पराधीनता की जंजीरे तोड़ने का संकल्प लिया था तात्या टोपे ने
ग्वालियर से 120 कि०मी० दूरी पर स्थित शिवपुरी किले के कवायत के मैदान में ब्रिटिश टुकड़ियों ने अपने खेमे गाड़ दिये थे। दोपहर चार बजे एक मुस्कुराता हुआ सुन्दर व्यक्तित्व वाला कैदी जेल से बाहर लाया गया।
उसके हाथों और पैरों में जंजीरें पड़ी थीं। सिपाहियों की निगरानी में उसे फाँसी के तख्त के पास ले जाया गया। उसे मौत की सजा सुनाई गयी थी। कैदी तख्त की ओर निर्भयता से बढ़ा। तख्त पर पैर रखते समय उसमें तनिक भी भय नहीं था। परिपाटी थी कि मृत्युदंड दिये गए व्यक्ति की आँखें रुमाल से बाँध दी जायें। पर जब सिपाही रुमाल लेकर आगे बढ़े तो कैदी मुस्कुराया और उसने इशारे से समझा दिया कि “मुझे उसकी कोई आवश्यकता नहीं ।” उसने अपने हाथ-पैर बँधवाने से भी इन्कार कर दिया। अपने हाथ से ही उसने उस फंदे को अपनी गर्दन में फँसाया। फंदा कसा गया, अंत में एक झटका और पलभर में सब कुछ समाप्त।
यह एक हृदयविदारक दृश्य था । सारे देश ने आँसू बहाये। पूरे देश का हृदय शोक में डूब गया। फाँसी के तख्त पर झूलती वह प्राणहीन काया किसी उच्च आदर्श का प्रतीक थी। वह था स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों का सरसेनापति, जिसने 1857 में अंग्रेजी सत्ता को ललकारा था, जिसने उनकी सत्ता की नींव हिला दी थी। स्वतंत्रता – ध्वज उठाये उसने पराधीनता की जंजीरे तोड़ने का संकल्प लिया और बड़ी बहादुरी से उसने अंग्रेजों की सैन्य शक्ति से लोहा लिया था। वह वीर था तात्या टोपे जिसका नाम शक्ति और शौर्य का ज्वलन्त उदाहरण था ।
नानासाहब का दाहिना हाथ थे तात्या टोपे
तात्या टोपे का जन्म 1814 में हुआ था। पिता का नाम था पांडुरंगपत। पांडुरंगपत नासिक के पास येवले नामक छोटे से ग्राम के निवासी थे। उनके 8 बच्चे थे। दूसरे बच्चे का नाम रघुनाथ था। यही बालक आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पेशवा बाजीराव द्वितीय का उस समय पुणे में शासन था । पांडुरंगपत उस दरबार के एक सम्माननीय सदस्य थे । तात्या अपने पिताजी के साथ अक्सर पेशवा दरबार में जाते थे। बच्चे की प्रतिभा मानो उसके तेजस्वी और मुखर नेत्रों से छलक पड़ती थी । इन्हीं विशाल और आकर्षक नेत्रों ने जल्द ही पेशवा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। पेशवा बच्चे की प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए और उन्होंने एक रत्नजड़ित टोपी उसे पहना दी । रघुनाथ को प्यार से उसके अपने परिजन, पुरजन तात्या कहकर पुकारते थे। जब से पेशवा ने बालक तात्या को टोपी पहनाई तब से वह मानो उसकी चिरसंगिनी हो गई। लोग तात्या को तात्या टोपे कहने लगे और आजन्म यही नाम उनका अपना हो गया।
पेशवा ने अपना राज्य, 8 लाख वार्षिक पेंशन की एवज में, अंग्रेजों के अधीन कर दिया। पैंशनभोगी जीवन जीने के लिए पेशवा कानपुर के पास ब्रह्मावर्त में जा बसे। कई मराठा परिवारों ने उनका अनुकरण किया जिनमें पांडुरंगपत एक थे। बालक तात्या टोपे भी पिताजी के पीछे हो लिया ।
