कैसे मिला भारतीय औरतों को वोट देने का अधिकार?
जब स्त्रियों के संदर्भ में भारत के गौरवशाली अतीत की बातें होती हैं और मनुस्मृति से उद्धरण दिया जाता है- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता! तो साथ ही मंचों से अक्सर यह भी सुनने को मिलता है कि जैसे बाक़ी देशों में महिलाओं को मताधिकार पाने के लिए संघर्ष करने पड़े भारत में आज़ादी की सुबह होते ही उन्हें झोले में मताधिकार मिल गया। कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा जो भारतीय संस्कृति की उदारता का परिणाम है। लेकिन सच यह है कि दुनिया भर में स्त्रियों के मताधिकार आंदोलन (suffrage movement) में भारतीय स्त्रियाँ सार्वभौमिक बहनापे (universal sisterhood) के तहत शामिल थीं। ब्रिटिश भारत में स्त्रियों ने न सिर्फ स्त्रियों के लिए मताधिकार की मांग की बल्कि बिना किसी भेद-भाव सभी को वोटिंग का अधिकार दिए जाने की मांग उठाई।
स्त्री की नागरिकता का सवाल
अमरीका और इंग्लैंड जैसे देशों में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही औरतों की नागरिकता के सवाल उठने शुरु हो गये थे। डेक्लेरेशन ऑफ इनडिपेंडेंस यानी अमरीकी आज़ादी की तर्ज़ पर 1848 के सेनेका फॉल्स कंवेंशन में 68 महिलाओं और 32 पुरुषों ने डेक्लेरेशन ऑफ सेंटीमेंट्स पर हस्ताक्षर किए और सरकार के सामने औरतों को पूर्ण नागरिकता दिए जाने, वोटिंग का अधिकार दिए जाने के उद्देश्य के लिए प्रतिबद्धता जताई।
बीसवीं सदी के शुरुआत के दशक में यह राजनीतिक चेतना, नागरिकता के लिए स्त्री के संघर्ष यूरोप और रूस तक में व्याप्त हो चुके थे। कामकाजी औरतों के मुद्दे भी आंदोलन का रूप ले चुके थे। उन्होंने समान काम के लिए समान वेतन, काम के घण्टे कम करने और वोट डालने के अधिकार की बात सरकारों के सामने रखी।
फरवरी 1908 में न्यू यॉर्क की गार्मेण्ट फैक्तरी की हज़ारों महिलाओं ने काम करने की खराब स्थितियों के ख़िलाफ हड़ताल और मार्च किया। यह साल भर तक चलती रही और साल भर बाद अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने 1909 से 1913 तक फरवरी में आखिरी संडे को महिला दिवस की तरह मनाया. औरतें मिलती थीं, गोष्टियाँ करती थीं, आजे की योजना तय होती थी, पिछली योजनाओं से सबक लिए जाते थे, माँगों के प्रपत्र तैयार होते थे।
1910 में जर्मनी की कम्यूनिस्ट लीडर, एक्टिविस्ट, महिला यूनियन अध्यक्ष क्लारा ज़ेट्किन ने भी प्रस्ताव किया कि दुनिया के सभी देशों में कोई एक दिन महिला दिवस मनाया जाना चाहिए. इस दिन हम अपनी अपनी माँगें सरकारों के सामने रखेंगे। इस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित सभी पार्टियों, यूनियनों, कामकाजी महिला क्लबों की सदस्यों ने हामी भरी। भारतीय स्त्रियाँ इन आंदोलनों से न तो अनजान थीं न ही अलग थीं। एक नागरिक के तौर पर न पहचाने जाने की पीड़ा दुनिया भर की स्त्रियों के लिए एक थी।
इंग्लैंड में एक भारतीय सफेरेजेट
स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और अधिकारों की लड़ाई में दुनिया भर के देश एक दूसरे से प्रेरणा लेते और देते हैं। महाराजा दुलीप सिंह[1] की बेटी सोफिया दुलीप सिंह[2] 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय को सुनकर बहुत प्रभावित हुई। आगे इंग़्लैंड में 1909 में स्त्री मताधिकार आंदोलन की नेताओं को सुनते हुए उसे आज़ादी के दोनों स्वरों में बेहद समानता दिखाई दी। उसने फ़ैसला किया कि अब अपना जीवन सफ़रेज आंदोलन के नाम करेगी। उसकी दो बहनें भी स्त्री मताधिकार आंदोलनकारी थीं।
1911 में हज़ारों स्त्री मताधिकार आंदोलनकारियों की भीड़ में भारतीय महिलाओं के समूह में सोफ़िया प्रमुखता से शामिल थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारतीय सैनिकों की सेवा में इन्होंने नर्स की तरह भी काम किया इसने।
गाँधी पर स्त्री मताधिकार आंदोलंकारियों का प्रभाव
1906 में गाँधी जब इंग्लैंड गए तो मताधिकार आंदोलनकारी स्त्रियों से बेहद प्रभावित हुए। इस आंदोलन की नेता एमेलाइन पैंख्रस्ट के नारे ‘Deeds better than words’ ने उन्हें आकर्षित किया। इसी शीर्षक से
उन्होंने इंडियन ओपिनियन में एक लेख लिखा-
उन्होंने (स्त्री मताधिकार आंदोलनकारी) याचिकाएँ लिखीं, पत्र लिखे, भाषण दिए और कई तरीके इस्तेमाल किए. पिछले बुधवार उन्होंने हाउस ऑफ़ कॉमंस तक कूच की और कुछ तोड़-फोड़ भी की जिसके लिए उन सब पर 5 पाउंड का जुर्माना लगाया गया. सबने इनकार किया और बदले में जेल गईं. तीन महीने तक की जेल. वे सब सम्भ्रांत घरों से आती थीं और उनमें से कुछ बेहद पढ़ी- लिखी थीं.
मोंटेग्यू के लिए मताधिकार की मांग करता महिलाओं का डेलीगेशन गम्भीर नहीं महज़ रोचक घटना थी
भारत के तत्कालीन सचिव एड्विन मोंटेग्यू ने 20 अगस्त 1917 को घोषणा की कि ‘भारत में एक जवाबदेह सरकार बनाने के लिए धीरे-धीरे स्वशासन की संस्थाओं का विकास किया जाएगा।’
आयरिश स्त्रीवादी मार्गरेट कजिंस और सरलादेवी चौधरानी द्वारा संगठित वीमेंस इंडियन एसोसिएशन के एक डेलीगेशन से भेंट के लिए मॉंटेंग्यू से समय मांगा। इसी समय महिलाओं के लिए मताधिकार का मुद्दा उठा और तैयारी के बाद 15 दिसम्बर 1917 को सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में 14 महिलाओं का एक प्रतिनिधि-मंडल मॉंटेंग्यू और चेम्सफोर्ड से मिला।
मॉंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन मॉंटेग्यू ने इसे अपनी डायरी में एक रोचक घटना की तरह दर्ज किया और – ‘बम्बई की एक बहुत ही अच्छी दिखने वाली महिला डॉ जोशी’, ‘एक कवयित्री तथा बहुत ही आकर्षक और चतुर, किंतु दिल से क्रांतिकारी (ऐसा वे मानते हैं) महिला सरोजिनी नायडू’ तथा ‘बम्बई की एक प्रसिद्ध मताधिकारवादी और मिसेज बेसेंट के जमात की एक महिला मिसेज कजिंस’ का उल्लेख किया।
स्त्रियों को अपनी मांगों की वैधता साबित करनी थी ताकि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए
औरतों की इस मांग को हलके में लिया गया। जैसे बच्चे कुछ भी मांग सामने रख देते हैं, उसपर विचार करने से पहले उनके अभिभावकों से अनुमोदन लेना होता है ठीक इसी तरह महिलाओं के लिए ज़रूरी था कि देश के पुरुष इस मांग से सहमत हों।
स्त्रियाँ भी अपने पुरुष राष्ट्रवादी साथियों से इस मुद्दे पर तकराव करने से बचना चाहती थीं। ऐसे में कॉन्ग्रेस के भीतर स्त्रियों के मताधिकार का प्रस्ताव पारित किया जाना ही एक रास्ता था। दिल्ली में दिसम्बर 1918 में कॉन्ग्रेस के अधिवेशन में सरलादेवी चौधरानी ने महिला मताधिकार के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया जिसकी बैठक में तरफदारी की गई और फिर इस तरह के प्रस्ताव देश भर में पारित हुए।
स्त्री-अधिकार की मांग अक्सर ही सम्भ्रांत औरतों की मांग कहकर टाल दी जाती है
मॉंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में तो मताधिकार की बात शामिल नहीं हो पाई लेकिन इसके बाद साउथबरा कमिटी ने भारत की यात्रा की और फिर से एक महिला प्रतिनिधि-मंडल ने इससे मुलाक़ात की। कमिटी ने औरतों को मताधिकार न देने का फ़ैसला किया जिसके निम्नलिखित तर्क दिए-
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यह एक सीमित मांग है, सिर्फ कुछ शिक्षित स्त्रियों की। ‘सामान्य तौर पर’ महिलाएँ मताधिकार नहीं चाहतीं।
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भारत में मताधिकार देने की मुश्किलें हैं कि यहाँ औरतों पर सामाजिक पाबंदियाँ बहुत हैं।
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साक्षरता कम है, पर्दा है, मतदान करने में व्याव्हारिक दिक्कतें आएंगी।
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महिला मताधिकार का विरोध एक धार्मिक भावना की तरह है जिसे उकसाना ‘खतरनाक’ होगा।
ख़ुद भारतीय स्त्रियाँ भी नहीं चाहती थीं कि स्त्री मताधिकार की माँग विदेशी शासन के सामने भारतीय साथी पुरुषों से एक सेक्स-वॉर में तब्दील न हो जाए। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिल पर विचार करने के लिए गठित कमिटी ने भी इसे ख़ारिज कर दिया।
