असेम्बली बम कांड और भगतसिंह का मुकदमा
जब अंग्रेजों ने दिल्ली स्थित सेंट्रल असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पास करवा चुकी थी और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पर चर्चा हो रही थी। ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के तहत मजदूरों द्वारा की जाने वाली हर तरह की हड़ताल पर पाबंदी लगाने का प्रावधान था। क्रांतिकारियों में इन कानूनों के खिलाफ बहुत रोष था. उन्हें लग रहा था कि अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है और उन्हें कुछ इन कानूनों के खिलाफ करना ही होगा। भगत सिंह देश के युवाओं को क्रांतिकारियों के भावनाओं से जोड़ना चाहते थे। उन्होंने एक अवसर के रूप में देखा और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई।
भगत सिंह चाहते थे कि अंग्रेज सरकार जाने कि इस बिल को लेकर क्रांतिकारियों और लोगों में कितनी नाराजगी है। उनके कहना था कि असेंबली में बम का धमाका बहरी अंग्रेज सरकार के कान खोलने का प्रतीक होगा जिससे वह यह सुन सके कि यह कानून गलत है।
जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में दो बम फेंके, उन्होंने इस बात का खास ख्याल रखा कि किसी को कोई नुकसान ना हो। बम फेंकने के बाद दोनों ने वहां से फरार होने की बिलकुल कोशिश नहीं की बल्कि असेंबली में पर्चे फेंकते रहे और आजादी के नारे लगाते हुए अपनी गिरफ्तारी दी।
भगत सिंह को 8 अप्रैल, 1929 को जिस असेम्बली बम कांड में गिरफ़्तार किया गया था उसमें यह बहुत स्पष्ट था कि वह न तो भागना चाहते थे। न ही किसी की हत्या करना चाहते थे।
6 जून को जब यह केस अदालत में गया तो भगत सिंह ने किसी वकील की सहायता लेने से इनकार कर दिया और एक क़ानूनी सलाहकार की मदद ले अपना मुकदमा खुद लड़ने का फ़ैसला किया। इसी केस में उनके साथ गिरफ्तार बटुकेश्वर दत्त का मुक़दमा कांग्रेस के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी वकील आसफ़ अली ने लड़ा था।
हफ्ते भर के अन्दर ही इस मुकदमे का फ़ैसला आ गया और 14 जून को दोनों क्रान्तिकारियों को आजीवन कारावास की सजा देकर भगत सिंह को मियाँवाली और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर की जेल में भेज दिया गया।
जब भगतसिंह और साथियों ने गांधीवादी तरीके से भूख हड़तालें की
इसी बीच भगत सिंह के दो साथियों, हंसराज बोहरा और जयगोपाल ने सांडर्स हत्याकांड में उनके ख़िलाफ़ गवाही दे दी तथा भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, अजोय घोष, जतिन दास, प्रेम दत्त आदि क्रान्तिकारियों पर मुक़दमा शुरू हुआ। जेल के भीतर भगत सिंह और उनके साथियों ने राजनैतिक क़ैदी के दर्जे और बेहतर सुविधाओं के लिए गांधीवादी तरीक़े से लम्बी भूख हड़तालें कीं।
मोतीलाल नेहरू ने इन युवकों का समर्थन करते कहा- “भूख-हड़ताल उन्होंने खुद के लिए नहीं की है—नेहरू कांग्रेस के कुछ अन्य सदस्यों के साथ जेल में भगत सिंह से मिले वजह है।”
अंग्रेजों द्वारा इस अनशन पर ध्यान न दिए जाने पर जवाहरलाल और बयान जारी किया-
इन नायकों की हालत देखकर मैं बहुत व्यथित है। संघर्ष में उन्होंने के साथ राजनैतिक कैदियों की तरह ही व्यवहार किया जाए। मुझे पूरी अपना जीवन दाँव पर लगा दिया है। वे चाहते हैं कि राजनैतिक कैदियों आशा है कि उनके त्याग को सफलता का मुकुट जरूर मिलेगा।
सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में उठा भगत सिंह का मुद्दा