ब्रह्मावर्त में जो तात्या टोपे के बाल – सहचर रहे, वे सभी बाद में स्वाधीनता संग्राम में अविस्मरणीय त्याग और सेवा के लिए जाने गये। इन सबमें उल्लेखनीय हैं नानासाहब । नानासाहब, बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र था, और उन्होंने ही बाद में 1857 के युद्ध की योजना बनाई थी। उनका भतीजा था रावसाहब । क्रांन्ति युद्ध में रावसाहब छाया की भाँति तात्या के साथ रहा। घटनाओं के किसी भी प्रसंग में उसने तात्या का साथ नहीं छोड़ा। इसी समय एक नन्हीं बालिका भी थी जिसका नाम था मनू । यह बालिका मोरोपंत तांबे की सुकन्या थी । मोरोपंत पेशवा दरबार के स्वामिभक्त सरदार थे। तेजस्विनी मनू का प्यार का संबोधन था छबीली । यही छबीली आगे चलकर वीरता व साहस से शत्रुओं को परास्त करते हुऐ ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ कहलाई ।
इन बच्चों की शिक्षा-दीक्षा निष्ठावान और कुशल गुरुओं के जिम्मे थी। बचपन से ही ये युद्ध के खेल खेलते तथा घुड़सवारी और तलवार चलाना सीखते। तात्या बहुत शीघ्र युद्ध की समस्त कलाओं में निपुण हो गया।
बाजीराव द्वितीय की मुत्यु के पश्चात् नाना साहब 1851 में पेशवा बने। नानासाहब बड़े आत्माभिमानी और कट्टर स्वतन्त्रता प्रेमी थे। वे दासता के कलंक को धो डालना चाहते थे । पेशवा बनते ही उन्होंने पिता की तलवार उठा ली जिसका उन्होंने 1818 में उपयोग किया था । खोये हुए राज्य की पुन: प्राप्ति और पराजय का प्रतिशोध – यह उनके जीवन का ध्येय बन गया। तात्या टोपे उनके अभिन्न मित्र और परामर्शदाता भी थे। दोनों का एक ही लक्ष्य था – स्वतन्त्र भारत ।
स्वप्न था – पराधीनता के अंधकार का सर्वनाश
मराठों की हार ने अंग्रेजों को भारत में एक शक्तिशाली शासक बना दिया। लोगों की भावनाओं की तनिक भी परवाह न करते हुऐ वे हर अच्छा या बुरा मार्ग अपनाने लगे। जब लार्ड डलहौजी गवर्नर जनरल बनकर भारत आया तो देश का नक्शा और बदल गया । उन्होंने कुटिलतापूर्वक भारतीय युवराजों के राज्य छीन लिए ।
इसी बीच ईसाई मिशनरी भी अधिक संख्या में भारत आने लगे थे। उनका एकमात्र ध्येय था भारतीयों में ईसाई धर्म का प्रचार और उन्हें किसी न किसी प्रकार से ईसाई धर्म स्वीकार करने को बाध्य करना । राज्य का शक्तिशाली छत्र उन पर था, इसलिए उन्हें किसी का भय न था।
अब तक अंग्रेज छोटी-बड़ी कई रियासतों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर चुके थे। मुगल बादशाह को भी एक तरफ कर दिया था। अवध के नवाब को गद्दी से हटाकर उसका राज्य जबरदस्ती छीन लिया था । दत्तक पुत्र के अधिकार को अस्वीकार कर डलहौजी ने झाँसी भी अपने नियन्त्रण में किया।
फिर नानासाहब की बारी आई। पेशवा को मिलने वाली आठ लाख रुपयों की वार्षिक पेंशन डलहौजी ने बन्द कर दी। तर्क यह दिया कि नानासाहब केवल दत्तक पुत्र थे । नानासाहब अत्याचारी और अहंकारी अंग्रेज़ी शासन से पहले ही क्रुद्ध थे, अब इस अपमान ने उन्हें और क्रोधित कर दिया।
तात्या टोपे ने अंग्रेजों को ब्रह्मावर्त से बाहर खदेड़ने के लिए जान की बाजी लगा दी और वह अन्त तक लड़ता रहा। उसे अंग्रेजों से बहुत घृणा थी क्योंकि उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता को छीना था, अपमानित किया था। तात्या टोपे के लिए उसका देश स्वर्ग से भी अधिक प्रिय था। इसी में उसके प्राण बसे थे ।
वास्तव में देश में चारों ओर असंतोष की आग जल रही थी। वे स्वराज्य और स्वधर्म के लिए तन-मन-धन की आहूति चढ़ाने के लिए तत्पर थे। दासता के कलंक को चुपचाप सहना उनके लिए असह्य हो गया था। अंग्रेजों की बढ़ती शक्ति उन्हें डराने में असमर्थ थी । देश का वातावरण क्रांति के लिए पूरी तरह से अनुकूल था।
