जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद गांधीजी ने अंग्रेज़ों के खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी थी । आंदोलन का नाम था असहयोग आंदोलन । आंदोलन को पूरे भारत में काफी सफलता मिली लेकिन गोरखपुर के चौरी चौरा में एक भीड़ ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी जिसमें 22 पुलिस वालों की मौत हो गई। गांधीजी ने इस घटना के बाद आंदोलन को वापस ले लिया ।
गांधीजी को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया । लेकिन फरवरी 1924 में उनके खराब स्वास्थ्य की वजह से उन्हें छोड़ दिया गया । बाहर आकर गांधीजी ने ‘चरखा आंदोलन’ शुरू कर दिया।
रवींद्रनाथ टैगोरगांधीजी के समय के काफी मशहूर कवि थे। उन्होंने गांधीजी के न सिर्फ चरखा आंदोलन और असहयोग आंदोलन पर बल्कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भी लेख लिखकर आलोचना की। उन्होंने लिखा कि जैसे कुछ लोगों के लिए उनकी आजीविका है वैसे ही कुछ लोगों के लिए राजनीति है जहां वो अपने देशभक्ति की विचारधारा का व्यापार करते हैं।
रवीन्द्रनाथ ने जब यह देखा कि पूरे जोश खरोश के साथ असहयोग आंदोलन शुरू हो रहा है, तो वे ऐसा लिखने के लिये बाध्य हुए-सारे भारत में उस समय हलचल मची हुई थी — कहीं ख़िलाफ़त के नाम पर, कहीं पंजाब की नृशंसता के कारण शरीर से दुर्बल भारतवासियों के लिए इस तरह उन्मत्त होना कितना हानिकर हो सकता है, यह सोचकर रवीन्द्रनाथ शंकित हुए।
उन्होंने चाहा कि लोग असंभव प्रतिकार करने का ख़याल छोड़कर और बदला लेने की इच्छा स्थगित रखकर इस समय इस महान् देश की मनोरचना में लग जायें। गांधीजी के विचारों और कार्यों में आत्मत्याग की जो प्रज्वलित वह प्रतिफलित हैं, उसके लिए रवीन्द्रनाथ के मन में असीम श्रद्धा का भाव है (2 मार्च 1921) को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस संबंध में विस्तारपूर्वक लिखा था- जिसमें असहयोग की नयी निषेधात्मक नीति के प्रति उनके मन में वैसी ही उपेक्षा का भाव था।
स्वराज क्या है! माया है, धुंध है जो कि खुद खत्म हो जाएगा उस अविनाशी पर बिना कोई असर डाले। हालांकि हम अपने आप इस झूठ का विश्वास दिला सकते हैं कि स्वराज हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारी लड़ाई आध्यात्मिक लड़ाई है। यह लोगों के लिए है। हमें लोगों को उनकी खुद की अज्ञानता से मुक्त कराना होगा ।हमें तितली को यह विश्वास दिलाना होगा कि आकाश की स्वतंत्रता कोकून के शरण से बेहतर है।
नेशनलिज़म या राष्ट्रवाद के बारे में टैगोर ने कहा कि हमारी भाषा में ‘नेशन’ के लिए कोई शब्द नहीं है ।जब हम दूसरों ये शब्द उधार लेते हैं तो यह हमारे लिए सटीक नहीं बैठता।
टैगोर द्वारा असहयोग आंदोलन की आलोचना में गांधी जी का उत्तर
मैं समझता हूं कि कवि ने अनावश्यक रूप से असहयोग आंदोलन के नकारात्मक पक्ष को उभारा है । हमने ‘न’ कहने की शक्ति खो दी है । सहयोग न करना ऐसा ही है जैसे खेत में बीज बोने से पहले किसान खरपतवार को साफ करता है। खरपतवार को साफ करना काफी ज़रूरी है । यहां तक कि जब फसल बढ़ रही हो तो भी ये ज़रूरी होता है । असहयोग का अर्थ है कि लोग सरकार से संतुष्ट नहीं हैं।
