जब तिलका मांझी ने जगाई विद्रोह की ज्योत

1773 में, ऑगस्टस क्लीवलैंड भागलपुर का डिप्टी कलेक्टर बना। 1779 में कलेक्टर बनने के बाद, उसने पहाड़ी आदिवासियों को नियंत्रण में लाने के लिए कैप्टन ब्राउन के मार्ग को अपनाया। उसने पहाड़िया सरदार, नायक और माँझी की नियुक्ति की और दो सौ पहाड़िया तीरंदाजों की भर्ती की, जिन्हें मासिक वेतन दिया जाने लगा। इसके बाद, इन्हें कैप्टन फॉग के अधीन पुलिस बल में शामिल कर दिया गया।
ऑगस्टस क्लीवलैंड ने राजमहल की पहाड़ियों के आसपास की भूमि पहाड़िया जनजाति के नाम पर बंदोबस्त कर दी, और इस पर कोई लगान नहीं रखा। इसके बावजूद, पहाड़िया लोग पहाड़ से नीचे नहीं उतरे।
कौन थे तिलका माँझी?
उस समय, तराई के घने जंगलों में संतालों के गाँव बसे हुए थे। भागलपुर की टील्हा कोठी के पास स्थित तिलकपुर गाँव, जो सुलतानपुर थाना (भागलपुर जिला) के अंतर्गत आता है, स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानी तिलका माँझी की जन्मस्थली है। उनका जन्म 11 फरवरी 1750 को एक साधारण संताल परिवार में हुआ था। उनका दूसरा नाम जबरा भी था।
वनों से घिरे इसी गाँव में तिलका माँझी का बचपन बीता। बचपन से ही वह तीक्ष्ण बुद्धि के थे। तीर-धनुष लेकर जंगलों में शिकार करना और संकट में दूसरों की मदद करना उनके स्वभाव में था। वह दूरदर्शी, कर्मठ, मिलनसार, कुशल तीरंदाज, संकल्पशील, चीते जैसे फुर्तीले और शेरदिल थे।
उस समय, अंग्रेजी शासन की सामंती और दमनकारी नीतियाँ चरम पर थीं। अंग्रेजों ने आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ा दिए थे। उनके खेतों और जंगलों पर जबरन कब्जा किया जा रहा था। आदिवासियों के बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को कठोर यातनाएँ दी जाती थीं, और अंग्रेज उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते थे।
परंपरागत अधिकारों के लिए तिलका माँझी का विद्रोह
युवावस्था में पहुँचते ही तिलका माँझी की सहनशक्ति जवाब देने लगी। उनके हृदय में क्रोध की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी, और 1772 में उन्होंने जमीन और फसल पर अपने परंपरागत अधिकार के लिए आंदोलन छेड़ दिया। तिलका माँझी ने अपने परंपरागत हथियार, तीर-धनुष, उठा लिए और संताल परगना के लोगों को संगठित कर अंग्रेजी सत्ता को खुली चुनौती दी।
विद्रोह का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा,
“अंग्रेजों, हमारे आदिवासियों पर अत्याचार करना छोड़ो, अन्यथा मरने के लिए तैयार हो जाओ!”
तिलका माँझी ने हिंदुओं, मुसलमानों और आदिवासियों को एकजुट कर एक संयुक्त संगठन का निर्माण किया। वे गाँव-गाँव जाकर सभाएँ आयोजित करते, लोगों को अंग्रेजों के शोषण और लूट के विरुद्ध संगठित संघर्ष के लिए प्रेरित करते।
उन्होंने बनचरीजोर नामक गाँव में संतालों का एक मोर्चा स्थापित किया, जहाँ वे आदिवासी युवकों को तीर-धनुष, भाला और बर्छी चलाने के साथ-साथ पत्थरों से हथियार बनाने की कला सिखाने लगे। जल्द ही वहाँ एक साहसी और युद्ध-कुशल सैन्य टुकड़ी तैयार हो गई।
तिलका माँझी अपनी आदिवासी सेना के साथ गंगा नदी के किनारे बसे मारगोदर, तेलियागाठी दर्रे और कहल गाँव तक अंग्रेजों के खजाने को लूटता और उससे प्राप्त धन गरीबों, दुखियों और शोषितों में बाँट देता था। इस कारण वह आदिवासियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हो गए। इन भोले-भाले आदिवासियों के मन में तिलका माँझी के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास जागृत हुआ। धीरे-धीरे संपूर्ण आदिवासी समुदाय विदेशी हुकूमत और सामंतवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए तिलका माँझी के साथ आ खड़ा हुआ।