नानासाहब तत्कालीन परिस्थिति में युगपुरुष साबित हुए। उन्होंने लोगों के हृदय की जलती हुई आग को पहचाना। तात्या टोपे उनका दाहिना हाथ थे । अंग्रेज भारत में शाक्तिशाली थे तो इस शक्ति का स्रोत क्या था? स्रोत थी वह सेना जिसमें भारतीय अंग्रेजों के लिए लड़ते थे। नानासाहब और तात्या टोपे ने इन भारतीय सिपाहियों के सामने राष्ट्रीयता का आदर्श रखा। युद्ध के लिए उन्होंने रेजिमेंटों से संपर्क साधा। प्रमुख राजाओं से भी उन्होंने मेल-जोल बढ़ाया ताकि इस युद्ध के विषय में उनके विचार मालूम हो सकें। क्रांति का सन्देश देश भर में फैला । दिल्ली के बहादुरशाह, झांसी की लक्ष्मीबाई, जगदीशपुर के कुँवर सिंह तथा अन्य कई राजाओं ने इस युद्ध के सेनापतित्व का भार सम्भाला। तात्या टोपे पेशवा के मुख्य सेनापति थे ।
सिपाही रेजिमेंट में पहली गोली दागी थी “मंगल पांडे” ने
प्रत्येक रेजिमेंट के सिपाहियों ने विद्रोह करने का निश्चय कर लिया था। इस महान आन्दोलन की योजना गुप्त रूप से बनी थी। पूरा कार्यक्रम बड़ी बारीकी और स्पष्ट रूप से बनाया गया था। 31 मई 1857 को सारे देश में एक साथ विद्रोह शुरू होना था । यदि समस्त भारत एक ही दिन एक ही साथ विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता । किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ !
बैरकपुर में एक अनपेक्षित घटना घटी। 31 मई को अभी दो माह बाकी थे, जब बैरकपुर की सिपाही रेजिमेंट ने पहला वार किया। जिस वीर ने पहली गोली दागी, उस वीर का नाम था “मंगल पांडे”।
हिन्दुस्तानी फौज को आदेश मिला कि बंदूकों में नये कारतूसों का प्रयोग किया जाऐ। पता चला कि नये कारतूसों में चिकनाहट के लिए गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। भारत में चारों ओर यह खबर क्रांतिकारियों ने ही फैलायी थी । सिपाही इस खबर को सुनकर बहुत ही उत्तेजित हो गये। यह उनके धर्म का प्रश्न था । गाय और सुअर की चर्बी छूना अधर्म था। बार-बार डराने धमकाने के बावजूद भी उन्होंने नई कारतूसों का उपयोग करने से इन्कार कर दिया। गोरे अफसरों ने भारतीय सिपाहियों के हथियार छीनने का आदेश दे दिया। किसी भी सिपाही के लिए उसके हथियार उसका मान-प्रतिष्ठा हैं। यह आदेश उनके लिए सरासर अपमान था।
मंगल पांडे उसे सह न सका, वह तिलमिला उठा। वह देशभक्त, स्वाभिमानी और बहादुर सिपाही था । उसका खून खौल उठा। उसकी एक ही गोली ने उसके अधिकारी ह्यूगसन का काम तमाम कर दिया। अपमानित होकर जीने से मृत्यु अच्छी, यह सोचकर उसने एक गोली अपने ऊपर भी चला दी। वह घायल हो कर गिर पड़ा। उसे हिरासत में ले लिया गया और उसका कोर्ट मार्शल किया गया। सजा मिली -मृत्युदंड | उसके साथी सिपाही आँसू बहाते हुए देखते रहे और 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे फाँसी के तख्त पर झूल गया।
मंगल पांडे का साहस सर्वथा सराहनीय था पर जल्दबाजी के कारण पूरी योजना में गड़बड़ी हो गई । यदि निश्चित किये हुए दिन तक वह अपने को रोक सकता तो विद्रोह सफल हो जाता। मंगल पांडे की जल्दबाजी का परिणाम यह हुआ कि विद्रोह छुटपुट ढंग से अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर हुआ जिससे विद्रोह की प्रचंडता क्षीण गई।
बैरकपुर की घटना के एक माह बाद, मेरठ रेजिमेंट ने विद्रोह की आवाज उठाई। 10 मई को मेरठ “मारो फिरंगी को” की गगनभेदी ध्वनि से गूँज उठा ।
