससे मजाज़ का जुड़ाव स्वाभाविक था। अपनी शायरी में उपयुक्त शब्दों का चयन और भाषा की रवानगी ने उनकी शायरी को लोकप्रिय बनाने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
रात और रेल, नज़र, अलीगढ़, नज़र खालिदा, अंधेरी रात का मुसाफिर, सरमायादारी जैसी बेजोड़ रचनाएं लिखीं। उस दौरान मजाज़ आल इंडिया रेडियों की पत्रिका आवाज के सहायक संपादक होकर दिल्ली में नौकरी भी की।
जब दिल्ली में नाकाम इश्क के दर्द ने लखनऊ लौटा दिया तव देखते-देखते मजाज़ शराब के नशे में डूबते चले गए। 1954 में उनको पागलपन का दौरा पड़ा, फिर भी शराब की लत नहीं गई। बेपरवाह और अराजक जिंदगी जीते हुए 15 दिसंबर 1955 को दिमाग की नस फटने से दुनिया को अलविदा कह दिया अजीम शायर मजाज़ लखनवी ने।
संदर्भ
नरेंदर गोविंद बहल, उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ और उनकी चुनिंदा शायरी, डायमंड पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में