मोहम्मद अली जिन्ना ने सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में भगत सिंह का मुद्दा उठाते हुए कहा—उन्हें भोजन और जीवन के मामले में यूरोपियों के लिए निर्धारित स्तर और पैमाने से नस्ली भेदभाव के आधार पर कमतर सुविधाएँ दी जा रही हैं। उस दौर तक जिन्ना की आँखों पर साम्प्रदायिकता की जहरीली पट्टी नहीं चढ़ी थी।
63 दिनों की हड़ताल के बाद जतिन दास शहीद हुए। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने बंगाल के इस महान सपूत को कलकत्ता लाने की व्यवस्था की जिसने अपनी अन्तिम इच्छा में कहा था- रूढ़िवादी तरीक़े से मेरा अन्तिम संस्कार न किया जाए। बंगाल की दीवारों पर पोस्टर लगे- मेरा बेटा जतिन दास जैसा हो।
पूरा देश शोक संतप्त था। पंजाब के कांग्रेसी नेताओं गोपीचन्द भार्गव और मोहम्मद आलम ने पंजाब लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया तो मोतीलाल नेहरू ने सेन्ट्रल असेम्बली में पंजाब सरकार की निन्दा का प्रस्ताव रखा जो बहुमत से पास हुआ।”
बाक़ी सभी साथियों ने अनशन वापस ले लिया था लेकिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त अब भी अड़े हुए थे। एक नेता की तरह भगत सिंह साथियों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने की जगह क्रान्ति यज्ञ में अपनी आहुति देने को सदा तैयार रहते थे।
अन्ततः उनके पिता और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य सरदार किशन सिंह कांग्रेस द्वारा पारित उनसे अनशन समाप्त करने का निवेदन पत्र लेकर आए। गांधी और कांग्रेस का सम्मान करते हुए भगत और बटुकेश्वर ने 116 दिनों के अनशन के बाद 5 अक्टूबर, 1929 को भूख-हड़ताल ख़त्म की।
सरकार हर हाल में भगत सिंह को सजा देने पर अड़ी थी
लाहौर केस में भगत सिंह और उनके साथियों की पैरवी गोपीचन्द भार्गव (कांग्रेसी नेता जिन्होंने जतिन दास के अनशन के बाद इस्तीफ़ा दिया था और जो आगे चलकर पंजाब के मुख्यमंत्री भी बने), दुनीचन्द, बरकत अली, अमीनचन्द मेहता, बिशननाथ, अमोलक राय कपूर, डब्ल्यू चन्द्र दत्त और पूरनचन्द मेहता ने की थी।
लेकिन सरकार हर हाल में भगत सिंह को सजा देने के लिए मुतमइन थी तो सभी संवैधानिक मूल्यों का मज़ाक़ उड़ाते हुए इकतरफ़ा मुक़दमा चलाया। क्रान्तिकारियों को हर ओर से जनता की तारीफ़ मिल रही थी और सुभाषचन्द्र बोस, मोतीलाल नेहरू, रफ़ी अहमद किदवई तथा राजा कालाकांकर जैसे लोग उनसे मिलने आए।
जल्दी फ़ैसले के लिए अन्ततः मुक़दमा जस्टिस शादीलाल की अदालत से लेकर एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया जिसे असीमित अधिकार दिए गए थे और जिसके फ़ैसले को ऊपर चुनौती नहीं दी जा सकती थी। भगत सिंह ने इस अदालत को एक ढकोसला कहा और ट्रिब्यूनल द्वारा सरकारी खर्च पर वकील नियुक्त करने की माँग ठुकरा दी। क्रान्तिकारी अदालत में इंक़लाब जिन्दाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाते थे और मुक़दमे की कार्यवाही में बाधा डालते थे।ट्रिब्यूनल में लगभग सारा मुक़दमा भगत सिंह और उनके साथियों की अनुपस्थिति में चला।
7 अक्टूबर, 1930 को इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा-ए-मौत तथा किशोरीलाल, महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव और कमलनाथ तिवारी को कालापानी, कुंदनलाल को सात साल तथा प्रेम दत्त को पाँच साल की सज़ा मुक़र्रर की।
संदर्भ
अशोक कुमार पांडेय, उसने गांधी को क्यों मारा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में