मेरठ क्रांति की आग में जल रहा था। अंग्रेज जान बचाने यहाँ-वहाँ भाग रहे थे। बहुत कम समय में सिपाहियों ने मेरठ पर कब्जा कर लिया और फिर 58 कि०मी० दूरी पर स्थित दिल्ली की ओर मोर्चा बढ़ा दिया। इस बार गगनभेदी नारा था – “चलो दिल्ली”। दूसरे दिन दिल्ली पर विद्रोहियों ने विजय पा ली और बहादुरशाह को बादशाह बना दिया।ये समाचार ब्रह्मावर्त में पहुँचे । नानासाहब और तात्या टोपे ने अपनी योजना का कोई भी लक्षण प्रत्यक्ष रूप से प्रकट नहीं होने दिया। दोनों अनुकूल समय की ताक में थे। उनके इस व्यवहार के कारण अंग्रेज़ो के मन में उनके प्रति तनिक भी सन्देह नहीं हुआ। नानासाहब और तात्या टोपे की ओर से मानो वे पूरी तरह निश्चित थे।
परन्तु अंग्रेज अब निश्चित रूप से घबरा गये थे । कानपुर का मुख्य अधिकारी ह्यूग व्हीलर यह जान गया था कि विद्रोह शीघ्र होगा । उसे भयंकर चिन्ता थी अंग्रेजों के जान-माल की सुरक्षा की। इसके अतिरिक्त उसके पास सरकारी कोष में 12 लाख रुपये थे । उसने नानासाहब से सहायता माँगी । नानासाहब, तात्या टोपे और 300 सिपाहियों को साथ लेकर कानपुर पहुँचे। साथ में कुछ गोला-बारुद भी था। नानासाहब को खजाने की सुरक्षा का भार सौंप व्हीलर निश्चित हो गया। व्हीलर जिन्हें मित्र समझ बैठा था उन दो पराक्रमी शत्रुओं के मस्तिष्क में सुलगते हुए ज्वालामुखी को परखने में वह असमर्थ था।
सिपाहियों के विद्रोह का सैन्य संचालन नानासाहब और तात्या टोपे ने किया
कानपुर आते ही नानासाहब ने सिपाहियों के नेता सूबेदार टीका सिंह से संपर्क साधा। नोकाविहार के बहाने, एक दिन नाना गंगा- तीर आये । यहाँ टीका सिंह अपने साथियों के साथ पहले ही उपस्थित था । पवित्र गंगा माँ की साक्ष और सौगंध लेकर शपथ ली गईं और योजना बनाई गईं कि 4 जून मध्य रात्रि को कानपुर पर आक्रमण किया जाए।
निश्चित दिन आ पहुँचा। सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह भयंकर प्रतिशोध का युद्ध था । नानासाहब और तात्या टोपे ने सैन्य संचालन किया। अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ी। भारी संख्या में फ़िरंगी मारे गये। 12 लाख रुपये की धनराशि का हस्तांतरण तुरन्त हो गया। सिपाहियों ने कानपुर पर अधिकार जमा लिया। उनके आनन्द और उत्साह की सीमा नहीं थी। नानासाहब को विधिपूर्वक समारोह में पेशवा पद पर आरूढ़ किया गया। देश का एक वीरपुत्र फिर से देश का कर्णधार बना । झाँसी कानपुर का शीघ्र ही अनुकरण किया। रानी लक्ष्मीबाई ने फिर से झाँसी की गद्दी पर अपने अधिकार की घोषणा की। तलवार हाथ में लिए यह वीरांगना बिजली की तेजी से युद्ध भूमि में उतरी। कानपुर और झाँसी के विद्रोह के समाचार आग की तरह चारों ओर फैल गये ।
यह विजय अल्पजीवी थी। अंग्रेजों की ताजी कुमुक कानपुर पहुँची और पुनः भयंकर लड़ाई छिड़ी। इस बार 16 जून को नानासाहब की सेना हार गई। नानासाहब बचेखुचे सिपाहियों को लेकर पीछे हट गये। पराजय से सिपाही बुरी तरह हतोत्साहित हो गये थे। अंग्रेजों की सुसज्जित और अनुशासित सेना का मुकाबला वे नहीं कर सकते थे।
एक गम्भीर प्रश्न था – सेना का पुनः संगठन ? कौन इनके दिलोदिमाग को हिम्मत और प्रेरणा से भर सकता है ? नानासाहब ने यह उत्तरदायित्व तात्या को सौंपा। नाना की आज्ञा तात्या ने शिरोधार्य की । तात्या अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता, कठिनता और महत्त्व से पूर्ण रूप से परिचित थे। सामने अनेक कठिन समस्याएँ थीं। बिखरे हुए सिपाहियों का संगठन, उनके अन्न तथा आश्रम की व्यवस्था, शस्त्र एकत्रित करना, अनेक प्रकार की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था करना आदि अनगिनत समस्याएँ थीं। फिर भी तात्या ने यह कठिन आह्वान स्वीकार किया।
