स्वतंत्रता संघर्ष के अमर सेनानी शहीद जीतराम बेदिया
औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के खिलाफ अनेक क्रांतिकारी देशभक्तों ने अपनी जान कुर्बान की, लेकिन उनमें से कई, जिन्होंने अत्याचारी अंग्रेजों, उनके मुखबिरों, जमींदारों, साहूकारों और सूदखोर महाजनों के अंतहीन शोषण के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया था, लंबे समय तक गुमनाम रहे। जीतराम बेदिया ऐसे ही एक क्रांतिकारी हैं जो आज भी गुमनामी में हैं…
शहीद जीतराम बेदिया के वंशजों ने बताते है कि अंग्रेजों द्वारा उन्हें जान से मारने और फांसी देने का भय दिखाया गया था, इसलिए वे इस विद्रोह की बातें जुबान पर नहीं लाते थे। यहां तक कि आजादी मिलने के बाद भी वे इस बारे में कुछ नहीं कह सके। इतिहासकारों से भी इस मामले में चूक हुई।
जीतराम बेदिया कौन थे ?
जीतराम बेदिया का जन्म 30 दिसंबर 1802 को रांची जिले के ओरमांझी प्रखंड में स्थित गगारी गांव के एक अत्यंत गरीब आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जगतनाथ बेदिया, माता का नाम महेश्वरी देवी, और पत्नी का नाम गायत्री देवी था। गगारी गांव पहाड़ की तराइयों में बसा हुआ है।
उनके पिता ने गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, और सूअर पाल रखे थे। जब उनके पिता रोजाना जानवरों को चराने जंगल ले जाते, तो जीतराम बेदिया भी उनके साथ जाते थे। पिता का शरीर धीरे-धीरे थकने लगा था, और जीतराम बेदिया के बड़े होने के साथ उनकी जिम्मेदारियाँ भी बढ़ने लगीं। पिता के निधन के बाद घर की सारी जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई।
वह अपने पालतू पशुओं को जंगल में चराने जाते थे। शुरुआत में उन्हें चरवाही में काफी कठिनाई हुई क्योंकि सभी जानवर अलग-अलग होकर चरते थे, और उन्हें एकत्र करने में परेशानी होती थी। तब जीतराम बेदिया ने एक तरकीब निकाली—उन्होंने पशुओं के गले में लकड़ी की ठरकी और घंटी बांध दी ताकि उनकी आवाज़ से उन्हें ढूंढ़ने में आसानी हो। इसके अलावा, उन्होंने जंगल से बांस काटकर बांसुरी बनाई और गोधूलि बेला में घर लौटते समय उसे बजाते हुए पहाड़ से गांव तक आते थे।
जीतराम बेदिया युवावस्था से ही सामाजिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे थे, और उनके कार्यों से आदिवासी समाज सहित अन्य समुदायों के लोग भी प्रसन्न रहते थे।
वह जंगल में मिलने वाली प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज भी करते थे, जिससे बच्चे, वृद्ध, युवक और युवतियाँ स्वस्थ हो जाते। उनकी दवाओं से लोगों को काफी लाभ होता, और इसी कारण उनकी प्रसिद्धि बढ़ती गई। दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आते, जिससे एक भाईचारे और एकता की भावना का विकास हुआ। लोगों के दुख-दर्द सुनकर जीतराम का मन भी उद्वेलित हो उठता।
जीतराम बेदिया के व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण में उनके पारिवारिक माहौल का गहरा प्रभाव था। वह महसूस करते थे कि देश अंग्रेजों की गिरफ्त में है और उनके अन्याय-अत्याचार से छोटानागपुर क्षेत्र के लोग अत्यधिक प्रताड़ित हो रहे हैं। अंग्रेजी हुकूमत पूरे देश पर शासन कर रही थी, और पिता का मानना था कि अपने लोगों को उनके शोषण से बचाने के लिए अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ना जरूरी है। ये विचार उन्होंने जीतराम बेदिया को भी बताए, और धीरे-धीरे ये बातें उनके मन में गहराई से बैठने लगीं।
बचपन में ही जीतराम बेदिया ने अपने पिता और पुरखों से अंग्रेजों के खिलाफ हुए पलामू के चेरो विद्रोह, सिंहभूम के हो विद्रोह और तमाड़ विद्रोह की कहानियाँ सुन रखी थीं। जब वे आदिवासियों पर अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियाँ सुनते, तो उनका चेहरा तमतमा उठता और मुट्ठियाँ तन जातीं। मन में यह विचार आता कि अंग्रेजों को तीरों से बींधकर अपने क्षेत्र से खदेड़ा जाए। दिन-ब-दिन जीतराम बेदिया में नेतृत्व क्षमता बढ़ती गई। उनकी लोगों की सेवा करने और उन्हें एकजुट करने की अद्भुत योग्यता को देखकर आसपास के गांवों के लोग कहने लगे कि जीतराम बेदिया सत्यवादी और आंदोलनकारी हैं।
विद्रोह के नायक जीतराम बेदिया
उस समय तक अंग्रेजी हुकूमत की गिद्ध-दृष्टि रांची, रामगढ़ और हजारीबाग के पहाड़ी चुट्टूपालु घाटी क्षेत्र के जल, जंगल, जमीन और पहाड़ों पर पड़ चुकी थी। अंग्रेज इस क्षेत्र में निवास करने वाले समुदायों के भोलेपन का लाभ उठाकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर अपने शासन के लिए धन जुटाने की योजना बना रहे थे।
तत्कालीन ब्रिटिश शासन ग्रामीणों पर विभिन्न प्रकार से दबाव डालकर राजस्व (कर) संग्रह करने पर जोर देने लगा। स्वतंत्रता प्रेमी आदिवासियों और अन्य समुदायों के खिलाफ जमींदारों व सूदखोर महाजनों ने जो हालात उत्पन्न किए, वे अंग्रेजी राज को स्थापित करने में सहायक साबित हुए। लेकिन इन परिस्थितियों में विद्रोह की भावना भी पैदा हुई।
रामगढ़, पिठौरिया, ओरमांझी और समस्त छोटानागपुर क्षेत्र में अंग्रेजी शासन का प्रभाव बढ़ने लगा, और अंग्रेजों एवं जमींदारों के शोषण से क्षेत्र तबाह हो रहा था। यह देखकर जीतराम बेदिया के भीतर विद्रोह करने और उसका नेतृत्व करने की इच्छा प्रबल हो उठी। युवा जीतराम बेदिया की संगठन और नेतृत्व क्षमता देखकर लोगों को विश्वास था कि वे ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व कर सकते हैं। हालांकि, जीतराम बेदिया जानते थे कि यह लड़ाई अकेले नहीं जीती जा सकती।
उसी समय ब्रिटिश शासन के खिलाफ खटंगा गांव के राजा टिकैत उमराव सिंह और उनके दीवान, खुदिया गांव के शेख भिखारी ने विद्रोह कर दिया। उनके संघर्ष से प्रेरित होकर गगारी गांव के वीर योद्धा जीतराम बेदिया भी उनसे जुड़ गए। विद्रोह के दौरान तीनों के बीच गहरी एकता बन गई, और उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में इसका नेतृत्व संभाल लिया।
यह किसी विशेष घटना के खिलाफ तात्कालिक और छिटपुट संघर्ष नहीं था, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त विद्रोह था। इस इलाके की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी भीषण बदलावों से गुजर रही थी, और शोषक जमींदारों व सूदखोरों ने इसका पूरा फायदा उठाया। जिस जल, जंगल, और जमीन को उनके पुरखों ने अपने खून-पसीने से आबाद और संरक्षित रखा था, वह अब चुटूपालू घाटी क्षेत्र की जनता से छिनने लगी थी। शोषण के विभिन्न हथकंडे अपनाकर अंग्रेजों और उनके समर्थक जमींदारों ने इसका फायदा उठाया, लेकिन यह स्थिति तब बदलने लगी जब क्षेत्र की जनता ने इनके खिलाफ हथियार उठा लिए।
टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी और जीतराम बेदिया ने आसपास के आदिवासियों और मूलवासियों को एकजुट करना शुरू किया। उन्होंने लोगों को बताया कि जल, जंगल, जमीन और सभी प्राकृतिक संसाधन हमारे हैं, और जमींदारों से मिलकर अंग्रेज इन्हें छीनने की योजना बना रहे हैं। इस बात का मर्म लोगों को समझ में आया, और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।
1855-56 में संथाल विद्रोह चल ही रहा था कि 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ देशभर में सिपाही विद्रोह हुआ। उस समय रांची और रामगढ़ क्षेत्र में विद्रोह की कमान टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी और जीतराम बेदिया के हाथों में थी। वे विद्रोह की रणनीति बनाने के लिए गुपचुप तरीके से विभिन्न जगहों पर बैठकें करने लगे।
जैसे ही लोगों को यह समाचार मिला कि इन तीनों ने विद्रोह की कमान संभाल ली है, वे दोगुने उत्साह से विद्रोहियों के साथ जुड़ने लगे। इस प्रकार, विद्रोहियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। जीतराम बेदिया ने अपने साथियों को तीर-धनुष, तलवार, ढेलबांस, गुलेल, कुल्हाड़ी, बलम, बरछी, दरौंती, हंसुआ और पत्थर जमा कर रखने को कहा। उन्होंने आत्मविश्वास से यह ठान लिया कि अंग्रेजों की बंदूकों का सामना इन पारंपरिक हथियारों के माध्यम से किया जाएगा, और सभी से यह आग्रह किया कि वे जीतने के लिए हौंसला बुलंद रखें।
इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेज शासकों ने मेजर मेक्डोनाल्ड के नेतृत्व में मद्रासी फौज को भेजा। मद्रासी फौज रामगढ़ में कैंप लगाकर तैनात हो गई।
