पंजाब में पहले किसान आंदोलन के नेता सरदार अजीत सिंह
अजीत सिंह भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। वह शहीद सरदार भगत सिंह के चाचा थे। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया।ब्रिटिश शासन ने उन्हें राजनीतिक ‘विद्रोही’ घोषित कर दिया गया था।
23 फरवरी, 1881 को जन्मे अजीत सिंह दूरदर्शी और क्रांतिकारी विचारक थे। 1894 में जालंधर के एंग्लो-संस्कृत हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, उन्होंने लाहौर के डीएवी कॉलेज में अध्ययन किया। बाद में, उन्होंने क़ानून की पढ़ाई के लिए बरेली कॉलेज में प्रवेश लिया, लेकिन तब तक उनका ध्यान भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों की ओर चला गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता या विदेशों में।
सरदार अजीत सिंह की पत्नी 40 साल तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताने वाली श्रीमती हरनाम कौर भी वैसे ही जीवत व्यक्तित्व वाली महिला थीं।
अंतिम साँस लेने से पहले सरदार अजित सिंह पत्नी से उन्होंने कहा था, ‘मैंने तुमसे शादी की थी, पर पति का अपना कर्तव्य नहीं निभा पाया। मुझे माफ़ कर देना।’
इसके बाद वह पलंग पर जाकर लेट गए। उन्होंने धीरे-धीरे आंखें बंद की और ज़ोर से ‘जयहिंद’का नारा लगाया।
जब अंग्रेज़ सरकार लेकर आयी थी किसान विरोधी क़ानून
1906 में दादा भाई नैरोजी की अध्यक्षता में कलकत्ता कांग्रेस हुई जहाँ वह बाल गंगाधर तिलक से बेहद प्रभावित हुए और वहाँ से लौट कर दोनों भाइयों, किशन सिंह और अजीत सिंह, ने भारत माता सोसाइटी या अंजुमन-मुहब्बाने वतन की स्थापना की और अंग्रेज़ विरोधी किताबें छापने शुरू किए।
1907 में अंग्रेज़ सरकार तीन किसान विरोधी क़ानून लेकर आयी, जिसके विरुद्ध पंजाब के किसानों में भयंकर रोष की भावना पैदा हुई। अजीत सिंह ने आगे बढ़ कर किसानों को संगठित किया और पूरे पंजाब में सभाओं का सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें पंजाब के वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को बुलाया गया।
इन तीन कानूनों का जिक्र भगत सिंह ने अपने एक लेख में किया है-
नया कंपनी एक्ट, जिसके तहत किसानों की ज़मीन जब्त हो सकती थी, बढ़ा हुआ राजस्व और बारी दोआब नहर के पानी के बढ़े हुए दर से देना था। मार्च 1907 को लायलपुर की एक बड़ी सभा में झंग स्याल पत्रिका के संपादक लाला बांके दयाल, जो पुलिस की नौकरी छोड़ आंदोलन में शामिल हो गए थे, ने एक मार्मिक कविता- पगड़ी संभाल जट्टा – पढ़ी, जिसमें किसानों के शोषण की व्यथा वर्णित है, जो इतनी लोकप्रिय हुई कि उस किसान प्रतिरोध का नाम ही कविता के नाम पर पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन पड गया।
जिसका असर 113 साल बाद 2020-21 के किसान आंदोलन पर साफ़ देखा जा सकता है, जब किसानों को फिर अपनी ज़मीन छिनने का डर पैदा हुआ है।
ब्रिटिश शासन काल में आबादकारी नामक बिल लाया गया था। इसका उद्देश्य किसानों की जमीनों को हड़प कर बड़े साहूकारों के हाथ में देना था। इस बिल के अनुसार कोई भी किसान अपनी जमीन से पेड़ तक नहीं काट सकता था। अगर किसान ऐसा करता पाया जाता तो नोटिस देकर 24 घंटे में उसकी जमीन का पट्टा कैंसिल करने का अधिकार शासन के पास था।
दूसरी सबसे खतरनाक बात यह थी कि जमीन किसान के बड़े बेटे के नाम पर ही चढ़ सकती थी। अगर उसकी औलाद नहीं होती और मुखिया किसान मर जाता तो जमीन अंग्रेजी शासन या सियासत को चली जानी थी।
इस बिल को लाकर अंग्रेजों ने बारी दोआब नहर से सिंचित होने वाली जमीनों का लगान दोगुना कर दिया था। बिल के खिलाफ 1907 में किसानों ने आंदोलन शुरू कर दिया। इसकी अगुवाई सरदार अजीत सिंह ने की। इस लहर को हुंकारा 22 मार्च 1907 तो तब मिला जब लायलपुर में किसानों के जलसे में लाला बांके दयाल ने पगड़ी संभाल जट्टा पगड़ी संभाल ओए...गीत गाया। किसानों के दबाव के आगे शासन को झुकना पड़ा और नवंबर 1907 को कानून वापस ले लिए गए।
21 अप्रैल 1907 में रावलपिंडी की ऐसी ही बड़ी मीटिंग में अजीत सिंह ने जो भाषण दिया, उसे अंग्रेज़ सरकार ने बहुत ही बाग़ी और देशद्रोही भाषण माना और आज की ही तरह उन पर दफ़ा 124-ए के तहत बाद में केस दर्ज किया। पंजाब भर में ऐसी 33 बैठकें हुई, जिनमें से 19 में अजीत सिंह ही मुख्य वक्ता थे।
