जब पटना में भूख ने लाखों लोगों की ली जान
वर्ष 1670- 1671 बिहार में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था। 1670 के अक्टूबर महीने से लेकर नवंबर 1671 के बीच पड़े भयानक अकाल ने बिहार के बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। पटना और उसके आस पास का इलाका बुरी तरह उजड़ गया था। पटना के पश्चिम में इसने वाराणसी से भी आगे इलाहाबाद तक के हिस्से को प्रभावित किया था। पटना के पूरब में राजमहल तक का बड़ा इलाका इस भयानक दुर्भिक्ष से प्रभावित हुआ था।
1670 में भयानक सुखाड़ की वजह से फसल के ख़राब होने की वजह से यह अकाल पड़ा था। लेकिन इस दुर्भिक्ष का कारण सिर्फ फसलों का बर्बाद होना नहीं था। उससे ज्यादा यह जमाखोरी और प्रशासनिक भ्रष्टाचारों की वजह से था। एक तरह से यह मानव निर्मित अकाल था।
उन दिनों जॉब चरनॉक पटना में रह कर ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए शोरे का कारोबार संभाल रहा था। उन्हीं दिनों इंग्लैंड से दो व्यापारी जॉन मार्शल और थॉमस बाउरे व्यापार के लिए हिंदुस्तान आये थे। पटना तब तक व्यापार का एक बड़ा केंद्र बन चुका था, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि वे पटना आते। थॉमस ने जो कुछ हिंदुस्तान में देखा सुना था उसे उसने अपने ‘लॉगबुक एंड जर्नल -वॉयेज फ्रॉम इंग्लैंड टू बंगाल’ में दर्ज़ किया था। 1671 के मध्य में वह पटना आया था।
क्यों मानव निर्मित था बिहार का अकाल ?
पटना के उस भयानक अकाल का उल्लेख उसने अपने लॉगबुक में किया है। थॉमस का मानना था कि यह दुर्भिक्ष अनाज की कमी से कम, मानव निर्मित ज्यादा था। क्योंकि पिछले वर्ष के सूखे के बावजूद चावल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। जाहिर था कि अनाजों का संग्रह किया गया था और उसे रोक कर रखा गया था। बाजार पूरी तरह सरकारी अधिकारियों और कुछ बड़े व्यापारियों के नियंत्रण में था।
जबकि मार्शल इस अकाल की वजह स्थानीय नवाब की धूर्तता को मानता था। उसने नवाब की बड़ी बेगम को इसकी वजह बताया है। उसने अपने वृतांत में लिखा है, ‘नवाब की बड़ी बेगम ने कई बड़े-बड़े गोदामों को अनाजों से भर रखा था।
उसने उन अनाजों के बेचने पर पाबंदी लगा रखी थी। उसकी शर्त यह थी कि वह अनाजों को तब बेचेगी जब उसके चावल या गेहूं के वजन के बराबर उसे चांदी मिलेगी।’
उसने लिखा है, ‘उन दिनों रैयतों की हालत अच्छी नहीं थी। किसानों के अपने घर या गांव में अनाजों के संग्रह के लिए कोई गोदाम नहीं था। इस स्थिति में उन्हें सरकारी मुलाजिमों और यहां तक कि उनकी पत्नियों पर अनाज के लिए निर्भर रहना होता था। ये सरकारी मुलजिम और उनकी पत्नियां अनाजों का संग्रह कर रखते थे।’ आज इसे आप जमाखोरी कह सकते हैं।
जमाखोरी के कारण उत्पन्न हुई भयानक स्थिति
जमाखोरी के कारण ही यह इलाका भयानक अकाल का शिकार हो गया। जबकि पटना और उसके आसपास के इलाकों की जमीन बहुत उर्वर थी। यहां इतना चावल पैदा होता था कि उसे बंगाल तक भेजा जाता था।
1671 के मई महीने में पटना में अच्छे किस्म के चावल की कीमत 4 रूपये मन से बढ़कर 5.5 रूपये मन हो गया था। जुलाई में यह बढ़कर 11 रूपये मन तक हो गया। मोटा चावल और गेहूं 5 रूपये मन तक बिकने लगा।
बीफ डेढ़ रूपये मन, बकरे का मांस ढाई रूपये मन घी 7 रूपये मन, सरसों तेल 7 रूपये मन, एक रूपये का 5 मुर्गी या 8 मुर्गा मिलने लगा। एक ऐसा भी वक्त आया, जब यह सब भी बाजार में मिलना बंद हो गया। फलस्वरूप भयानक स्थिति उत्पन्न हो गयी।
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निराश होकर लोगों ने पलायन किया या गुलाम बन गए