देश ने गैर- नुकसानदायक, प्राकृतिक और धार्मिक असहयोग का रास्ता चुना है न कि हिंसा का अधार्मिक रास्ता और, अगर देश कभी भी कवि के स्वराज को प्राप्त कर पायेगा तो यह असहयोग और अहिंसक आंदोलन से ही होगा।
(1 जून 1921 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित किए गए आर्टिकिल ‘द पोएट ऐंक्ज़ाइटी’ से)
इसके उत्तर में गांधीजी ने कहा, ग्रहण और त्याग, जीवन में दोनों की एक जैसी ज़रूरत है, दोनों को लेकर ही मनुष्य के सारे उद्यम हैं-उपनिषद् की अंतिम बात भी निषेधात्मक है, और ब्रह्म की संज्ञा बतलाते हुए उपनिषदों के ऋषि कहते हैं ‘नेति’ । बहुत दिनों से भारत ने ‘ना’ कहने की सामर्थ्य खो दी थी, वही सामर्थ्य उन्होंने भारत को लौटा दी है। ‘बीज बोने के पहले कुदाल चलाना पड़ता है, मिट्टी से गंदगी निकाल देनी पड़ती है ।’
गांधीजी और टैगोर के बारे में टिप्पणी करते हुए नेहरू ने कहा था कि कोई भी दो व्यक्ति इतने अलग नहीं हो सकते जितने गांधीजी और टैगोर । दोनों एक ही विचार और संस्कृति से प्रेरित थे फिर भी आपस में इतने अलग-अलग थे। यह भारतीय संस्कृति की खासियत है जिसने एक ही समय में दो इतने विपरीत विचारधारा वाले और महान लोगों को जन्म दिया। जाने-माने फ्रेंच लेखक रोमेन रोलैंड ने इसे ‘द नोबल डिबेट’ कहा था।
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गांधीजी के तरकश में सत्याग्रह का एक और प्रभावी तरीका था, जिसमें आर्थिक बहिष्कार भी शामिल था। इसका अर्थ था विदेशी उत्पादों का बहिष्कार और उनके स्थान पर स्थानीय रूप से उत्पादित वस्तुओं का प्रयोग। गांधीजी के अनुसार, विदेशी वस्त्र बहिष्कार योग्य वस्तुओं में शामिल थे। इसलिए, 1920-22 के दौरान उन्होंने हिंदुस्तान में विदेशी कपड़ों के विनाश का आह्वान किया। जुलाई 1921 में, गांधीजी ने स्वयं मुंबई में विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का शुभारंभ किया।
गांधीजी का विचार था कि विश्व की जटिल परिस्थितियों में सामाजिक बहिष्कार की अत्यंत सीमित प्रासंगिकता है। इसे केवल अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में ही अमल में लाना चाहिए, जब कोई उद्धत (विद्रोही) अल्पमत, बहुमत को किसी सिद्धांत के बजाय सिर्फ चुनौती देने के उद्देश्य से खारिज कर दे। सामाजिक बहिष्कार को तभी लागू किया जाना चाहिए जब यह सुनिश्चित कर लिया जाए कि इसे सजा के रूप में न देखा जाए। ‘यदि इसके द्वारा लक्षित व्यक्तियों को असुविधा होती है, तो उसके दर्द की अनुभूति लक्ष्य साधकों के दिलों में होनी चाहिए।’
सारे देश में जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलने लगी और चरखा गूंजने लगा। कुछ ने शुद्ध खादी का व्रत लिया, जिसे लोगों ने अपनी अंतिम सांस तक निभाया।
राजनीतिक क्षेत्रों में, बहिष्कार सविनय अवज्ञा का रूप धारण कर लेता है। इसके अंतर्गत उपाधियों और सम्मानों की वापसी, और जो लोग लोकप्रिय इच्छाओं को अभिव्यक्त नहीं करते, उनसे सभी प्रकार की सेवाओं का इंकार शामिल है। मतदाताओं को तथाकथित प्रतिनिधियों के चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से पूरी तरह अलग हो जाना चाहिए। असहयोग में शामिल जनता इन प्रतिनिधियों के राजनीतिक जुलूस या जलसों में हिस्सा नहीं लेगी। इस प्रकार, उनके प्रति किसी भी प्रकार का सम्मान व्यक्त नहीं किया जाएगा।
