पटना विद्रोह का प्रसिद्ध 1855 का लोटा आन्दोलन
पटना एक प्राचीन शहर। अवंति के आक्रमण के डर से मगध के राजा आजातशत्रु ने गंगा और सोन के संगम पर पाटलिपुत्र का दुर्ग बनवाया था। आजातशत्रु के पुत्र उदयिन ने राजगृह के स्थान पर पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनवाया। गंगा के तट पर बसा पटना मीर कासिम के समय से ही एक विद्रोही शहर रहा था।
अपनी पुस्तक ‘आवर क्राइसिस‘ में टेलर ने पटना शहर का विद्रोहियों के अड्डे के रूप में उल्लेख किया है। वह याद दिलाता है कि किस तरह मीर कासिम 1767 में दो सौ अंग्रेजों का संहार किया था। इस घटना के तीन साल बाद 1770 में अकाल चरम पर था, पटना की सड़कों पर रोज पचास से सौ लोग भूख से दम तोड़ते थे। 1783 में गोलघर का निर्माण हुआ था तथा 1797 में पटना को पूरी तरह कम्पनी का हेडक्वार्टर बना दिया गया। लम्बे समय तक पटना प्रमंडलीय मुख्यालय बना रहा।
पटना वहाबी आन्दोलन के साथ फारसी शिक्षा-दीक्षा का भी मुख्य केन्द्र था। 1855 में हुए लोटा आन्दोलन के केन्द्र में पटना भी था। पटना, बिहार, सारण, शाहाबाद, तिरहुत और चम्पारण में यह आन्दोलन हुआ था। टेलर को विश्वास था कि 1846 में पटना में वहाबियों ने अंग्रेजी राज का तख्ता पलटने के लिए षड्यन्त्र किया था।
पटना कमिश्नर के मातहत छह जिले आते थे- पटना, बिहार, सारण, शाहाबाद, तिरहुत तथा चम्पारण। ये जिले 24 हजार वर्गमील में फैले थे। गंगा और सोन के तट पर बसने के कारण पटना महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी था। पटना की आबादी तब 1 लाख 58 हजार थी, जिसमें 38 हजार आबादी मुसलमानों की थी। 1857 में पटना में सिपाहियों के विद्रोह के पूर्व सरकार को नागरिक आन्दोलन से रू-ब-रू होना पड़ा। पटना में विद्रोह की घटनाओं पर नजर डालने से पहले जनविद्रोह और आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर नजर भर डालना अनावश्यक नहीं होगा।
क्यों हुआ था पटना का लोटा आन्दोलन
बिहार में 1857 की लड़ाई के शुरू होने के दो साल पूर्व 1855 में एक आन्दोलन, लोटा आन्दोलन शुरू हो गया था। यह आन्दोलन आरा, तिरहुत, पटना से होता हुआ बनारस की जेलों तक पहुँच गया था। हुआ यह कि सरकार ने यह फैसला किया कि जेलों में कैदियों को पीतल की जगह मिट्टी का लोटा दिया जाएगा। सरकार की ओर से की गई यह ऐसी कार्रवाई थी, जिससे बिहार की जेलों में बंद कैदी भड़क गए। सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि कैदियों को धातु के बने लोटे की जगह मिट्टी के बरतन दिए जाएँगे ।
सरकार के नए आदेश का असर यह हुआ कि तिरहुत, पटना और शाहाबाद की जेलों में कैदी आन्दोलन पर उतर गए और कई स्थानों पर गोली चलानी पड़ी। तिरहुत में तो कैदियों के समर्थन में जेल के बाहर भी लोगों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। 1 जून, 1855 के अपने अंक में, ‘हरकारा’ की खबर के अनुसार, डीएम ने जेल दारोगा को पीतल का लोटा जब्त करने का आदेश दिया और उनसे मिट्टी का लोटा देने को कहा। कैदियों ने कहा कि वे पीतल का लोटा देने के लिए तो तैयार हैं, लेकिन मिट्टी का लोटा लेंगे नहीं।