पहले वे सीधे शिवराजपुर गये। वहाँ की रेजिमेंट ने हाल ही में विद्रोह किया था। तात्या ने विद्रोही सिपाहियों को अपनी ओर कर लिया । एक नयी सेना संगठित की। इस प्रकार भारी संख्या में सेना साथ लेकर तात्या ने कानपुर के विजेता हॅवलॉक पर आक्रमण कर दिया; हॅवलॉक लखनऊ की ओर बढ़ रहा था। इस अचानक हुऐ आक्रमण से अंग्रेज हतप्रभ रह गये। मराठों की गुरिल्ला युद्धप्रणाली द्वारा तात्या टोपे ने अंग्रेजों पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया। फिर तात्या की दृष्टि कानपुर से 70 कि०मी० दूर काल्पी पर पड़ी। वह केन्द्रीय स्थल पर बसी होने के कारण एक ओर फतेहपुर और दूसरी ओर नानासाहब और लक्ष्मीबाई के मुख्यालय झांसी को जोड़ने वाली मुख्य कड़ी के समान थी। वह बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था। तात्या ने काल्पी के किले पर धावा बोल कर अविलंब उसे अपने नियन्त्रण में कर लिया।
अब तात्या ने काल्पी को सैन्य गतिविधियों हेतु मुख्य छावनी में परिवर्तित करने का कार्य आरंभ कर दिया। उसने किले की सुरक्षा को और सुदृढ़ किया। वहीं शस्त्र तैयार करने का काम भी आरंभ हुआ । अत्यन्त तीव्रगति से तात्या ने कई और किले जीत लिये।ग्वालियर रेजिमेंट अभी तक निष्क्रिय थी । वेश बदल कर तात्या मोरार में स्थित सिंधिया रेजिमेंट पहुँचे। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व और शब्दों ने सिंधिया के सिपाहियों का हृदय जीत लिया। अब तात्या की सैनिक शक्ति काफ़ी बढ़ गई जिससे क्रान्ति को नया बल मिला।
उस समय कानपुर मेजर विडहॅम की कमान् में था। तात्या को समाचार मिला कि विडहॅम की सैनिक संख्या पर्याप्त नहीं है। तात्या ने सिपाहियों का संगठन किया, यमुना पार की और असावधान विडहॅम के सम्मुख विकराल काल-सा जा उपस्थित हुआ। विडहॅम हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं था । फलतः तात्या ने उसे बुरी तरह पराजित किया। लड़ाई पांडु नदी के तट पर हुई थी। इस युद्ध में मानो साक्षात् प्रतिशोध ने विकराल रूप धारण कर लिया था। अंग्रेज सेना को तात्या ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था । जान-माल की भारी क्षति ने अंग्रेजों को पंगु बना दिया। काल्पी के बाद कानपुर भी उनके हाथ से निकल गया। कानपुर पर पुनः विजय प्राप्त कर तात्या ने खोये हुए गौरव को पुनः पा लिया था।
तात्या टोपे का यश यूरोप के कोने-कोने में फैल चुका था। ब्रिटेन के घर-घर में उसके नाम का आतंक छाया था । कानपुर एक बार फिर से नानासाहब के हाथ में था और वह अंग्रेजों द्वारा सताये हुए सैनिकों का संगठन केन्द्र बन गया।
कॉलिन कैंपबल नामक एक अंग्रेज सेना – पदाधिकारी उस समय लखनऊ में था । अत्यंत युद्ध कौशल – सम्पन्न कैंपबल ने तात्या के शौर्य और नेतृत्व को अपनी आँखों से देखा था। उसने निश्चय किया कि यदि अंग्रेजों को भारत में टिकना है तो तात्या को रास्ते से हटाना ही होगा । तात्या की गिरफ्तारी अंग्रेजों का मुख्य लक्ष्य बन गया था।कॉलिन ने तत्काल अपनी सेना एकत्रित की। परन्तु कैम्पबल को भारी निराशा हुई क्योंकि तात्या टोपे को पकड़ने के उसके सारे प्रयास विफ़ल रहे।
काल्पी के शिल्पकार – निर्माता थे – तात्या टोपे ।