तिलका माँझी का अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष
तिलका माँझी के छापामार संघर्ष से अंग्रेज सरकार इतनी भयभीत हो गई कि इसे कुचलने के लिए जनरल ब्रूक के नेतृत्व में 1,300 सैनिकों का एक दल भेजा गया। मार्च 1783 में घमासान युद्ध शुरू हुआ, जो भागलपुर, मुंगेर और संताल परगना के बड़े क्षेत्रों तक फैल गया।
एक ओर थी आयर ब्रूक के नेतृत्व में हजारों की अंग्रेजी सेना, तो दूसरी ओर तिलका माँझी के नेतृत्व में धनुषधारी संतालों, हिंदुओं और मुसलमानों की सेना।
इस बीच, अंग्रेज सेनानायक ऑगस्टस क्लीवलैंड भी तिलका माँझी को पकड़ने के लिए आ पहुँचा। दोनों के बीच संघर्ष लगातार बढ़ता गया।
13 फरवरी 1784 को, संयोग से क्लीवलैंड उसी वन में घोड़े पर सवार होकर जा रहा था, जहाँ तिलका माँझी छिपे हुए थे। यह सुनहरा अवसर देख, तिलका माँझी तीर-धनुष लेकर एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ गए। जैसे ही क्लीवलैंड उनके निशाने पर आया, तिलका माँझी ने कान तक तीर खींचकर छोड़ा, जो सीधे क्लीवलैंड की छाती में जा धँसा। क्लीवलैंड ने वहीं दम तोड़ दिया।
इस घटना से ब्रिटिश फौज में आतंक फैल गया और अंग्रेजी सरकार सन्न रह गई। तिलका माँझी को मारने के लिए षड्यंत्र रचे जाने लगे। तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हर हाल में तिलका माँझी को पकड़ने का आदेश जारी कर दिया।
ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या के अगले दिन रात में, तिलका माँझी अपने साथियों के साथ उत्सव मना रहे थे। वे नाच-गा रहे थे कि अचानक, बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज ने उन पर हमला कर दिया। पूरी रात घमासान युद्ध चला, जिसमें सैकड़ों वीर योद्धा शहीद हो गए और अनेक को बंदी बना लिया गया।
मगर, चतुर तिलका माँझी अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंकने में सफल रहे। इसके बाद, उन्होंने सुलतानगंज की पहाड़ियों में शरण ली। अंग्रेजी सेना ने उनकी तलाश तेज कर दी और सुलतानगंज पर्वत को चारों ओर से घेर लिया।
तिलका माँझी की शहादत
भूख-प्यास से तिलका माँझी और उनके साथियों की हालत गंभीर हो गई। आखिरकार, उन्होंने अंग्रेजी सेना से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया। इस युद्ध में लगभग चार सौ क्रांतिकारी शहीद हुए, जिनमें तिलका माँझी के चार भाई और उनकी पत्नी भी शामिल थे।
लेकिन, उनके ही एक साथी ने विश्वासघात कर उन्हें अंग्रेजों के हवाले कर दिया। अंग्रेजी हुकूमत ने निर्दयता की सारी हदें पार करते हुए उन्हें घोड़ों के पैरों से बाँधकर भागलपुर की सड़कों पर घसीटा। इसके बाद, उन्हें एक बरगद के पेड़ पर बेरहमी से फाँसी पर लटका दिया गया, ताकि कोई और विद्रोह करने की हिम्मत न करे।
तिलका माँझी मृत्यु को हँसते-हँसते गले लगाकर भारत माता की गोद में समा गए। लेकिन, अंग्रेजों की क्रूरता यहीं नहीं रुकी—उनके शव को कई दिनों तक उसी बरगद के पेड़ से लटकता छोड़ दिया गया|
तिलका माँझी सच्चे अर्थों में स्वाधीनता संग्राम के वीर सेनानी थे। अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठानेवाले तिलका माँझी भारत माता के पहले सिपाही थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी शहादत दी और अमर हो गए।
भागलपुर का वह स्थान, जहाँ उनको फाँसी पर लटकाया गया था, उस अमर शहीद की पुण्य स्मृति में आज बाबा तिलका माँझी चौक कहलाता है। उस चौक पर बाबा तिलका माँझी की एक विशाल प्रस्तरप्रतिमा स्थापित की गई है। उस मार्ग से गुजरनेवालों को वह प्रतिमा देशप्रेम और पराधीनता से मुक्ति के लिए हँसते- हँसते अपने प्राणों की बलि देने की प्रेरणा देती है ।
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संदर्भ
सत्यनारायण नाटे, झारखंड के सपूत, आलेख प्रकाशन, 2008

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