मजिस्ट्रेट गुस्से में आकर बोला- तुम लोग चेहरा मत देखो, मिट्टी का बर्तन लो वर्ना बेंत खाने के लिए तैयार रहो, अन्यथा गोली भी खाओगे। कैदियों ने मजिस्ट्रेट की बातों को गम्भीरता से लिया। इस घटना के बाद कैदी अपने-अपने वार्ड में चले गए।
इस बीच अचानक हंगामा शुरू हो गया। अफीम की खेती करने वाले लगभग बारह हजार किसान अफीम एजेंट की कोठी पर आए थे। कोठी जेल के बगल में थी। अफीम के किसानों ने मजिस्ट्रेट का घेराव कर दिया। उन्होंने मजिस्ट्रेट से कैदियों का लोटा लौटाने का आग्रह किया। मजिस्ट्रेट ने कहा कि पहले तो वे उन्हें मुक्त करें, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं थे। मजिस्ट्रेट ने निजामत के सिपाही को गोली चलाने का हुक्म दिया। सिपाही ने जवाब दिया- कैदियों पर गोली चलाने का कोई मतलब नहीं है। वे असहाय हैं।
विवाद इतना बढ़ा कि सुगौली से दो सौ घुड़सवार और दानापुर से तीन कम्पनी पुलिस बल बुलाना पड़ा। हर दिन कैदियों को बेंत से पीटा जाता। इस मामले में जमींदारों और महाजनों की भी गिरफ्तारियाँ हुई। लालजी साहू, फकीरचन्द साहू, जनक साहू, बाबू ब्रजराज बिहारी आदि गिरफ्तार किए गए। अनेक लोगों के खिलाफ वारंट जारी किया गया।
आतंक का वातावरण बन गया। दुकानें बंद रहने लगीं, लम्बे समय के बाद दुकानें खुल सकीं। ‘हरकारा‘ के 21 जून, 1855 के अंक की रिपोर्ट के अनुसार पटना जेल के हिन्दू कैदियों ने धार्मिक कारणों से मिट्टी के लोटे का उपयोग करने से इनकार कर दिया। कैदियों का कहना था कि वे एक बार में एक मिट्टी के बरतन का उपयोग करेंगे। पटना में उन्हें दो बार लोटा दिया जाने लगा। दरअसल, पीतल के बने लोटे का उपयोग जेल से भागने में भी कर लेते थे। लोटा से दीवारों को रगड़ते थे और वह मार-पीट के भी काम आता था ।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
जब कुँवर सिंह ने लोटा आन्दोलकारियों को समझाया
जेल में चले लोटा आन्दोलन के बारे में ‘ए हिस्ट्री ऑफ सिपाय वार में जॉन विलियम के ने लिखा है – आरा में इतनी उत्तेजना थी कि जेल में पहरेदारों को गोली चलाने का हुक्म दिया गया। मुजफ्फरपुर में तो आम लोगों की घृणा इतनी भयानक थी कि मजिस्ट्रेट ने कहा कि कैदियों के समर्थन और सहानुभूति में जिले और शहर के लोगों ने ऐसा उपद्रव मचाया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसा करने वालों में नगर के लोग और रैयत थे। उन लोगों ने साफ कहा कि जब तक लोटा अपनी जगह पुनः कायम नहीं किया जाता, तब तक वे हटेंगे नहीं।
सैनिकों को बुलाने का हुक्म दिया गया, लेकिन शहर में खजाना लूटे जाने का खतरा इतना था कि असैनिक अधिकारियों ने विद्रोह और भड़कने के डर से पुनः लोटा रखने का हुक्म दे दिया। हालाँकि लेफ्टिनेंट गवर्नर ने 1855 की घोषणा में कहा कि जेलों में इस तरह के विभिन्न परिवर्तन की जानकारी उनको नहीं थी।