अब तात्या टोपे ने राजा-महाराजाओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। तात्या ने इनसे बार- बार सहायता माँगी थी। कुछ राजाओं में इतना देश-प्रेम तो था कि वे तात्या को कम से कम लुके – छिपे सहायता देते थे । कुछ अंग्रेजों के भय के कारण निष्पक्ष थे। पर कुछ ऐसे भी थे जो स्वार्थवश अंग्रेज शासकों के प्रति निष्ठा तथा अपने ही देशवासियों के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे।
एक शासक था चरखारी रियासत का राजा । उसने न सिर्फ स्वतंत्रता की पुकार अनसुनी की थी अपितु उसका व्यवहार नितांत अविवेकी और मूर्खतापूर्ण था । उसने नानासाहब का निरादर किया था। तात्या टोपे ने निश्चय किया कि प्रत्येक देशद्रोही को ऐसा सबक सिखाया जाये, जिसे वह आजन्म याद रखे । चरखारी का शासक तात्या का पहला शिकार था ।
तात्या के आगमन की सूचना मिलते ही चरखारी शासक के होश उड़ गये। वह भयकंपित हो गया । भयभीत देशद्रोही ने अंग्रेजों से सहायता की प्रार्थना की। वाइसराय कॅनिंग और कमांडर-इन-चीफ कॅम्पबेल ने उसे सुरक्षा का आश्वासन दिया। उन्होंने एक प्रसिद्ध अंग्रेज सेनापति सर ह्यू रोज को अपने वफ़ादार मित्र की सहायता के लिए भेजा परंतु उसे झांसी में ही रोक लिया गया। तात्या को पूरी सूचना पहले ही मिल चुकी थी। वह तुरन्त चरखारी की राजधानी पहुँचा और चारों ओर से घेरा डाल दिया। कुछ संघर्ष के बाद शहर पर नियन्त्रण हो गया। साथ में 24 तोपें और 3 लाख रुपये की राशि भी मिली। देशद्रोहियों को सबक मिल गया कि तात्या टोपे के क्रोध से उन्हें अंग्रेज़ वाइसराय और कमांडर भी नहीं बचा सकते।
काल्पी को छावनी बनाकर तात्या ने बहुत चतुराई की थी। अन्यत्र विद्रोही सिपाहियों ने दिल्ली की ओर कूच किया था और दिल्ली में इनकी काफी संख्या हो गयी थी। राजधानी में 80,000 सिपाही जमा हो गये थे। पहली विजय के उन्माद में वे समस्त योजना को सफल बनाने के लिए आवश्यक तत्वों को भूल गये थे। शत्रु को उठने से रोकने के लिए आवश्यक था – चारों ओर से उस पर एक-सा दबाव । इनकी लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने संगठित होकर दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। फिरंगियों का झंडा दिल्ली पर फहरा उठा और इससे क्रान्ति-आन्दोलन को गहरा आघात लगा । बहादुरशाह को बंदी बना लिया गया। स्वतंत्रता – संग्राम में भारतीयों को यह हार बहुत महँगी पड़ी।
इधर तात्या ने काल्पी की सुदृढ़ किलेबन्दी कर दी । काल्पी भारत के गौरव का प्रतीक थी और हर देशप्रेमी के लिए प्रेरणा का स्रोत । वह एक विशाल शस्त्रागार थी और सताये हुए सिपाहियों का एकमात्र आश्रय । इस काल्पी के शिल्पकार – निर्माता थे – तात्या टोपे ।
झांसी की स्वतंत्रता के लिए लड़े तात्या टोपे
काल्पी के बाद अब बारी थी झांसी की । झांसी भी अंग्रेजी सत्ता का बराबर प्रतिकार कर रही थी । ” झांसी का त्याग। कभी नहीं ! जिसमें साहस है वह मुझे बाध्य करने के लिए आगे आये !” झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की यह खुली चुनौती थी । उसने बड़ी बहादुरी से अंग्रेजों का सामना किया। सर ह्यू रोज जैसे अनुभवी सेनापति के नेतृत्व में अंग्रेजों की झांसी को चारों ओर से घेर लिया। आने-जाने के सभी मार्ग बन्द कर दिये गये। परंतु लक्ष्मीबाई ने साहस नहीं छोड़ा। केवल 23 वर्षीय इस वीरांग्ना ने अपने थोड़े से सिपाहियों समेत युद्ध – क्षेत्र में समस्त चुनौतियों का डटकर सामना किया।