Tagore
गांधीजी ने ‘ध्वंस की नैतिकता‘शीर्षक से लेख लिखा
1921 के अगस्त महीने में जब गांधीजी के नेतृत्व में बंबई में बहुत से मूल्यवान विदेशी वस्त्रों की होली जल रही थी, रवीन्द्रनाथ के मित्र एंड्रज के आग्रहपूर्ण अनुरोध के उत्तर में गांधीजी ने ‘ध्वंस की नैतिकता’ शीर्षक एक लेख लिखा था ( 1 सितंबर, 1921), उसमें उन्होंने लिखा था –
जनता के क्रोध का रुख मनुष्यों से हटाकर वस्तुओं की ओर मोड़ रहे हैं।” लेकिन वे यह नहीं समझते कि जनता का क्रोध धीरे-धीरे बढ़ रहा है, और वे सोच रहे हैं, “पहले वस्तुओं को नष्ट कर दें, फिर मनुष्यों पर आक्रमण करेंगे।”
वे उस समय भी यह नहीं समझ पाए कि केवल तीन महीनों के भीतर ही जनता उसी बंबई में नरसंहार पर उतारू हो जाएगी। मनुष्य की जो पाशविक प्रवृत्ति आमतौर पर सोई रहती है,गांधीजी उससे बहुत अधिक मुक्त हैं; वे अत्यधिक पवित्र और साधु हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि आज जो लोग अधीरता से उनकी बातों को स्वीकार कर रहे हैं, उन्हीं के बीच पाशविक प्रवृत्ति घात लगाए बैठी है।
रवीन्द्रनाथ ने किया था अविवेकी या निष्ठुर बर्बादी‘
रवीन्द्रनाथ अधिक दूरदर्शी थे, उन्होंने इसे असहयोगियों की धृष्टता कहाँ। टैगोर आंदोलन एवं विरोध प्रदर्शन के विपरीत रचनात्मक कार्यक्रम को विशेष महत्व प्रदान करते थे जिसके कारण उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के विपरीत गांधीजी को रचनात्मक कार्यक्रम अपनाने की बात अपने पत्र में कही। असहयोग आंदोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विदेशी वस्त्रों को जलाये जाने को ‘अविवेकी या निष्ठुर बर्बादी’ कहा था।
यद्यपि असहयोगी लोगों ने बड़ी आंतरिकता के साथ अहिंसा की बात कही है, लेकिन साथ ही वे यूरोप के पाप के बारे में जनता को लगातार आगाह भी करते जा रहे हैं और इस तरह वे जनता के मन में भी उस कीटाणु का संचार करते जा रहे हैं, जो किसी-न-किसी दिन हिंसा का आश्रय लेकर रहेगा
लेकिन जिनका चित्त विद्वेष की सारी भावनाओं से मुक्त है, वे धर्म प्रचारकगण इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं। जो लोगों को कर्मक्षेत्र में उतार रहे हैं, अपने हृदय की धड़कन सुनने से उनका काम न चलेगा, उनहें सिर्फ़ दूसरों के हृदय की ही सुननी पड़ेगी जनता से सावधान रहना चाहिये। जब उन पर नशा चढ़ेगा तो किसी गांधीजी का नैतिक आदेश उन्हें बाँधकर न रख सकेगा।
बेशक, केवल एक संभावना है, जिसके द्वारा जनता बिना सोचे-विचारे नेता की कठोर व्यवस्था को मानने को राजी हो सके अगर नेता अपने को ईश्वर का अवतार घोषित करना स्वीकार कर ले। जनता की छिपी इच्छा भी यही है-लोग तो आज ही गांधीजी को श्रीकृष्ण के रूप में चित्रित कर रहे हैं। लेकिन गांधीजी में जो आंतरिकता और विनय है, उसके कारण ऐसे काम के लिए स्वीकृति देना उनके लिए संभव नहीं है।
अतः जो कुछ बाक़ी रह जाता है, वह है उनका अकेला स्वर, जो एक पवित्रतम मनुष्य का स्वर है और जो गरजते तरजते मानव समुद्र के ऊपर विचरण करता है और कितने दिनों तक वह अपना स्वर सुना पायेगा? कैसी महान कैसी करुण प्रतीक्षा है!