भारत में अंग्रेज सेना के कमांडर लार्ड किचनर को आशंका हुई कि इस आंदोलन से सेना और पुलिस के किसान घरों के बेटे बग़ावत कर सकते हैं और पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने भी अपनी रिपोर्ट में ऐसी ही आशंका जताई तो अंग्रेज़ सरकार ने मई 1907 में ही ये कानून रद्द कर दिए। लेकिन आंदोलन के नेताओं-लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को 1818 की रेगुलेशन-3 में छह महीने के लिये बर्मा (जो उन दिनों भारत का हिस्सा था) की मांडले जेल में निष्कासित कर दिया, जहां से उन्हें 11 नवंबर 1907 को रिहा किया गया।
अजीत सिंह के बारे में कभी बाल गंगाधर तिलक ने कहा था अजीत सिंह स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। जब तिलक ने यह कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल 25 वर्ष थी।
भारत की आज़ादी के लिए वैश्विक यात्रा
अंग्रेज़ सरकार उनके विद्रोही विचारों के कारण उनके खिलाफ कुछ बड़ी कार्रवाई करने की योजना बना रही थी, जिसे देखते हुए अगस्त-सितंबर 1909 में सूफी अंबा प्रसाद के साथ अजीत सिंह कराची से समुद्री जहाज पर सवार होकर ईरान चले गए। अब उनका नाम मिर्ज़ा हसन खान था, जिस नाम से बाद में उनका ब्राजील का पासपोर्ट भी बना।
1914 तक ईरान, तुर्की, पेरिस, जर्मनी व स्विट्जरलैंड में रह कर, जहां वह कमाल पाशा, लेनिन, ट्रॉट्स्की जैसे विदेशी क्रांतिकारियों व लाला हरदयाल, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय और चम्पक रमन पिल्लई जैसे भारतीय क्रांतिकारियों से मिले। 1914 में वे ब्राज़ील चले गए और 18 साल तक वहीं रहे वहाँ वे गदर पार्टी के संपर्क में रहे।
स्वास्थ्य संबंधी कारणों से वे कुछ समय अर्जेंटीना में भी रहे। जीविका के लिए वे विदेशियों को भारतीय भाषाएँ पढाते थे और भाषा प्रोफेसर पद पर भी रहे, वह चालीस भाषाओं के वे ज्ञाता हो चुके थे।
1932 से 1938 तक अजीत सिंह यूरोप के कई देशों, लेकिन ज्यादातर स्विट्जरलैंड में रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे इटली में आ गए थे। इटली में वह नेताजी सुभाष बोस से मिले और वहाँ 11000 सैनिकों का आज़ाद हिन्द फौज भी बनाया।
फ्रेंड्स ऑफ इंडिया संगठन जिसके अध्यक्ष मुसोलिनी के करीबी सांसद ग्रे थे, अजीत सिंह उसके महासचिव और इकबाल शैदाई उसके उपाध्यक्ष थे।
विश्व युद्ध समाप्त होने पर उन्हें खराब स्वास्थ्य के बावजूद जर्मनी की जेल में कैद रखा गया और उन्हें छुड़ाने के लिए अंतरिम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू को दखल देना पड़ा। रिहा होने के बाद दो महीने लंदन में रह कर उन्होंने स्वस्थ होने पर ध्यान दिया और 7 मार्च 1947 को वे 38 साल बाद भारत लौटे।
दिल्ली में वह प्रधान मंत्री नेहरू के व्यक्तिगत मेहमान रहे और 9 अप्रैल को वेह जब लाहौर पहुंचे तो उनका जबरदस्त स्वागत किया गया। खराब स्वास्थ्य के कारण वह गांव नहीं जा सके और उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए जुलाई 1947 में डलहौज़ी जाना पड़ा। वहीं पर 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात में हिंदुस्तान में ब्रिटिश राज खत्म होने पर प्रधानमंत्री नेहरू का भाषण सुनकर सुबह करीब 3.30 पर उन्होंने जय हिन्द कह कर सदा के लिए आँखें मूँद लीं।
अपने अंतिम वसीयतनामे में, सिंह ने लिखा:
“हमारे गरीब भारत का विभाजन होना दुर्भाग्यपूर्ण है। सदियों से एक साथ रहने वाले लोग एक-दूसरे के और करीब आ रहे थे और संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रीय विचार में संयुक्त रूप से योगदान दे रहे थे। लेकिन व्यक्तिगत सत्ता की लालसा में महत्वाकांक्षी राजनेता, विदेशी शासकों के संरक्षण में, षड्यंत्र, धार्मिक कट्टरता का दुरुपयोग और जनता की अज्ञानता के माध्यम से, भावी पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा अहित करने में लगे हुए हैं।
विदेशी शासकों द्वारा बोए गए फूट के बीज से वह वृक्ष उत्पन्न हुआ जो अब मातृभूमि के विभाजन के रूप में अपना विनाशकारी फल दे रहा है। इस प्रकार भविष्य की परेशानियों की ठोस नींव रखी गई है।
डलहौज़ी में ही उनका स्मारक पंजपुला पर बना है, जहां अब हजारों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं. देशभक्ति की इस ज्वलंत ज्योति का पटाक्षेप आज़ादी की ताज़ी हवा से हुआ।
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संदर्भ
जिंदा दफन ,सरदार अजीत सिंह, संवाद प्रकाशन,मेरठ, 2020
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