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Nehru and POK

कश्मीर समस्या पर सरदार पटेल का रुख

कश्मीर संघर्ष का परिचय

कश्मीर संघर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद शुरू हुआ, जब पाकिस्तानी सेना समर्थित कबाइली मिलिशिया ने जम्मू और कश्मीर पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का सामना कर रहे महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सेना ने हस्तक्षेप कर आक्रमणकारियों को पीछे धकेला। हालांकि, इस ऐतिहासिक तथ्य को तोड़-मरोड़कर पेश करने की प्रवृत्ति आज भी जारी है, ताकि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर समस्या का खलनायक बनाया जा सके।

हाल ही में, 27 मई 2025 को गुजरात में एक रैली के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया, “सरदार पटेल की इच्छा थी कि जब तक पाक अधिकृत कश्मीर(POK) वापस नहीं लिया जाता, तब तक सेना रुके नहीं, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई।”

यह लेख ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस दावे की सत्यता की जांच करता है।

देसी रियासतों के विलय में सरदार पटेल की भूमिका

स्वतंत्रता के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने देसी रियासतों के भारत में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, कश्मीर के मामले में उनका दृष्टिकोण अन्य रियासतों से भिन्न था।

राजमोहन गांधी द्वारा  लिखित सरदार पटेल की जीवनी के अनुसार, शुरू में  सरदार पटेल कश्मीर के प्रति उदासीन थे और उनका मानना था कि कश्मीर का निर्णय वहां के शासक, महाराजा हरि सिंह, पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि यदि महाराजा को पाकिस्तान के साथ जाने में अपना और राज्य का हित दिखता है, तो वे इसमें बाधा नहीं डालेंगे।[1]

महाराजा हरि सिंह की दुविधा

महाराजा हरि सिंह, जो हिंदू थे, पाकिस्तान के साथ जाना नहीं चाहते थे, लेकिन भारत के साथ विलय में भी उनकी रुचि नहीं थी। उनकी आशा थी कि वह भारत और पाकिस्तान दोनों से स्वतंत्रता बनाए रख सकेंगे। इस अनिश्चितता के बीच, अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबाइली मिलिशिया के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, जिससे महाराजा हरीसिंह घबरा गए और उन्होंने भारत से सैन्य सहायता मांगी।

कश्मीर का भारत में विलय

आक्रमण के कारण, हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी, लेकिन बिना औपचारिक विलय के भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी। दिल्ली में सरदार पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू और लॉर्ड माउंटबेटन के बीच एक महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें भारतीय सेना को तुरंत भेजने और हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया गया, बशर्ते कश्मीर भारत में विलय के लिए सहमत हो।

26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए, जिससे कश्मीर आधिकारिक रूप से भारत का हिस्सा बन गया। अगले ही दिन, भारतीय सेना ने श्रीनगर से आक्रमणकारियों को खदेड़ना शुरू कर दिया।

नरेंद्र मोदी के दावे की पड़ताल

सरदार पटेल का एन. गोपालास्वामी को पत्र

मोदी के दावे की सत्यता जांचने के लिए हम सरदार पटेल के 4 जून 1948 को एन. गोपालास्वामी (जम्मू और कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री) को लिखे पत्र का उल्लेख करेंगे।

यह पत्र सरदार पटेल के युद्ध के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है:

  1. सैन्य तनाव और चिंताएं: सरदार पटेल ने लिखा, “सैन्य स्थिति अच्छी नहीं है, और मुझे डर है कि हमारे सैन्य संसाधन पूरी तरह से तनावग्रस्त हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण मामले को हम कब तक चलाएंगे, यह अनुमान करना मुश्किल है।” इससे पता चलता है कि पटेल युद्ध को लंबे समय तक चलाने के पक्ष में नहीं थे और सैन्य संसाधनों की कमी को लेकर चिंतित थे।
  2. शीघ्र समाधान की इच्छा: सरदार पटेल ने युद्ध को “दुर्भाग्यपूर्ण मामला” कहा और इसकी अवधि को लेकर अनिश्चितता जताई। उन्होंने आगे लिखा, “वर्तमान तनाव की स्थिति को जारी रखना कश्मीर के हित में गंभीर नुकसान के बिना संभव नहीं है।” इससे स्पष्ट है कि वे युद्ध को जल्द समाप्त करने और कूटनीतिक समाधान के पक्ष में थे।

 

सरदार पटेल के रुख का विश्लेषण

सरदार पटेल का पत्र इस दावे का खंडन करता है कि वे पूरे कश्मीर, जिसमें पीओके शामिल है, को वापस लेने के लिए युद्ध को जारी रखना चाहते थे। उनकी मुख्य चिंता सैन्य संसाधनों की कमी और लंबे समय तक तनाव के कश्मीर मुद्दे पर नकारात्मक प्रभाव को लेकर थी। वे युद्ध को लंबा खींचने के बजाय कूटनीतिक समाधान चाहते थे।

निष्कर्ष

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा कि सरदार पटेल चाहते थे कि सेना तब तक लड़े जब तक पीओके वापस न ले लिया जाए, ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाता। सरदार पटेल का एन. गोपालास्वामी को लिखा पत्र स्पष्ट रूप से उनकी सैन्य संसाधनों की कमी और युद्ध को जल्द समाप्त करने की इच्छा को दर्शाता है। नेहरू को कश्मीर समस्या का दोषी ठहराने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना इस जटिल मुद्दे को सरल बनाने की कोशिश है और पटेल के सूक्ष्म दृष्टिकोण को नजरअंदाज करता है।

[1] सरदार पटेल, एक समर्पित जीवन(राजमोहन गांधी) पृ- 445

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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