3 सितम्बर, 1856 को विलियम टेलर ने बंगाल के शिक्षा विभाग के निदेशक को लिखा था कि जिस समय जेल में उपद्रव शुरू हुआ, आरा में सबसे पहले यही प्रश्न उठा कि डुमरांव के राजा और बाबू कुँवर सिंह पर इसका क्या प्रभाव पड़ा और इसके बारे में वे क्या सोचते हैं? दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति की जुबान पर यही बात थी कि यदि वे मिट्टी के बरतन से पानी पी लेंगे तो किसी राजपूत को एतराज नहीं होगा।
टेलर ने कुँवर सिंह को उपद्रव के समय बुलाया था कि वे आरा की जेल में कैदियों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उन्हें शान्त करें। कुँवर सिंह आरा आए भी और जेल भी गए और वे जब तक वहाँ थे, शान्ति बनी रही, लेकिन उनके वहाँ से हटते इतना भयानक उपद्रव उठ खड़ा हुआ कि गार्डों को आदेश दिया गया कि वे कैदियों पर गोली चलाएँ। इसके पहले लोटा को लेकर जब आन्दोलन शुरू हुआ तो मजिस्ट्रेट ने कुँवर सिंह से सहायता माँगी तब कुँवर सिंह ने एक आदमी के माध्यम से जेल में यह संदेश भेजा था कि मिट्टी के पात्र में भोजन करने से धर्म का नाश नहीं होगा और न कोई किसी को जाति से बहिष्कृत करेगा। आप लोग भोजन मिट्टी के बर्तन में करें।
जेल के चौका व्यवस्था में बदलाव के वजह से हुआ था लोटा आन्दोलन
दरअसल सरकार की ओर से कुछ ऐसी कार्रवाईयाँ हो रही थीं, जिनके कारण विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों में अंग्रेजी राज के प्रति असन्तोष पैदा हो गया था। जेल में एक चौका और एक साथ भोजन की व्यवस्था जारी करने का प्रभाव जेल से बाहर पड़ा, क्योंकि उनका सम्बन्ध जाति से था। वे लोग इसे अपने सामाजिक नियम या रिवाज़ के खिलाफ मानते थे।
1845 में खाने की व्यवस्था को लेकर सारण और शाहाबाद की जेलों में छह सौ कैदियों की भूख हड़ताल हो चुकी थी और कैदियों ने दो दिनों तक खाने का बहिष्कार किया था। वे भोजन की नई व्यवस्था के खिलाफ थे। इस सम्बन्ध में सारण के सेशन जज ने 28 जून, 1845 को पत्र लिखा था। खाने के लिए ब्राह्मणों के एक दल को चुना गया, लेकिन कैदियों के दूसरे दल ने इसका विरोध किया। विलियम टेलर ने माना कि जेलों में एक चौका करने तथा लोटे के स्थान पर मिट्टी के बर्तन के उपयोग के आदेश से भ्रम पैदा हुआ।
जब जेल में एक चौका की व्यवस्था लागू की गई तो इस व्यवस्था से जेलों में भयंकर उपद्रव उठ खड़ा हुआ। जेल के बाहर कितने लोगों ने इसे धार्मिक विश्वास और सामाजिक प्रथा में सरकार द्वारा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप माना। एक चौका का अर्थ है कि सभी जातियों के कैदियों के लिए एक ही स्थान पर भोजन बनेगा। सभी कैदी एक साथ बैठ कर भोजन करेंगे। बिहार की जेलों में अब भी एक चौके की प्रथा लागू नहीं है। पटना में सिपाहियों की बैरकों में अब भी सिपाहियों के लिए जाति आधारित चौके की प्रथा जारी है।
नोट- लोटा आन्दोलन के लिए सांकेतिक तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है.
संदर्भ
प्रसन्न कुमार चौधरी श्रीकांत,1857 बिहार-झारखंड में महायुद्ध, राजकमल प्रकाशन, 2008
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में