1671 के 7अगस्त को निराश होकर पटना के दो व्यापारियों ने कुंए में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। हजारों लोग गलियों और खुले मैदान में भूख से दम तोड़ने लगे। अक्टूबर 1670 से लेकर नवंबर 1671 के चौदह महीनों के बीच कुल मिलाकर 1,35,000 लोग पटना और उसके आस पास के इलाकों में मर चुके थे।
11 दिसंबर 1671 को मार्शल ने शहर के कोतवाल से यह आंकड़ा हासिल किया था। पिछले 12 महीनों में मरने वालों की संख्या 1,03,000 थी। जिनमें 50.000 मुसलमान थे और 53,000 हिन्दू। हाजीपुर के 4000 घर की आबादी में 1800 लोग मर चुके थे। सिंघिया से पटना लौटने के क्रम में मार्शल ने गंगा नदी की किनारे रेत पर 10 गज के भीतर करीब 32 या 33 लाशों को देखा था।
अब इस भयानक स्थिति से बचने के लिए लोग दो ही काम कर सकते थे। या तो यहां से पलायन या फिर गुलामी। मार्शल लिखता है,’ अनाज के लिए लोग पटना से ढाका चले गए। 1500 लोगों ने एक ही दिन में शहर छोड़ दिया।’
थॉमस लिखता है,‘लोगों ने मुट्ठी भर चावल के लिए ख़ुशी ख़ुशी अपने बच्चों को बेच दिया। साधारण गुलाम चार से पांच आने में बिक गए। जबकि बढ़िया गुलाम एक रूपये तक में बिके।’
भूख से तड़पते बच्चों को बेचने के लिए मजबूर हुए लोग
एक खूबसूरत बच्चे के माता पिता ने अपने बच्चे को आठ आने में बेचने का प्रस्ताव मार्शल को ही दिया था। लेकिन मार्शल तैयार नहीं हुआ। उस बच्चे का पिता 80 वर्ष का एक बूढ़ा था।
22 मई 1671 को मार्शल ने अथमलगोला के समीप एक बनारसी या बिरंची नाम के लड़के को उसके बड़े भाई से खरीदा। वह लिखता है,’उसका भाई उसे आठ आने में बेच रहा था लेकिन मैंने उसे एक रुपया दिया और उसके साथ मिठाई के लिए अलग से चार आना पैसा भी, क्योंकि यह गुलामों को खरीदते वक्त देने का रिवाज़ था।
दो पैसा उस सराय वाले को जहां यह सौदा हुआ था और एक पैसा हज्जाम को, जो लड़के का मुंडन करता।’
पटना में भी मार्शल ने एक 7-8 वर्ष के ब्राह्मण के लड़के को चार रूपये में खरीदा। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उसकी माँ देवकी ने उसे भूख से मरने से बचाने के लिए बेच दिया था। मार्शल ने उसका नाम बदलकर अब्राहम कर दिया।
उन्हीं अकाल के दिनों एक डच सर्जन और सैलानी निकोलॉस दे ग्राफ पटना आया हुआ था। वह डच ईस्ट इंडिया कंपनी का मुलाजिम भी था। उसने भी अपने संस्मरणों की किताब ‘जर्नी ऑन द गैन्गेज्स’ में इस दुर्भिक्ष का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग लिख छोड़ा है।
उसके अनुसार इस अकाल में लोग बड़ी संख्या में मारे गए थे और उनकी लाशें सड़कों पर, गलियों में और बाजारों में पड़ी रहीं, क्योंकि उन्हें उन जगहों से हटाने की किसी को सुध ही नहीं थी।
इस अकाल का प्रभाव कपड़े के उत्पादन और शोरे के व्यापार पर भी पड़ा। इसके बहुत से कारीगर भूख से मर गए थे। पटना को इस अकाल से उबरने में बहुत समय लगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ:
1. थॉमस बाउरे, ‘लॉगबुक एंड जर्नल – वॉयेज फ्रॉम इंग्लैंड टू बंगाल 1701 (येल यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी)
2. निकोलॉस दे ग्राफ,’जर्नी ऑन द गैन्गेज्स’
3. डॉ. एस,एच.अस्करी एंड डॉ. कयामुद्दीन अहमद, द कम्प्रेहैन्सिव हिस्ट्री ऑफ़ बिहार, वॉल्यूम- 2,पार्ट-2 (के.पी. जायसवाल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पटना 1987)
4. डॉ. काली किंकर दत्त,द कम्प्रेहैन्सिव हिस्ट्री ऑफ़ बिहार, वॉल्यूम-3,पार्ट-1(के.पी. जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना)