शचीन्द्रनाथ सान्याल: जिन्हें दो बार हुई ‘कालापानी’ की सजा

क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल, जिन्हें दो बार आजीवन कारावास की सजा हुई थी, ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारंभ में, उन्होंने ईंट-भट्ठे का कार्य किया, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा, तो वह रेलवे में नौकरी करने चले गए। उनके भीतर क्रांतिकारी तेवर पहले से ही मौजूद थे। जल्द ही उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया।
शचीन्द्रनाथ सान्याल, कहा करते थे—
“हमें क्रांतिकारी कहा गया, लेकिन हम तो अपने देश के लिए जान कुर्बान करने वाले साधारण लोग थे।”
शचीन्द्रनाथ सान्याल, ने अपने जेल जीवन और तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित ‘बंदी जीवन’ नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। कुछ समय तक, वह ‘अग्रगामी’ पत्र के संपादक भी रहे।
शचीन्द्रनाथ सान्याल, एक विचारशील व्यक्ति थे। उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा—
“हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन अथवा हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ के कार्यक्रम को पूर्ण रूप से समझने के लिए दो बातों को जान लेना आवश्यक है। जिसने भारतीय सभ्यता की कर्म-कथा को भली-भांति नहीं समझा, उसके लिए यह संभव नहीं कि कम्यूनिज्म के दोषों को ठीक-ठाक समझ सके। इसलिए भारतीय सभ्यता की विशेष उपयोगिता है। इस पर जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह इस कार्यक्रम को ठीक-ठाक नहीं समझ सकता।”
कौन थे शचीन्द्रनाथ सान्याल
शचीन्द्रनाथ सान्याल, का जन्म 1895 ई. में वाराणसी में हुआ था। उनके राष्ट्रभक्त पिता, हरिनाथ सान्याल, ने अपने पुत्रों को बंगाल की क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के कार्यों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
इसका परिणाम यह हुआ कि शचीन्द्रनाथ के बड़े भाई, रवि सान्याल, बनारस षड्यंत्र केस में नजरबंद रहे, जबकि उनके छोटे भाई, भूपेन्द्र सान्याल, को काकोरी कांड में पाँच वर्ष की कैद हुई। उनके तीसरे भाई 1929 के लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह के साथ अभियुक्त थे।
शचीन्द्रनाथ सान्याल, ने पढ़ाई के दौरान ही, वर्ष 1908 में, काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन किया। 1913 में, उनकी मुलाकात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से हुई। कुछ समय बाद, दोनों ने मिलकर अंग्रेजों को सबक सिखाने का निर्णय लिया और अपने-अपने दलों का विलय कर दिया।
कानपुर में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ (HRA) की स्थापना के समय, शचीन्द्रनाथ सान्याल इसके अध्यक्ष बने, जबकि रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहांपुर के जिला प्रभारी थे।
रासबिहारी बोस ने शचीन्द्रनाथ सान्याल, की असाधारण कर्मशक्ति, सरलता और तत्परता को पहचानते हुए उन्हें प्यार से ‘लट्टू’ कहकर बुलाया करते थे। वहीं, अन्य क्रांतिकारी साथियों ने उनकी उग्रता और क्रांतिकारी जोश को देखते हुए उन्हें ‘बारूद से भरा अनार’ की उपाधि दी, जो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ही थी। शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी बोस की दोस्ती क्रांतिकारी इतिहास में मिसाल के रूप में देखी जाती थी।
नवंबर 1914 में, एक बम परीक्षण के दौरान, दोनों घायल हो गए। स्वस्थ होने के बाद, वह पुनः देश को स्वतंत्र कराने की अपनी योजना में जुट गए।
उसी वर्ष, जब प्रथम विश्व युद्ध के चलते अंग्रेजी हुकूमत व्यस्त थी, तब शचीन्द्रनाथ सान्याल, ने इसे एक अवसर के रूप में देखा और सैन्य विद्रोह के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने की योजना बनाई।
1914 में, प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ होने के बाद, शचीन्द्रनाथ सान्याल की क्रांतिकारी गतिविधियां तेज़ होने लगीं। रासबिहारी बोस ने उन्हें पंजाब भेजकर गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं से संपर्क स्थापित करने का कार्य सौंपा। वहाँ से वे क्रांतिकारी विष्णु गणेश पिंगले को अपने साथ लेकर आए।
रासबिहारी बोस ने पिंगले को आश्वासन दिया कि गदर पार्टी के प्रयासों में बंगाल के क्रांतिकारी भी सहयोग देंगे। इस योजना के तहत, शचीन्द्रनाथ सान्याल ने जाट रेजिमेंट के सैनिकों से संपर्क कर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित किया।
हालांकि, एक मुखबिर की सूचना के कारण, फरवरी 1915 के लिए निर्धारित क्रांति को पहले ही दबा दिया गया।