लक्ष्मीबाई के साहसी प्रतिकार के समाचार से तात्या का रोम-रोम हर्षित हो उठा। यह तेजस्वी रानी और कोई नहीं, तात्या टोपे की बाल-सहचरी ‘छबीली’ थी। परन्तु तभी समाचार मिला कि झांसी का किला खतरे में है। सर ह्यू रोज ने घेरा और सशक्त कर दिया था। झांसी के पास शस्त्र – सामान की मात्रा गिरने लगी। रानी की गिरफ्तारी और झांसी की हार निश्चित थी। रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे से सहायता माँगी । तात्या टोपे ने भारी संख्या में सैनिक एकत्रित किये। 22,000 सिपाहयों के साथ तात्या झांसी की ओर बढ़े। तात्या ने जंगल में जगह-जगह आग लगा दी ताकि रानी जान ले कि तात्या आ रहा है। झांसी में घिरे हुए लोग पल-छिन गिन रहे थे । उनका जीवन भारी संकट में था। तात्या की आगे बढ़ती हुई फौज ने उन्हें नवजीवन दिया।
सर ह्यू रोज का सैन्य बल भी कम नहीं था । उसने डट कर सामना किया। तात्या की फौज को पीछे हटना पड़ा। तात्या शेर की तरह लड़ा, परन्तु उसके पास शस्त्रादि व संसाधन की कमी थी। इस युद्ध में तात्या की भारी क्षति हुई। उनकी तोपें शत्रुओं के कब्जे में चली गईं और अब उन्हीं तोपों का मुँह झांसी की ओर घुमा दिया गया। तात्या को बचे-खुचे सैनिकों के प्राण बचाने के लिए वापस लौटना पड़ा। जीत की आशा निराशा के अंधकार में परिवर्तित हो गई।
तात्या झांसी को न बचा सके। झांसी का पतन निश्चित लग रहा था। सर ह्यू रोज का उद्देश्य रानी को कैद करना था। परन्तु रानी वीरबाला थी। उसने सैनिक वेश धारण किया और किले के नीचे उतर पड़ी और फिर आधी रात में किले से बाहर निकल गयी। अंग्रेजों को पता लगते ही उन्होंने उसका पीछा किया। रानी ने जमकर बहादुरी से प्रतिकार किया और उनके मुखिया डॉकर को जख्मी कर दिया । उसका घोड़ा काल्पी की ओर दौड़ रहा था । प्रात:काल होने से पहले ही रानी लक्ष्मीबाई काल्पी पहुँच गई। वहीं पर तात्या उनसे मिले।अब ह्यू रोज ने अपना ध्यान काल्पी की ओर किया। तात्या की गद्दी काल्पी मानो अंग्रेजों की शक्ति का परिहास कर रही थी । समय था कि कर रहा था। पराजय उसे अस्वीकार थी । लड़ना छोड़ दे, प्रयत्न छोड़ दे ? असंभव !
स्वतंत्रता-संघर्ष बुरी तरह अपयशी हो चुका था। रानी विक्टोरिया ने घोषणा कर दी कि हथियार सौंपकर शरणागत आनेवाले सभी विद्रोहियों को क्षमा प्रदान की जाएगी। इस घोषणा का लाभ उठाकर कई विद्रोहियों प्राण बचाने के लिए शरणागत होना स्वीकार कर लिया । न कोई फौज, न किला, न कहीं से कोई सहायता की आशा ! तात्या बिल्कुल असहाय थे। हैदराबाद के निजाम सहायता का आश्वासन देकर पीछे हट गये थे। ग्वालियर के शासक सिंधिया ने मैत्री के लिऐ बढ़ाए हुए हाथ को ठुकरा दिया था। चारों ओर पराजय और निराशा विकट अट्टहास से तात्या का स्वागत कर रही थी ।
मानसिंह का आश्वासन और विश्वासघात
1857 की क्रान्तिज्वाला धुएँ की लकीर मात्र बनकर रह गई थी। एक ही प्रदीप्त शिखा बची थी। वह थी तात्या टोपे। उन्होंने छोटी-बड़ी कोई डेढ सौ लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उनकी तलवार कई प्रसिद्ध योद्धाओं और हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार चुकी थी। अंग्रेजों को सर्वाधिक भय केवल तात्या से था । उन्होंने तात्या को शैतान की संज्ञा दे रखी थी।परन्तु अब यह शूर वीर, दन्तनखविहीन सिंह की तरह लाचार था । कहीं पैर रखने को ठिकाना नहीं, कहीं सिर छुपाने को स्थान नहीं। कहीं क्षणभर चैन से सोने के लिए छत नहीं थी । वह उस वनराज की भाँति था जिसके पीछे असंख्य शिकारी लगे हुए हों। उसके पकड़ने या उसका पता देने के लिए भारी इनाम की घोषणा कर दी गई थी।
