रुकैया सखावत हुसैन : जिन्होंने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा का ख्वाब दिखाया
[ मुस्लिम स्त्री शिक्षा की अलख जगाने वालीं बेगम रुकैया सखावत हुसैन का आज जन्मदिन भी है और पुण्यतिथि भी। सुजाता बता रही हैं उनके संघर्षमय और प्रेरणास्पद जीवन के बारे में]
9 दिसम्बर, 1880 को बंगाल के रंगपुर डिस्ट्रिक्ट के एक गाँव के रूढिवादी मुस्लिम ज़मींदार के यहाँ जन्मी बेग़म रुकैया सखावत हुसैन एक स्त्रीवादी विचारक, शिक्षाविद, समाज सुधारक और लेखिका थीं। 16 बरस की उम्र में उनका ब्याह भागलपुर के सैयद सखावत हुसैन के साथ कर दिया गया।
रुकैया बेगम ने 1909 में भागलपुर में मुस्लिम लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला जिसे किन्हीं निजी कारणों से बंद करना पड़ा और कोलकाता आना पड़ा। सखावत हुसैन रुकैया बेगम के इरादों के प्रति संवेदनशील थे और उन्हीं की आर्थिक मदद थी कि कोलकाता में उन्होंने 16 मार्च 1911 में उन्होंने सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल की स्थापना की। यह स्कूल 1935 में बंगाल सरकार द्वारा अधिकृत कर लिया गया और अब तक वहाँ चलता है।
सुल्ताना का सपना
1916 में बेग़म रुकैया ने मुसलिम महिला संगठन अंजुमन-ए-खवातीन-ए-इस्लाम की स्थापना की जिसका उद्देश्य ही था स्त्री-शिक्षा और रोज़गार के लिए प्रयास करना।
सुल्ताना का सपना जैसा स्त्रीवादी यूटोपिया उनकी सोच और स्त्रीवादी मकसद को ज़ाहिर करता है जो शुद्ध रूप से औरतों की एक दुनिया है, वे ज्ञान-विज्ञान पढीं, विदुषी हैं, प्रशासक हैं, कामगर हैं और पूरी तरह स्वतंत्र हैं।
जेंडर भूमिकाओं को पूरी तरह रिवर्स कर देती कहानी है सुल्ताना का सपना जहाँ औरतें दुनिया चलाती हैं और मर्द चारदीवारी में बंद रहते हैं। पिता के सख्त रुख की वजह से रुकैया कभी स्कूल नहीं जा पाई थीं। लेकिन अपने बड़े भाई से अंग्रेज़ी और बहन करीमुन्निसा से बांग्ला सीखी। पढने का उन्हें बेहद चाव था और शायद यही वजह थी कि भाई की दी एक किताब ने उनके कई अरमानों को जगा दिया। क्या पता स्कूल न जा पाने की इस कसक ने ही मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोलने का सपना दिखाया।
बांग्ला भाषा और बेग़म रुकैया
बेगम रुकैया सखावत हुसैन जैसी सुधारकों के मुस्लिम स्त्री शिक्षा के प्रयासों का ही नतीजा रहा कि बंगाल में, बल्कि दुनिया भर में, विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलनों ने कई महिला क्रांतिकारी दिए। असलम ख़्वाजा ऐसे कई नाम गिनाते हैं। सोफ़िया ख़ान ने 1948 में ढाका विश्वविद्यालय में 1948 में प्रवेश लिया अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने के लिए और बाद में छात्र आंदोलन से जुड़कर लड़कियों को पढ़ने और बांग्ला बाज़ार के स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया, आंदोलन में शामिल होकर कर्फ्यू तोड़ा।
21 फरवरी, 1952 में जब उर्दू को पाकिस्तान की एकमात्र भाषा बनाने की घोषणा के ख़िलाफ़ आंदोलन हुआ तो डॉ. हमीदा ख़ातून को यह काम सौंपा गया कि अपने साथ बांग्ला बाज़ार गर्ल्स स्कूल से और ढाका विश्वविद्यालय से लड़कियों को लेकर आएँ और 144 तोड़ें। उस दिन लड़कियों के इस जत्थे ने आँसू गैस, लाठी चार्ज सब सहा लेकिन विरोध स्थल पर पहुँची।[1]
पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) पर पश्चिमी पाकिस्तान से आदेश ऐसे आते थे जैसे कोई मालिक हुकम देता है अपनी प्रजा को, दास को। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुसलमान के लिए बांग्ला मातृभाषा थी और इस अधिकार को वह छोड़ने के लिए तैयार न था। पूर्वी पाकिस्तान की महिलाओं के अपनी भाषा के लिए किए जाने वाले संघर्ष और यातनाएँ हमेशा याद रखी जानी चाहिए[2]
बंगाली मुस्लिम अशराफ़ को बांग्ला बोलने के लिए हतोत्साहित किया जाता था।
रुकैया बेगम ‘लोकोनो रतन’ (खोया हुआ रत्न) में अपनी बहन करीमुन्निसा की, जो खोया हुआ रत्न है, एक घटना बताती हैं जो एक बार अप्रतिष्ठित बांग्ला में एक पत्रिका पढ़ रही थी जो पिता के आते ही हाथों से छूट जाती है। डरी हुई बच्ची की अपेक्षा के विपरीत पिता उसके लिए बांग्ला पढ़ने का इंतज़ाम करते हैं।
इस बात पर बड़े-बुज़ुर्ग आपत्ति करते है और हंगामा खड़ा हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि बांग्ला छुड़वाकर करीमुन्निसा की शादी कर दी जाती है वह भी ऐसे इलाके में जो बेहद रूढ़िवादी था। करीमुन्निसा और रुकैया का बांग्ला से जुड़ाव नहीं छूटता फिर भी। करीमुन्निसा कविताएँ लिखती हैं बाद में।
पर्दा : लड़कियाँ पढ़ेंगी तो आप लड़ेंगी
रुकैया जानती थी कि यह राह आसान नहीं है। ज़नाना तक महदूद, मुस्लिम लड़कियों को बाहर स्कूल तक लाना एक चुनौती है। यह बाद में आलोचना का विषय भी बना कि रुकैया के स्कूल में पर्दा एक सख़्त नियम था लेकिन लड़कियों को पढाने का जिस तरह सम्भ्रांत मुस्लिम परिवारों में विरोध था उसके चलते रुकैया ने अशिक्षा और पर्दे में से पर्दे को चुना। कम से कम कड़कियाँ पढने तो भेजी जाएँ पहले!
उन्होंने पर्दा को एक सख़्त नियम की तरह लागू किया अपने स्कूल में इसके बावजूद उन्हें अपने समाज में विरोध का सामना करना पड़ा। स्कूल भी उन्होंने पति के नाम से, सखावत स्कूल, खोला और पढ़ाई का माध्यम उर्दू को ही रखा।
लड़कियों को स्कूल लाने-ले जाने की ग़ाडियों में पर्दे की जगह दरवाज़े लगा दिए गए थे और कई बार लड़कियाँ गर्मी और घुटन से उलटी भी कर देती थीं। स्कूल के कपड़ों में बुर्खे की जगह एक हिजाब हुआ करता था ताकि आधुनिक और पुरातन का मेल किया जा सके।
जहाँ मर्द फैसले नहीं लेते और घरों में बंद रखे जाते हैं क्योंकि वे घरों की इज़्ज़त हैं, ऐसी कहानी सुलाना का सपना लिखने वाली रुकैया बुर्के पर भी निबंध लिखा करती थीं और तीन तलाक़ की प्रथा के ख़िलाफ़ भी। वही रुकैया स्कूल खोलने पर सख़्ती से लड़कियों की एकांतता, पार्थक्य (seclusion) के लिए नियम बनाती है। एक जगह वह लिखती है, पर्दा घाव नहीं देता, दर्द नहीं देता लेकिन वह साइलेंट किलर है, कार्बन मोनोऑक्साइड की तरह।
कम से कम विरोध में वह ज़्यादा से ज़्यादा शिक्षा का काम करना चाहती थीं यह सहज समझ आता है। जब लड़ाई हो पढ़ने की पाबंदियों से तो पढ़ाई को महत्व देना चाहिए। लड़कियाँ पढ़ेंगी तो आप लड़ेंगी। लेकिन रुकैया का प्रयास बहुत सफल नहीं हुआ। प्रो-ईसाई होने और यूरोपीय संस्कृति की प्रशंसक, एक Europhile होने के भी आरोप लगे जन उन्होंने कैथरीन मेयो की किताब मदर इंडिया का समर्थन किया।
महिला संगठनों में सक्रिय सहभागिता