पहली गिरफ्तारी और कालापानी की सजा
जून 1915 में, शचीन्द्रनाथ सान्याल गिरफ्तार कर लिए गए। मुकदमे के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाकर ‘कालापानी’, अंडमान की जेल भेज दिया गया। 1919 में, सरकार द्वारा राजबंदियों की सामूहिक रिहाई के दौरान वह भी जेल से बाहर आए। जेल से छूटते ही, वह पुनः क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय हो गए।
अंडमान से भारत लौटने के अनुभव को सान्याल बाबू ने बड़े भावनात्मक और हृदयस्पर्शी शब्दों में व्यक्त किया है। वह लिखते हैं—
“मैं चलकर घर नहीं आया, बल्कि दौड़ता हुआ घर पहुँचा। क्या हृदयावेग की आकर्षण शक्ति पृथ्वी की मध्याकर्षण शक्ति की तरह है, कि अंडमान से जब चला, तब से लेकर घर पहुँचने तक इस आकर्षण का वेग बढ़ता ही गया, और घर के पास आकर आखिर मुझे दौड़ना ही पड़ा!”
घर पहुंचने का दृश्य भी अत्यंत मार्मिक था—
“मकान के नीचे के कमरे का जंगला खुला हुआ था। मैं कुछ क्षण के लिए जंगले के सामने आकर खड़ा हो गया। वहाँ कुछ युवक लेटे हुए थे, जिनमें मेरे दो भाई, रवीन्द्र और जितेन्द्र, भी थे। रवीन्द्र मुझे देखते ही हर्ष से चिल्ला उठे— ‘अरे, दादा हैं!‘ वे बिस्तर से ऐसे उठ पड़े, मानो किसी ने नीचे से जोर का धक्का देकर उन्हें ऊपर फेंक दिया हो। दरवाजे की ओर भागे और अंदर आकर हर किसी को छाती से जोर से लिपटा लिया। यह मेरी नई ज़िंदगी थी, मेरे नए जन्म का आरंभ!”
शचीन्द्रनाथ सान्याल आगे लिखते हैं—
“जिस दिन मैं घर पहुँचा, उसके एक दिन पहले ही मेरे कनिष्ठ भ्राता का उपनयन संस्कार संपन्न हुआ था। घर में किसी को यह अंदाजा नहीं था कि मैं अचानक वहाँ पहुँच जाऊँगा। मैंने सबसे पूछा, ‘माताजी कहाँ हैं?’
“मुझे बताया गया कि वे दूसरे मकान में किसी कार्य से गई हुई थीं। मैं पूछताछ कर ही रहा था कि तभी वे आ गईं। मुझे देखते ही आनंद और भावनाओं से विह्वल होकर रो पड़ीं और कहने लगीं— ‘बेटा, मेरे आ गए हो! मेरे बेटा, आ गए हो!‘ उन्होंने मेरे सिर, कंधे और माथे पर स्नेह से हाथ फेरना शुरू कर दिया। फिर रुंधे हुए गले से बोलीं— ‘जाने कितनी मुसीबत तुमने झेली!‘”
दूसरी बार फिर कालापानी की सजा
1924 में, रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल और डॉ. जादूगोपाल मुखर्जी ने मिलकर एक नए क्रांतिकारी संगठन का संविधान तैयार किया, जिसे ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HRA) नाम दिया गया। इसकी आधिकारिक स्थापना 3 अक्टूबर 1924 को कानपुर में हुई।
दिल्ली अधिवेशन में, शचीन्द्रनाथ सान्याल ने भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य निर्धारित करने के साथ-साथ भविष्य में संपूर्ण एशिया को एक महासंघ के रूप में संगठित करने का विचार प्रस्तुत किया। इस विचार से जुड़े पर्चे रंगून से लेकर पेशावर तक वितरित किए गए थे।
इन्हीं पर्चों के कारण, फरवरी 1925 में, उन्हें दो वर्ष की सजा हुई। जेल से रिहा होने के बाद, काकोरी कांड में उनका नाम सामने आया, जिसके चलते उन्हें एक बार फिर ‘कालापानी‘ की सजा सुनाई गई। कुछ वर्षों बाद, वे रिहा होकर घर लौटे, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नज़रबंद कर दिया।
हालांकि, द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने पर, 1940 में, उन्हें गिरफ्तार कर ‘देवली कैंप जेल’ भेज दिया गया। लंबे कारावास के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया, और उन्हें क्षय रोग ने घेर लिया। जब उनकी स्थिति अधिक गंभीर हो गई, तो सरकार ने स्वास्थ्य आधार पर उन्हें जेल से रिहा कर दिया। लेकिन बीमारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, और 1945 में, इस महान क्रांतिकारी का निधन हो गया।
उनकी क्रांतिकारी विचारधारा ने भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों को प्रेरित किया।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अमिट और अविस्मरणीय है।
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संदर्भ
मन्मथनाथ गुप्त, सिर पर कफन बांधकर,पुस्तकायन,1987
सुधीर विद्यार्थी, अग्निपुंज,राजकमल प्रकाशन,2007
शचीन्द्र नाथ बख्शी, वतन पर मरने वालों का,ग्लोबल हारमनी पब्लिशर्स…,,2009

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में