उसके सामने दो विकल्प थे-लड़ते-लड़ते मौत को अपनाना या उन लोगों का अनुकरण करना जो दया की भीख माँगते हुए अंग्रेजों की शरण में चले गये थे । शरणागत- कभी नहीं ! तात्या आत्म-सम्मान की प्रतिमा थे।यह सच था कि तात्या की पराजय हुई थी परन्तु उसकी राष्ट्रभावना, राष्ट्रप्रेम और उत्साह अदम्य था । उसे निरुत्साहित करना असंभव था ।
उस कठिन परिस्थिति में तात्या को याद आया एक पुराना मित्र मानसिंह । मानसिंह ग्वालियर फौज में एक सरदार था। वह राजा का साथ छोड़कर विद्रोहियों से आ मिला था। तात्या ने उसका स्वागत किया था। उसकी सहायता की थी। उसका सम्मान किया था । बसेरे की खोज में तात्या पारोन के उस जंगल में आया जहाँ मानसिंह छिपा था। तात्या का विश्वास था कि वह सबसे सुरक्षित स्थान है।
अंग्रेज ताक में थे ही। उन्हें खबर मिल गई कि तात्या कहाँ छिपा है। अब तक उन्होंने सैन्य बल और चतुराई से तात्या को हतबल कर जीतना चाहा था और उन्हें असफलता ही हाथ लगी थी। इसलिए उन्होंने खलमार्ग अपनाया और कुटिलता से तात्या को जीतना चाहा। उन्होंने मानसिंह को संदेशा भेजा कि वह तात्या को उन्हें सौंप दे। बदले में उसे संपूर्ण माफी और जागीर देने का प्रलोभन दिया। मानसिंह लालच में पड़ गया ।
विश्वासघात की विजय हुई। लालची व कायर मानसिंह तात्या को अंग्रेजों के हवाले करने के लिए तैयार हो गया। एक सेना की टुकड़ी चोरी छिपे जंगल में लाई गई। तात्या, मित्र के विश्वास से आश्वस्त हो जंगल को सबसे सुरक्षित स्थान समझ, गहरी निद्रा में बेखबर था । सोये हुए वीर तात्या के साथ जबरदस्त विश्वासघात किया गया। आँख खुलते ही उसने अपने आपको बंदी पाया । वह 7 अप्रैल 1859 की मध्यरात्रि का समय था जब यह सिंह पिंजरे में डाला गया।
सिपाही तात्या टोपे को शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में ले गए। वहाँ तीन दिन तक “न्यायपूर्ण मुकदमे” का नाटक खेला गया। तात्या पर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करके राजद्रोह करने का मुकदमा चलाया गया। अंतिम क्षण तक उसने कोई पश्चाताप व्यक्त नहीं किया । अंग्रेजों को घृणापूर्ण दृष्टि से देख उसने गरज कर कहा- “मैं आपका नौकर नहीं हूँ, मेरे स्वामी पेशवा हैं और मैं उन्हीं की आज्ञा मानता हूँ। न्यायपूर्ण युद्ध के मैदान को छोड़ मैंने कभी किसी बेकसूर का रक्त नहीं बहाया। मैं आपसे कोई क्षमायाचना नहीं करता। बल्कि मेरा अनुरोध है कि आप मुझे तोप के मुँह पर रख मेरी धज्जियाँ उड़ा दें या फाँसी का फंदा डाल मुझे फाँसी के तख्त पर चढ़ा दें। मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिये।”
न्याय का स्वांग तीन दिन के बाद समाप्त हो गया। न्यायाधीश तात्या टोपे को मृत्युदंड की सजा सुनाने में तनिक भी नहीं झिझके । नियत समय पर वधस्थल पर खड़े तात्या टोपे की शान्ति, शौर्य और साहस अद्भुत और अलौकिक थे। लोग अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखते रहे और भारत का लाड़ला फाँसी पर चढ़ गया। तात्या देशभक्तों के सिरमौर थे। भारत अपने इस वीर सपूत के त्याग को कभी नहीं भूलेगा। तात्या टोपे का नाम हर देशवासी के हृदय पर चिर अंकित है।
संदर्भ
तात्या टोपे के.श्रीपति शास्त्री, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में