बंगाल में मुस्लिम स्त्री की क्या दशा है इस पर अगर किसी को राय लेनी हो तो बेगम रुकैया उसका विश्वस्त स्रोत बन गई। उनकी सामाजिक, राजनीतिक सक्रियता ने उस समय के सक्रिय कई महिला संगठनों के लिए उन्हें एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बना दिया। वे कई महिला नेताओं से जुड़ीं। सरोजिनी नायडू ने उनके काम की प्रशंसा की। भोपाल की बेग़म, बी अम्मा भी उनसे जुड़ी थीं। 1925 में अलीगढ में और फिर 1926 में वह बंगाल महिला शिक्षा सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण के लिए बुलाई गईं। इस भाषण में उन्होंने दुख जताया कि बीस साल काम करने के बाद भी आज बंगाल में एक महिला स्नातक नहीं मिलती।
52 साल की उम्र में 9 दिसम्बर को ही रुकैया बेगम की मृत्यु हुई। आख़िरी दिन तक वे लिखने, पढने के काम में ही सक्रिय थीं। बांग्लादेश के स्कूल, कॉलेजों में यह दिन सेलिब्रेट किया जाता है और ढाका विश्वविद्यालय के प्रांगण में उनकी प्रतिमा लगाई गई है।
तीन तलाक़
अपने एक निबंध में बेगम रुकैया तीन तलाक़ की प्रथा के ख़िलाफ़ लिखती हैं-
तीन तलाक बोलने के बाद आदमी अपने दोस्तों के साथ छुट्टियों पर चला जाता है। बाप, भाई, चाचा, या जो भी कोई लड़की के अभिभावक के रूप में उपस्थित होता है (ऐसे दो-एक लोगों को पहले ही बुला लिया जाता है) अब तक रोती हुई उस लड़की को जबरन खींचकर पालकी में बैठाते हैं और चले जाते हैं।
उत्तर बंगाल में, ऐसे बूढे मर्दों की विवाह योग्य युवतियों से शादी रचाने की बेकरारी और ख़्वाहिश के बारे में एक कविता है-
हुकुर हुकुर बुड्ढा खाँसता है
हुकुर हुकुर खाँसता है वह
निकाह की बात पर हँसता है बूढ़ा
फुकुर फुकुर हँसता है वह
आज जब तीन तलाक़ कानून बन चुका है तब मुस्लिम स्त्रियों को, और हम सबको इस पुरखिन को याद करना चाहिए जिसने मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा की अलख़ जगाई और पर्दा, तलाक़ जैसी प्रथाओं पर निर्भय होकर लिखा।
संदर्भ
[1] देखें, पेज- 432-434, पीपल्स मूवमेंटस इन पाकिस्तान, असलम ख़्वाजा, अनुवाद- नूर ज़हीर, द मार्जिनल पब्लिकेशन, 2017
[2] बंगाली लड़कियाँ छात्र आंदोलन में बढ-चढकर भाग ले रही थीं। बांग्ला को राष्ट्र भाषा बनवाने के लिए बड़ी संख्या में औरतों और लड़कियों ने आंदोलन किया। गोलियाँ खाई, लाठियाँ खाई, यौनिक हिंसा झेली। ज़ाहिदा हिना किसानों के तिभागा आंदोलन में आगे आगे रहने वाली लीला मित्रा का ज़िक्र करती हैं जिसकी देह का निचला हिस्सा भूखे चूहों से कुतरवा दिया गया और इतनी यातना दी गई कि अंतत: वह निचले धड़ से शून्य हो गई। बावजूद इसके वह पीछे नहीं हटी और राजनीतिक संघर्ष में पाकिस्तानी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी। कुछ यही मामला मोतिया चौधरी का भी रहा। [ देखें, पेज- 63, पाकिस्तानी स्त्री: यात्ना और संघर्ष, ज़ाहिदा हिना, अनुवाद: शकील सिद्दिक़ी , वाणी प्रकाशन, 2014]
स्रोत
- फ़्रीडम फेबल्स: सटायर्स एंड पॉलिटिकल राइटिंग्स, रुकैया सखावत हुसैन, अनु. कल्याणी दत्ता, ज़ुबान बुक्स, 2019
- पीपल्स मूवमेंटस इन पाकिस्तान, असलम ख़्वाजा, अनुवाद- नूर ज़हीर, द मार्जिनल पब्लिकेशन, 2017
- विमेन इन मॉडर्न इंडिया, गेराल्डाइन फोर्ब्स,फोर्ब्स, केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1996
- कथा जगत की बाग़ी मुस्लिम औरतें, सं: राजेंद्र यादव, राजकमल प्रकाशन, 2015
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।