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जीतराम बेदिया की शहादत
जिस मार्ग से मद्रासी फौज के मेजर मेक्डोनाल्ड के गुजरने की संभावना होती, टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी और जीतराम बेदिया अपने साहसी समर्थकों के साथ जंगल की झाड़ियों में छिपकर बैठ जाते। कुछ साथी रास्ते पर उनकी टोह लेते, जबकि बाकी तीर-धनुष और अन्य हथियारों के साथ अंग्रेजी सेना के आने की प्रतीक्षा करते। जैसे ही मद्रासी फौज दिखाई देती, कोई साथी जंगली पशु-पक्षी की आवाज निकालकर सबको संकेत देता।
धनुष की प्रत्यंचाएं चुपचाप तन जातीं, और जैसे ही फौज तीरों की मार के दायरे में आती, तीरों की बौछार शुरू हो जाती। मद्रासी फौज भयभीत होकर भाग खड़ी होती। इस गुरिल्ला युद्ध में ग्रामीणों की भी, जो पारंपरिक हथियारों से लैस होते, सक्रिय भागीदारी रहती थी। टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी, और जीतराम बेदिया के प्रतिरोध के कारण अंग्रेजी सेना दमनात्मक कार्रवाई करने में विफल होती रही।
इन तीनों योद्धाओं ने अंग्रेजों के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी, और आदिवासियों का विद्रोह निरंतर जारी रहा। इस संघर्ष में क्षेत्र के हजारों विद्रोहियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। मेजर मेक्डोनाल्ड ने इन तीनों योद्धाओं को हर हाल में पकड़कर जनता के बीच फांसी देने की योजना बनाई। अंततः 6 जनवरी, 1858 को टिकैत उमराव सिंह और शेख भिखारी को गिरफ्तार करने में अंग्रेज सफल हो गए। बिना मुकदमा चलाए और बिना गवाही सुने, इन दोनों वीरों को 8 जनवरी, 1858 को चुटूपालू घाटी के एक बरगद के पेड़ से फांसी दे दी गई।
जीतराम बेदिया अब भी अंग्रेजों की पकड़ से बाहर थे, और नेतृत्व की सारी जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी। उन्होंने हाथों में तलवार और तीर-धनुष लेकर मेजर मेक्डोनाल्ड की मद्रासी फौज और अंग्रेजों को ललकारा और उन्हें क्षेत्र से खदेड़ने का आह्वान किया। इस आह्वान से क्षुब्ध ब्रिटिश सरकार ने किसी भी कीमत पर जीतराम बेदिया को मारने की योजना बनाई। जीतराम बेदिया की छापामार युद्ध शैली, संगठन क्षमता, और कुशल वक्तृत्व कला से लोग बहुत प्रभावित थे, और इसी कारण इलाके की जनता उनके साथ अडिग होकर खड़ी रही।
जीतराम बेदिया दिन में पहाड़ की गुफाओं में रहते और रात में गांवों में जाकर लोगों को संगठित करते। महोदीगढ़ से गगारी तक के पहाड़ों में उनके छिपने के ठिकाने थे। मद्रासी फौज ने उन्हें खोजने के लिए दिन-रात एक कर दिया, लेकिन उन्हें पकड़ पाना आसान नहीं था। जब जीतराम बेदिया घोड़े पर सवार होकर सैकड़ों लोगों के साथ आगे बढ़ते, तो ब्रिटिश सैनिकों के होश उड़ जाते थे।
अंततः 23 अप्रैल 1858 को, गगारी और खटंगा गांव के बीच बंसैरगढ़ा स्थल पर मेजर मेक्डोनाल्ड और उसकी मद्रासी फौज ने जीतराम बेदिया और उनके लड़ाकू साथियों को पूरी तरह घेर लिया। आत्मसमर्पण करने के आदेश को जीतराम ने दृढ़ता से ठुकरा दिया। इसके बाद विद्रोहियों और अंग्रेजी सैन्यबलों के बीच घमासान युद्ध हुआ। अंग्रेजों की ओर से अंधाधुंध गोलियां चलीं, जिसमें कई साहसी विद्रोही शहीद हुए। जीतराम बेदिया के दस्ते ने भी तीरों की बौछार से कई मद्रासी सैनिकों को मार गिराया।
गोली-बारूद के सामने तीर-धनुष और तलवार का अधिक देर तक टिकना मुश्किल था, फिर भी जीतराम बेदिया निडर होकर तीर और तलवार चलाते रहे। अंततः मेक्डोनाल्ड के आदेश पर मद्रासी फौज ने खटंगा और गगारी गांव के बीच जीतराम बेदिया और उनके घोड़े को गोली मारकर गिरा दिया। दोनों के पार्थिव शरीर को बंसैरगढ़ा में दफना दिया गया, और तभी से बंसैरगढ़ा स्थल को जीतराम बेदिया के घोड़े की स्मृति में घोड़ागढ़ा के नाम से जाना जाने लगा। आज भी शहीद जीतराम बेदिया की तलवार, फरसा, और मुगदर का डंडा उनके वंशजों के पास सुरक्षित है।
संदर्भ
सुरेंद्र कुमार बेदिया, झारखंड समय के सुलगतेसवाल, ब्लूरोज प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में