1919 में एक ब्रिटिश संसदीय समिति ने माना कि यह मुद्दा ‘घरेलू दायरे’ में आता है और प्रांतीय समितियाँ इस पर विचार करें। ध्यान रखें, 1918 तक ब्रिटेन में आंशिक रूप से स्त्रियों को मताधिकार मिल चुका था।
राजनीतिक अधिकारों की राह मुश्किल है
सबसे पहले मद्रास ने 1921 में महिलाओंं को यह हक़ दिया। इस पर एक अंग्रेज़ सफ्रेजेट लेडी कॉन्स्टेंस लिटन ने बधाई लिखकर भेजी और फ्रांस व औस्ट्रेलिया के महिला संगठनों से भी बधाई आई।
इसके बाद बम्बई ने और प्रांतीय विधायिकाओं में 1929-30 तक सम्पत्ति के आधार पर महिलाओं को मताधिकार दिया गया लेकिन विधायिकाओं में बैठने का हक़ नहीं मिला। 1926 में कॉन्ग्रेस ने दो महिलाओं- कमलादेवी चट्टोपाध्याय और एम. हन्नान एंजेलो को चुनाव लड़ने का मौका दिया।
अफसोस कि दोनों ही जीत नहीं पाईं लेकिन 1927 में मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी को मद्रास लेजिस्लेटिव काउंसिल में मनोनीत किया गया।
सम्पत्ति को शर्त बनाना और पत्नी होने को शर्त बनाना स्त्री संगठनों के विरोध का मुद्दा बना।
वीमेंस एसोसिएशन और वीमेन कॉन्फ्रेंस ने साइमन कमीशन का विरोध किया क्योंकि इसमें सात पुरुष थे और सातों ही गोरे। कॉन्ग्रेस ने गोलमेज़ सम्मेलन में भाग न लेने का फैसला किया क्योंकि इरविन ने इसमें सरिजिनी नायडू, मुथुलक्ष्मी रेड्डी और रामेश्वरी नेहरू को शामिल करने की बजाय केवल इसपर विचार करने की बात कही।
साइमन कमीशन ने भी महिलाओंं की यह यह माँग ठुकरा दी। दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में इरविन-गाँधी समझौते के बाद कॉन्ग्रेस और बाक़ी महिला संगठनों ने शिरकत की।
दबाव देने पर एक भारतीय मताधिकार समिति गठित की गई जिसके सामने अपनी सिर्फ़ारिशें ड्राफ़्ट करने के लिए सरोजिनी नायडू की अध्यक्षता में इन सात लोगों की टीम बनी- हंसा मेहता, ताराबेन प्रेमचंद, फैज़ तैयबजी, मार्गरेट कज़िंस, हिला फर्दूनजी, शरीफा हामिद अली, मालिनी सुख्तांकर और रानी लक्षमीबाई रजवाड़े।
असली औरतें क्या चाहती हैं?
एक और समिति लोथियन समिति भारत के गाँवों का दौरा करने निकली कि पता लगाएँ- असली औरतें क्या चाहती हैं? घूम-फिरकर यह तय किया कि ये अभी मताधिकार के लायक नहीं हैं क्योंकि अशिक्षित, अज्ञानी हैं और घर के पुरुषों की राय से ही वोट करेंगी।
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 ने भी स्त्री मताधिकार को ख़ारिज कर दिया।
आज़ादी के बाद मिला अधिकार
All India Women’s Conference लगातार स्त्री मताधिकार को प्रचारित करती रही।
लेकिन अंतत: भारतीय संविधान लागू होने के बाद ही यूनिवर्सल अडल्ट सफरेज हासिल हो सका और औरतों को वोट डालने का अधिकार मिला।
[1] महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे जिन्हें, एंग्लो-सिख युद्ध के बाद 5 साल की उम्र में गद्दी पर बिठाया गया. 15 की उम्र में देशनिकाला दिया गया तो इंगलैंड चले गए। रानी विक्टोरिया इनकी कई संतानों की गॉडमदर थी। सोफ़िया की भी। इसके बावजूद उसने ब्रिटिश इस्टैब्लिशमेंट के ख़िलाफ़ कई काम किए।
[2] https://www.wionews.com/india-news/uk-honours-exiled-indian-princess-who-fought-for-womens-right-to-vote-in-uk-elections-32058
संदर्भ पुस्तकें
- Women’s Struggles, a history of All India Women’s Conference 1927- 2016, Aparna Basu & Bharati Ray, Manohar, 2018
- Sophia: Princess, Suffragette, Revolutionary, Anita Anand, Bloomsbury, 2015
- नागरिकता का स्त्री पक्ष, अनुपमा रॉय, वाणी प्रकाशन, 2019
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।